Why rash to unlock? अनलॉक के लिए व्यग्रता क्यों?

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प्रधानमंत्री अब अनलॉक करने के लिए सारे प्रांतों के मुख्यमंत्रियों से मशवरा कर रहे हैं। अनलॉक का पहला चरण 30 जून से पूरा हो जाएगा। अर्थात् एक जुलाई से वे पूरे देश में सब कुछ खुल जाने के संकेत हैं। पर अब लोग डरे हुए हैं, वे प्रधानमंत्री के इस अनलॉक को मानने को राजी नहीं हैं। और इसकी वजह भी है। देश में आज कोविड-19 से पीड़ित लोगों की संख्या चार लाख के करीब पहुँच रही है। मृतक संख्या भी तेरह हजार पार कर चुकी है। तब अनलॉक के मायने क्या हैं? यानी एक तरह से खुद की जोखिम पर निकलना। इसलिए लोग अनलॉक के बावजूद घर से नहीं निकल रहे। दूसरे जब लॉक डाउन की घोषणा की थी, तब क्या प्रधानमंत्री ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से सलाह की थी? उस समय तो अचानक पूरे देश को ठप कर दिया गया था। जो जहाँ फँसा था, वहीं फँस गया। जो लोग 75 दिन फँसे रहे, उन्हें अब कैसे इस अनलॉक पर भरोसा होगा? याद करिए, देश में जब कोरोना संक्रमित कुल 500 थे, तब अचानक 20 मार्च को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी टीवी पर आए और 22 मार्च को पूरे देश में कर्फ़्यू लगा दिया गया। उसके अगले रोज से दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की सीमाएँ सील कर दीं। इसके पहले कोई चेतावनी भी नहीं दी गई। बल्कि 22 मार्च को शाम पाँच बजे देशवासियों से अपील की गई कि लोग कोरोना वारियर्स- डॉक्टर, पुलिस और पत्रकारों- के सम्मान में थाली, घंटा बजाएँ और ताली बजाएँ। लोगों ने खूब यह कर्मकांड किया। इसके बाद अचानक प्रधानमंत्री ने 25 मार्च से 14 अप्रैल तक के लिए सम्पूर्ण देश में लॉक डाउन घोषित कर दिया। सब कुछ थम गया। ट्रेनें, बसें, मेट्रो, निजी वाहन आदि सब। यहाँ तक कि लोगों के घर से निकलने तक पर भी पाबंदी लगा दी गई। सिर्फ़ दूध और ग्रोसरी का सामान बेचने वाली दूकानों को खोलने की छूट दी गई। इन दूकानों में खूब लूट मची। घटिया क्वालिटी का सामान इन लोगों ने महँगे दामों पर बेचा। और कोई शिकायत सुनने वाला नहीं। जो मिल रहा है, वही खरीद लो। इसके बाद यह लॉक डाउन दो-दो हफ़्ते के लिए बढ़ता रहा। बस कुछ-बहुत ढील के साथ। लेकिन एक जून से लगभग सब कुछ खोल दिया गया। किंतु तब तक कोरोना से संक्रमित लोगों की संख्या दो लाख के करीब थी। किसी को भी यह समझ नहीं आया, कि प्रधानमंत्री ने अब कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ने पर अचानक लॉक डाउन क्यों खोला? और क्यों वे अब राज्यों के मुख्यमंत्रियों से लगातार सम्पर्क में हैं? क्योंकि जब सब से बातचीत कर पहल करनी थी, तब प्रधानमंत्री ने किसी से नहीं पूछा। और जब अर्थतंत्र के मामले में उन्हें स्वयं फैसला करना है, तब वे मुख्यमंत्रियों को बुला-बुला कर पूछ रहे हैं। सच बात तो यह है, कि लॉक डाउन अपने देश में हड़बड़ी मेंं किया गया। लॉक डाउन से होने वाले दुष्प्रभावों के बारे में नहीं सोचा गया। इस लॉक डाउन से कितनी अफरा-तफरी फैलेगी या देश कितने लोग बेरोजगार हो जाएँगे आदि पर नहीं सोचा गया। नतीजा सामने है। हजारों-लाखों लोग बेघरबार हो गए। कोई यहाँ फँसा तो कोई वहाँ। लाखों मजदूर इधर से उधर पैदल मारे-मारे फिरे। लेकिन सरकार के कान में जून तक नहीं रेंगी। भूख से बिलबिलाते बच्चे धूप और धूल में चलते रहे।
किंतु उनके लिए कुछ नहीं किया गया। तब अचानक लॉक डाउन पूरी तरह समाप्त करने का क्या आशय निकाला जाए! क्या सरकार व्यापारियों के दबाव में है? अन्यथा क्या वजह है, कि सरकार अब सब कुछ खोलने की हड़बड़ी में है।  जब लॉक डाउन पीरियड था, तब पुलिस भी चौकस थी। हर आधा किमी पर बैरियर लगे थे। पुलिस की इस नाकाबंदी को पार कर जाना मुश्किल था। लोग भटकते रहे। किंतु जैसे ही लॉक डाउन में जरा-सी ढील मिली। पुलिस फुर्र हो गई। शायद वह भी लॉक डाउन की रात-दिन की ड्यूटी से राहत चाहती थी। कोविड अस्पतालों की कमियाँ खुल कर सामने आने लगीं। सरकारी अस्पतालों में मरीजों की कोई देखभाल नहीं और प्राइवेट अस्पतालों में खुली लूट। दिल्ली के बड़े-बड़े नामी-गिरामी अस्पताल कोविड मरीजों को बेड देने के लिए पाँच लाख रुपए की माँग अंडर टेबल करते और इलाज का लगभग तीन लाख का खर्च अलग। यानी जुकाम टाइप एक बीमारी के इलाज के लिए आठ से दस लाख का स्वाहा। अस्पताल किसी के भी मरने-जीने से उदासीन रहे। ऐसी अफरा-तफरी भरे माहौल में अनलॉक से डर फैलना ही था। इसीलिए बाजार तो खुले, लेकिन लोग नहीं आए। मार्केट में सन्नाटा है। हर चीज के दाम आसमान पर हैं। आता, दाल, चावल, मसाले आदि सभी। यही कारण है, कि लो नहीं निकल रहे। वे इस कठिन दौर में पैसा बचा कर रखना चाहते हैं। उनको लगता है, कि वही चीजें खरीदी जाएँ जो जीवन के लिए अनिवार्य हो। उपभोक्ता वस्तुओं पर वे पैसा नहीं उड़ाना चाहते। तमाम लोगों की नौकरियाँ खत्म हो गई हैं, और जिनकी बची हुई हैं, उनमें पगार किसी की आधी तो किसी की तिहाई हो गई है। और वह भी समय पर नहीं मिलती। सच बात तो यह है, कि सरकारी कर्मचारियों को छोड़ कर शेष सभी लोग बेहाल हैं। लोगों के पास की जमा-पूँजी मोदी सरकार ने 2014 में निकलवा ली थी। ऊपर से जीएसटी ने सत्यानाश कर दिया। तब फिर कैसे यह उम्मीद की जाए, कि अनलॉक को लोग सपोर्ट करेंगे। मगर जब ज्यादा सख़्ती की जरूरत है, तब सरकार सारे व्यावसायिक संस्थान खोल रही है। माल, होटल, रेस्तराँ आदि सब। बल्कि महाराष्ट्र में तो स्कूल खोलने की तैयारी है। मुझे लगता है, कि प्रधानमंत्री जी को कुछ बातों पर गौर करना चाहिए। जैसे उन्हें स्वयं कोरोना के बारे में कोई आधिकारिक बयान देना चाहिए। उन्हें सारी ट्रेनें और सार्वजनिक परिवहन सेवाएँ शुरू कर देनी चाहिए। बस लोगों को अपना रूटीन बदलने का आदेश दें। अर्थात् काम तो चलेगा, लेकिन समय बदल जाएगा। छह-छह घंटे की पाली होगी। हफ़्ते के सातों दिन काम करना पड़ेगा। बीमार पड़े, तो इलाज मुफ़्त और सरकार कराएगी। सारे निर्माण कार्य रात को होंगे, इसलिए मजदूरों का पलायन नहीं होगा। हर हाथ को काम भी मिलता रहेगा। विदेशों के लिए भी आवा-जाही शुरू कर दें। बस हिदायत यह रहे, कि बिलावजह का आना-जाना नहीं हो। दिल्ली-एनसीआर का साइज छोटा करने के लिए सिर्फ़ केंद्र सरकार के दफ़्तरों को छोड़ कर बाकी के दफ़्तर या तो छोटे शहरों में शिफ़्ट किए जाएँ अथवा लोगों को वर्क फ्रÞाम होम के लिए प्रोत्साहित किया जाए। सर्विस सेक्टर को हतोत्साहित कर उत्पादन को बढ़ावा दिया जाए। स्कूल, कालेज, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च आदि सब खोले जाएँ, लेकिन पूरी सफाई और फिजिÞकल डिस्टैंसिंग के साथ। अब बाकी प्रधानमंत्री जी तय करें।
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