Why do public interest matters not become electoral issues?: लोकहित के मामले चुनावी मुद्दे क्यों नहीं बनते?

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बिहार विधानसभा 2020 के चुनाव प्रचार में एक दिलचस्प परिवर्तन दिख रहा है। यह परिवर्तन एन्टी इनकम्बेंसी का नहीं, जाति और धर्म के ध्रुवीकरण का नही, किसी के प्रति सहानुभूति की लहर का नही, डीएनए टाइप भाषणों के विरोध का नहीं और न ही किसी व्यक्ति की अंधभक्ति में लीन होकर अवतारवाद का है, बल्कि बरसो से रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे लोकहित के मामले जो अक्सर चुनावी नक्कारखाने में तूती की तरह उपेक्षित और अनसुने रह जाते थे,  वह अब, अपनी पहचान और स्वर के साथ न केवल पहचाने जा रहे है, बल्कि उस तूती की आवाज, नक्कारखाने के बेमतलब और प्रायोजित शोर पर भारी भी पड़ रही है।
इस चुनाव में न तो मंदिर मुद्दा है, न आरक्षण का पक्ष विपक्ष, न पैकेजों का प्रसाद, बल्कि मुद्दा है सबको रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य। मुद्दों के इस परिवर्तन का स्वागत किया जाना चाहिए। ऐसे मुद्दे न किसी भी राजनीतिक दल को अमूमन रास नहीं आते हैं, बल्कि यह उन्हें असहज कर देते हैं और कभी कभी तो उनकी बोलती बंद कर देते हैं। बिहार के चुनाव में व्यापक लोकहित के ये मुद्दे अगर इसके बाद के आने वाले राज्यों और देश के चुनाव में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाये रखते हैं तो यह संसदीय और चुनावी लोकतंत्र के लिये एक शुभ संकेत होगा। इन चुनावों में सभी दल अपने अपने वादों और रणीति के अनुसार जनता के समक्ष साष्टांग है। यही वह समय होता है जब जनता, जनार्दन की भूमिका में होती है और उसकी आवाज, यानी आवाज ए खल्क ईश्वर की आवाज समझी जाती है। पर यह चांदनी महज कुछ दिनों की होती है फिर तो जनता अपनी जगह, नेता अपनी जगह और सरकार अपने ठीहे में, और उन वादों की, जो चुनाव के दौरान राजनीतिक लोगों ने जनता से किए होते हैं, कोई चर्चा भी नहीं करता है। चुनाव के दौरान भी नये वादे किये तो जाते हैं, पर पुराने वादों पर कोई दल मुंह नहीं खोलता है, और जनता भी कम ही उनके बारे में सवाल उठाती है।
जैसे जैसे मतदान की तिथि नजदीक आने लगती है, नये नये वादे और तेजी से उभरते हैं, जैसे संगीत में पहले विलंबित फिर द्रुत उभरता है। अंत में यह सारा शोर मतदान के दिन ही जब वोट मशीनें सुरक्षा घेरे में मतगणना स्थल की ओर ले जाई जाती रहती हैं तो थम जाता है और फिर गांव में फिर वही मायूसी और सुस्ती लौट आती है जो वहां का स्थायी भाव बन चुका होता है। चुनाव दर चुनाव होते रहते हैं। पर गांव की समस्याएं और तस्वीर बहुत कुछ नहीं बदलती है। न तो वादे बदलते हैं, न ही समस्याएं, न वादे करने वालों के इरादे, न ही गांव की सड़कें, स्कूल, अस्पताल, और बेरोजगार युवाओं की अड्डेबाजी, बहुत कुछ अपरिवर्तित जैसा दिखता है, बस चुनाव में नेताओ की गाड़ियों के मॉडल जरूर बदल जाते हैं।
कुछ उम्मीदें जनता की बढ़ जाती हैं, और उसे कुछ नए और मोहक आश्वासन भी मिल जाते हैं। भारत मे संसदीय लोकतंत्र के चुनाव के  इतिहास में, सन 1952 से 1967 तक देश मे एक ही दल, कांग्रेस का वर्चस्व रहा लेकिन 1967 में कांग्रेस को सभी राजनीतिक दलों की चुनौती एक साथ डॉ लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत के अनुसार मिली। लेकिन फिर भी केंद्रीय सत्ता से कांग्रेस की विदाई नहीं हो सकी और 1971 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस एक नए कलेवर में बहुत बड़े बहुमत के साथ सत्ता में आयी। 1977 का चुनाव, किसी दल को सत्ता में लाने के बजाय इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर करने के मुद्दे पर आपातकाल के खिलाफ एक जनादेश था। वैचारिक रूप से अलग थलग पर एक ही झंडे और चुनाव चिह्न से जुड़ी जनता पार्टी 1977 में सत्ता में तो आई, पर वैचारिक अंतर्विरोधों के कारण अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी और 1980 में जनता ने इंदिरा गांधी को पुन: सत्ता सौंप दी।
इस चुनाव में मुद्दा जनता दल की नाकामी और आंतरिक कलह बना। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुये, मध्यावधि चुनाव में कांग्रेस को ‘न भूतो’ बहुमत मिला। यह राजीव गांधी के पक्ष में कोई जनादेश नही था बल्कि इंदिरा गांधी को दी गयी, एक जन श्रद्धांजलि थी। अपार बहुमत की राजीव सरकार, बोफोर्स घोटाले के मुद्दे पर ढह गयी और 1989 में वीपी सिंह, दो वैचारिक ध्रुवों पर स्थित, भाजपा और वाम मोर्चे की बैसाखी पर सवार होकर प्रधानमंत्री बने पर दो साल के अंदर ही उन्हें पद छोड़ना पड़ा।
1991 में कांग्रेस सबसे बडी पार्टी बन कर उभरी। उसी साल चुनाव के दौरान ही राजीव गांधी की हत्या हो जाती है और पीवी नरसिम्हा राव को नया प्रधानमंत्री चुना जाता है। 1996 तक यह सरकार रहती है। यह सरकार नयी आर्थिक नीति के लिये याद की जाती है। लेकिन 1996 के बाद अस्थिरता का एक  दौर आता है, जो 1999 तक चलता है जब अटल जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए सत्ता में आती है। यह दौर एकल दल के वर्चस्व की समाप्ति का दौर होता है जो 2014 तक चलता है।  2004 में एनडीए सत्ता से बाहर हो जाती है और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यूपीए सत्ता में आती है जो दस साल सरकार में रहती है। फिर 2014 में पहली बार भाजपा अपने दम पर सत्ता में पूर्ण बहुमत से आती है, जो एक बड़ी उपलब्धि है।
यह अलग बात है कि, भाजपा ने अपने मंत्रिमंडल में एनडीए के अन्य सहयोगियों को भी सरकार में शामिल किया। 2014 के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को और भी बेहतर बहुमत मिला और नरेन्द्र मोदी पीएम के अपने दूसरे कार्यकाल में हैं। संसदीय लोकतंत्र में सरकार जनता के द्वारा चुनी जाती है और जनता जिन मुद्दों पर वोट देती है वह मुद्दे चुनाव घोषणापत्र में शामिल होते हैं। पर चुनावी राजनीति का सबसे दु:खद पहलू यह है कि, सभी राजनीतिक दल उन मुद्दों पर बात करने से कतराते हैं, जो उन्होंने अपने घोषणापत्र में दे रखे हैं। वे उन वादों की स्टेटस रिपोर्ट भी जनता के सामने नहीं रखना चाहते जो सरकार ने अपने कार्यकाल में पूरे किये हैं। चुनाव उन मुद्दों पर भटका दिया जाता है जो न जनता की मूल समस्या से जुड़े होते हैं और न ही विकास से, बल्कि चुनाव को जानबूझकर धर्म और जाति के मुद्दों की ओर ठेल दिया जाता है, जिससे वे असल मुद्दे नेपथ्य में चले जाते हैं। और जब जवाबदेही वाले मुद्दे सामने नहीं होंगे तो धार्मिक और जातिगत मुद्दों पर तो केवल वाचालता और मिथ्यवाचन ही हावी रहेगा, जिसका परिणाम गैर जिम्मेदारी औ?
हवाई मुद्दों के आधार पर चुनी गयी सरकार के रूप में होता है, और ऐसी सरकार, पूरे कार्यकाल में केवल  धर्म और जाति के दलदल में ही फंसी रहना चाहेगी क्योंकि वह इस मानसिकता में आ जाती है और जनता को यही मुद्दे अधिक प्रभावित करते हैं। धीरे धीरे यह मानसिकता मतदाताओं की बन भी जाती है कि लोकहित के कार्य धर्म और जाति के मुद्दों के आगे महत्वहीन होते हैं। 1977 के बाद साल 2014 का चुनाव भी एक जनांदोलन और तत्कालीन सरकार की विफलता से उत्पन्न व्यापक आक्रोश के आधार पर लड़ा गया था। अंतर बस यह था कि 1977 में मुख्य मुद्दा इंदिरा सरकार द्वारा थोपा गया आपातकाल था, जबकि 2014 में मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार था।
अन्ना आंदोलन लोकप्रिय जरूर हुआ था पर न तो वह जेपी आंदोलन की  तरह व्यापक था और न मनमोहन सरकार द्वारा आपातकाल जैसी ज्यादती ही हुयी थी। लेकिन 2014 के चुनाव में कांग्रेस को बुरी तरह से पराजित होना पड़ा और उसकी स्थिति यह हो गयी कि मान्यता प्राप्त विपक्षी दल का दर्जा भी उसे न तो 2014 में मिला और न ही 2019 में। अब बात करते हैं 2014 के मुख्य मुद्दे की, जो भ्रष्टाचार से जुड़ा था।
(लेखक यूपी कैडर के पूर्व वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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