Why only fair and beautiful! अति गोरी और अति सुंदर ही क्यों!

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चूंकि यह समाज पुरुष-प्रधान है, इसलिए सुंदरता के मानक भी पुरुष स्वयं तय करता आ रहा है। आप वैवाहिक विज्ञापन पढ़ें या किसी पुरुष से उसकी होनी वाली जीवन-संगिनी के बारे में पूछें, एक ही जवाब आता है- अति गोरी और अति सुंदर। अब यह अति गोरी क्या है? अगर किसी कन्या को श्वेत कुष्ठ (सफ़ेद दाग) हों, तो अति गोरी वह मानी जाएगी या नहीं? इसी तरह अति सुंदर के मानक भी विचित्र हैं। पूरा पुरुष समाज आज तक अति सुंदर को परिभाषित नहीं कर सका है। आप चाहे जितने नायिका भेद पढ़ डालें। कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है। मध्य काल के कवियों में नायिका के नख-शिख वर्णन का खूब प्रसंग मिलता है। खास कर इसकी शुरुआत मलिक मोहम्म्द जायसी ने की है, पर अंत तक वे यह नहीं बता सके, कि रानी पद्मावती सर्वांग-सुंदरी क्यों है? दरअसल हमारे यहाँ काव्य-शास्त्र चतुर बनने और चतुर कहाने का एक उपाय है। इसलिए हर कवि ने इसका सहारा ही लिया है। लेकिन भक्ति काल के कवि तुलसी, सूर और मीरा इससे दूर हैं। तुलसी ने तो लिखा ही है- “कवि न होऊँ, नहिं चतुर कहावहुं!” यानी कवि का मतलब ही है, चतुर कहलाना।

लेकिन इन कवियों ने अनजाने ही स्त्रियॉं को पीछे धकेल दिया है। जायसी सूफी कवि थे, लेकिन पद्मावती की सुंदरता का वर्णन करने में वे सारी मर्यादाएँ तोड़ बैठे। इसी तरह रहीम ने भी नायिका भेद करते समय जातियाँ ढूँढ डालीं। वे ब्राह्मणी को छोड़ सबको लोलुप नज़रों से देखते हैं। भले इसे सामान्य मज़ाक कहा जाए, लेकिन किसी स्त्री के साथ ही मज़ाक क्यों? क्योंकि स्त्री विरोध नहीं कर सकती। विरोध उसका पति करेगा, जिसकी जातीय हैसियत ही उसकी मर्यादा और सीमा है। बड़ी जाती वाले को सम्मान और क्रमशः छोटी जाती वाले का अपमान। यह हमारे उस मध्य काल की विशेषता थी, जिसे इतिहासकार स्वर्ण काल बताते नहीं थकते।

चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी असल में थीं या मिथ, यह अभी तक साफ़ नहीं हो पाया है। लेकिन जायसी ने इस तरह से उस रानी का वर्णन कर दिया है, कि कोई भी रानी हो, वह पद्मिनी जैसी सुंदर दिखने का ही प्रयास करेगी। मलिक मोहम्मद जायसी के महाकाव्य पद्मावत में रानी पद्मिनी का चरित्र जिस तरह उकेरा गया,  वह कल्पनातीत है। मज़े की बात, कि जिस सुल्तान अलाउद्दीन खिलज़ी के लिए वे रानी की सुंदरता का वर्णन करते हैं, वह सुल्तान उनसे दो सौ वर्ष पहले का था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मलिक मोहम्मद जायसी पर सबसे पहले काम किया था, वे स्वयं इसे काफी हद तक काल्पनिक बताते हैं। अमीर खुसरो जो खुद उस चित्तौड़ की चढ़ाई में अलाउद्दीन खिलज़ी के साथ गया था, उसने भी रानी पद्मिनी का ज़िक्र नहीं किया है।

आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि मलिक मुहम्मद जायसी का प्रमुख ग्रन्थ पद्मावत है। इसी पद्मावत में चितौड़ के राजा रत्नसेन और सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती की प्रेमकथा कही गयी है। यह सूफी काव्य परंपरानुसार मसनवी शैली में 57 खण्डों में लिखा गया है। आचार्य शुक्ल अपनी पुस्तक ‘त्रिवेणी’ में पद्मावत के कथानक के दो आधार बताते हैं। उनका कहना है कि ‘पद्मावत की सम्पूर्ण आख्यायिका को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। रत्नसेन की सिंहलद्वीप यात्रा से लेकर पद्मिनी को लेकर चितौड़ लौटने तक हम कथा का पूर्वार्द्ध मान सकते हैं और राघव के निकाले जाने से लेकर पद्मिनी के सती होने तक उत्तरार्द्ध. ध्यान देने की बात है कि पूर्वार्द्ध तो बिल्कुल कल्पित कहानी है और उत्तरार्द्ध ऐतिहासिक आधार पर है.’(त्रिवेणी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृ.22)।

जायसी पर लिखे इसी निबंध में आगे शुक्ल जी इसके ऐतिहासिक आधार की और गहरी पड़ताल करते हैं। ”विक्रम संवत् 1331 में लखनसी चितौर के सिंहासन पर बैठा. वह छोटा था इससे उसका चाचा भीमसी (भीम सिंह) ही राज्य करता था. भीमसी का विवाह सिंहल के चौहान राजा हम्मी शक की कन्या पद्मिनी से हुआ था, जो रूप गुण में जगत में अद्वितीय थी। उसके रूप की ख्याति सुनकर दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन ने चित्तौरगढ़ पर चढ़ाई की। अलाउद्दीन ने संवत् 1346 वि. (सन 1290 ई. ,पर फ़रिश्ता के अनुसार सन 1303 ई. जो ठीक माना जाता है) में फिर चितौरगढ़ पर चढ़ाई की। इसी दूसरी चढ़ाई में राणा अपने ग्यारह पुत्रों सहित मारे गए। जब राणा के ग्यारह पुत्र मारे जा चुके और स्वयं राणा के युद्ध क्षेत्र में जाने की बारी आई तब पद्मिनी ने जौहर किया। टॉड ने जो वृत्त दिया है, वह राजपूताने में रक्षित चारणों के इतिहास के आधार पर है। दो चार ब्योरों को छोड़कर ठीक यही वृतांत ‘आईने अकबरी’ में भी दिया हुआ है।”

लेकिन जनश्रुति थोड़ी अलग है और उसके अनुसार रानी पद्मिनी, चित्तौड़ की रानी थी। पद्मिनी को पद्मावती के नाम से भी जाना जाता है, वे शायद 13 वीं 14 वीं सदी में हुईं। रानी पद्मिनी के साहस और बलिदान की गौरवगाथा राजस्थान के लोक गाथाओं में अमर है। सिंहल द्वीप के राजा गंधर्व सेन और रानी चंपावती की बेटी पद्मिनी चित्तौड़ के राजा रतनसिंह के साथ ब्याही गई थीं। रानी पद्मिनी बहुत खूबसूरत थीं और कहते हैं कि उनकी खूबसूरती पर एक बार दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की बुरी नजर पड़ गई। अलाउद्दीन किसी भी कीमत पर रानी पद्मिनी को हासिल करना चाहता था, इसलिए उसने चित्तौड़ पर हमला कर दिया। रानी पद्मिनी ने आग में कूदकर जान दे दी। लेकिन अपनी आन-बान पर आँच नहीं आने दी। ईस्वी सन् 1303 में चित्तौड़ पर अलाउद्दीन खिलजी ने हमला किया था। अब इसके पीछे उसकी मंशा दिल्ली सल्तनत का विस्तार थी या सुंदरी रानी पद्मिनी को पाने की ललक, इस बारे में कोई अधिकृत प्रमाण उपलब्ध नहीं है।

जनश्रुति यह है कि उसने दर्पण में रानी का प्रतिबिंब देखा था और उसके सम्मोहित करने वाले सौंदर्य को देखकर अभिभूत हो गया था। लेकिन कुलीन रानी ने अपनी लज्जा को बचाने के लिए जौहर करना बेहतर समझा। पद्मिनी सिंहल द्वीप (श्रीलंका) की अद्वितीय सुंदरी राजकन्या थीं तथा चित्तौड़ के राजा भीमसिंह अथवा रत्नसिंह की रानी थी। उसके रूप, यौवन और जौहर व्रत की कथा, मध्यकाल से लेकर वर्तमान काल तक चारणों, भाटों, कवियों, धर्मप्रचारकों और लोकगायकों द्वारा विविध रूपों एवं आशयों में व्यक्त हुई है।

सुल्तान के साथ चित्तौड़ की चढ़ाई में वहां गए अमीर खुसरो ने ‘तारीखे अलाई’ में इसका कोई ज़िक्र नहीं किया है। अलाउद्दीन के बेटे खिज्र खाँ और गुजरात की रानी देवलदेवी की प्रेमगाथा ‘मसनवी खिज्र खाँ’ में भी इसका उल्लेख नहीं है। फारसी इतिहास लेखकों ने भी इस संबध में कुछ भी नहीं लिखा है। केवल फरिश्ता ने चित्तौड़ की चढ़ाई (सन् 1303) के लगभग 300 साल बाद इसका ज़िक्र जायसी की काव्यकृति पद्मावत, जो वर्ष 1540 के आसपास लिखा गया, के आधार पर किया है। पर इस वृत्तांत को विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता। इतिहासकर गौरीशंकर ओझा ने लिखा है कि पद्मावत, तारीखे फरिश्ता और इतिहासकार टाड के संकलनों में तथ्य केवल यहीं है कि चढ़ाई और घेरे के बाद अलाउद्दीन ने चित्तौड़ को जीता। राजा रत्नसेन मारा गया और उसकी रानी पद्मिनी ने राजपूत रमणियों के साथ जौहर की अग्नि में आत्माहुति दी। बाकी बातें कल्पना के आधार पर लिखी गईं।

ओझा जी ने तो पद्मिनी को सिंहल द्वीप की राजकुमारी मानने से मना किया है। उन्होंने रत्नसिंह के बाबत  कुंभलगढ़ का जो शिलालेख प्रस्तुत किया है,  उसमें उसे मेवाड़ का स्वामी और समरसिंह का पुत्र लिखा गया है। यद्यपि यह लेख भी रत्नसिंह की मृत्यु (1303) के 157 वर्ष बाद सन् 1460 में उत्कीर्ण किया गया था। लेकिन इतिहासकार तेजपाल सिंह धामा ने उन्हें ऐतिहासिक संदर्भो एवं जाफना से प्रकाशित ग्रंथों के आधार श्रीलंका की राजकुमारी ही सिद्ध किया है। चारणों और भाटों के प्रशस्ति गायन और ‘पद्मिनी महल’ तथा ‘पद्मिनी के तालाब’ जैसे स्मारकों के आधार पर रत्नसिंह की रानी को पद्मिनी नाम दे देना कुछ अटपटा लगता है। यह हो सकता है कि राजा रतनसिंह की रानी ने पति की मृत्यु पर सतीत्त्व की रक्षा के लिए जौहर कर लिया हो। और मेवाड़ के चारणों तथा भाटों ने उस अज्ञात नाम वाली रानी को सौन्दर्य शास्त्र व नायिकाभेद में सर्वश्रेष्ठ स्त्री का दर्ज़ा प्राप्त पद्मिनी नामधारी नायिका का नाम प्रदान कर दिया हो।

लेकिन मध्य काल में स्त्री सौंदर्य स्तुति के बहाने खूबसूरत स्त्री को पुरुषों के लिए अनिवार्य बना दिया। लेकिन कथिततौर पर सुंदर ही क्यों? सुंदरता के मापदंड अलग-अलग होते हैं। एक काल्पनिक सुंदरता के पीछे पूरे समाज का क्या भागना!

-शंभूनाथ शुक्ल

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