Who was not the attacker here! कौन यहाँ हमलावर नहीं था!

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दिल्ली अभी भी सुलग रही है, भले ऊपरी तौर पर शांति हो लेकिन अभी भी दिल मिले नहीं हैं। हिंदू मुसलमानों पर मुसलमान हिंदुओं पर दंगा भड़काने का आरोप लगा रहे हैं। दोनों ही पक्षों का भारी जान-माल का नुक़सान हुआ है। पेट्रोल पम्प फूंके गए, गाड़ियाँ फूंकी गईं, लेकिन पुलिस मूकदर्शक बनी रही। यहाँ तक, कि एक पुलिस का जवान- हेड कांस्टेबल रतन लाल की जान गई और आईबी के एक जवान अमित शर्मा की भी। इसके बाद केंद्र सरकार की नींद खुली और आनन-फानन में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को वहां भेजा गया। इसके बाद ज़िम्मेदारी दिल्ली सरकार पर डाल कर पुलिस आयुक्त को बदल दिया गया। यह एक फौरी इलाज़ है, लेकिन इसके पीछे के हालात पर गौर नहीं किया गया, कि क्यों और कैसे आखिर यह आग फैली!

दिल्ली का यह उत्तर-पूर्वी इलाका काफी संवेदनशील है। एक तो इलाका घनी बस्ती वाला है, दूसरे यहाँ वह तबका रहता है, जो दूर-दराज के इलाकों से आकर बसा है अथवा उखड़ गया है। सीलमपुर, ज़ाफ़राबाद, चौहान बांगड़ और चाँद बाग़ में मुस्लिम अधिक हैं, तो मौजपुरी, ब्रह्मपुरी, घोंडा और भजनपुरा में मिक्स आबादी है। यमुना विहार डीडीए की एक कालोनी है और यहाँ पर ज्यादातर आबादी उन हिंदू व्यापारियों की है, जो व्यापार चाँदनी चौक में करते हैं, लेकिन वहां पर आबादी का दबाव देखते हुए यहाँ आकर बस गए हैं। इसके अलावा करावल नगर में स्थानीय गुज्जर हैं। गोकुल पूरी और नन्द नगरी में दलितों की संख्या खूब है। यहाँ बिहार, ईस्टर्न यूपी के लोगों को खूब बसाया गया। इसीलिए यहाँ से पुरबिया छवि वाला व्यक्ति ही चुनाव जीतता रहा है। भाजपा का परचम यहाँ 1989 से लहराया, जब इसे पूर्वी दिल्ली कहते थे। इसके बाद 2008 के परसीमन के बाद जमना पार का यह इलाका उत्तर पूर्वी दिल्ली में आया। बीच के कुछ दौर छोड़ दें तो सीट पर भाजपा ही रही। इस समय मनोज तिवारी यहाँ से लोक सभा सदस्य हैं।

चूँकि इस इलाके में पुराना भाईचारा नहीं है, इसलिए ग़ुरबत के समय तो सभी धार्मिक समुदाय और जातियाँ एकजुट रहती हैं, लेकिन जैसे ही राजनीति शुरू मारकाट चालू। यह वही इलाका है, जहां 1984 में चुन-चुन कर सिखों का कत्लेआम किया गया था। तब यहाँ नारा लगा था, “हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई, सिख कौम कहाँ से आई!” उस समय इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता ने एक रिपोर्ट छापी थी, कि  कैसे सिखों की संपन्नता से दुखी लोगों ने उनका क़त्ल किया। सिख यहाँ से एकदम साफ़ हो गए। यूँ भी सिख एक शांतिप्रिय कौम है। जो बचे वे यहाँ से चले गए। यहाँ नौकरी-पेशा मध्य वर्ग की आबादी कम है, ज्यादातर युवा बेरोजगार हैं। इसलिए हर एक के अन्दर एक आक्रामकता है। वे अपने दुखों, कष्टों और रोज़गार न होने की वज़ह एक दूसरे को समझते हैं। चाँदबाग़ के लोगों ने शाहीनबाग़ की देखादेखी यहाँ पर टेंट गाड़ कर धरना-प्रदर्शन शुरू किया हुआ था, इस वज़ह से वे लोग भी परेशान थे जिनका रोज का इस व्यस्त सड़क से निकलना होता है। उन लोगों को लगता था, कि मुस्लिम औरतों के धरने के कारण वो समय पर काम के लिए नहीं पहुँचते। उधर धरने वालों को लगता था, कि सामने के हिंदू उनके धरने का माखौल उड़ा रहे हैं।

इसके बाद जैसे ही दिल्ली विधानसभा चुनाव ख़त्म हुए, परस्पर का विक्षोभ फूट पड़ा। ऊपर से दोनों समुदायों के अतिवादी नेताओं के बयान और सरकार की ढुलमुल नीतियों का फायदा शरारती तत्त्वों ने उठाया और देखते ही देखते तमाम लोगों की जानें गईं।

यूँ ऐसा पहली बार हुआ, कि किसी सांप्रदायिक दंगे के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने प्रभावित इलाकों का दौरा किया। 26 फरवरी को अजित डोभाल ने सीलम पुर, मौज पुर आदि इलाकों का दौरा किया। इसके पहले उन्होंने मंगलवार की शाम उत्तर पूर्वी दिल्ली के डीसीपी के साथ मीटिंग भी की। अजित डोभाल के वहाँ जाने से एक बात तो साफ है, कि केंद्र की राजनीति में सारी बातें सामान्य नहीं हैं। खुद भाजपा के कई नेता, इस दंगे को न भाँप पाने और न काबू कर पाने में गृह मंत्री अमित शाह को अक्षम समझ रहे हैं। इसी दिन कांग्रेस की आला नेता, सोनिया गांधी ने प्रेस कान्फ्रेंस कर गृह मंत्री से इस्तीफा मांगा। राजनीति के सूत्रों की मानें तो लगता है, कि सत्ता के शीर्ष पर स्थितियाँ अब गृह मंत्री के फ़ेवर में नहीं हैं।

मज़े की बात कि मंगलवार की शाम अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के सम्मान में राष्ट्रपति भवन में भोज था, उसमें गृह मंत्री नहीं शरीक हुए। अब प्रधानमंत्री को कहीं न कहीं कसक है, कि जब अमेरिका के राष्ट्रपति भारत दौरे पर हों, ऐसे मौके पर हुए दंगे से भारत कि छवि को ठेस पहुंची है। और दंगे पर फौरन काबू न पा पाने में गृह मंत्री की टीम नाकाम रही। यह संकेत है, कि भविष्य में राजनीतिक उठापटक तेज होगी।

कुछ भी अनायास नहीं होता! जो कुछ होता है, उसके पीछे सुनियोजित और सुविचारित कारण होते हैं। दिल्ली में भी पिछले एक हफ्ते में जो कुछ हुआ, वह सब किसी एक के भाषण या किसी एक चिंगारी की वजह से नहीं, बल्कि इसके पीछे कहीं न कहीं सत्ताधारी नेताओं के बीच के द्वंद भी हैं। सच तो यह है, कि मोदी-2 राज में सब कुछ सहज नहीं है। भले ही नरेंद्र मोदी अपार बहुमत से जीते हों, लेकिन उन्होंने अपनी पार्टी के भीतर और बाहर शत्रु भी खूब बनाए हैं। आप देख ही रहे होंगे कि अपने पिछले ही कार्यकाल से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह ही प्रयास रहा है, कि पूरी सरकार और पूरी पार्टी उनके ही इर्द-गिर्द घूमे। इसके लिए उन्होंने सत्ता का केन्द्रीकरण कर दिया।

लेकिन तब पार्टी के अंदर उनके कद से कहीं अधिक बड़े पार्टी के अन्य नेता भी पावरफुल थे। अरुण जेटली और सुषमा स्वराज तो थे ही, गोपीनाथ मुंडे भी थे। खुद पार्टी के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी भी सक्रिय थे। लेकिन प्रधानमंत्री ने आडवाणी और जोशी को तो मार्गदर्शक मंडल में डाल कर किनारे कर दिया। मुंडे की सड़क दुर्घटना में अकाल मृत्यु हो गई। सुषमा स्वराज और अरुण जेटली की लंबी बीमारी से। ज़ाहिर है, मोदी-2 में नरेंद्र मोदी अकेले शिखर पुरुष बन कर उभरे। लेकिन इसी के साथ ही जो हालात बने, उससे यह भी लग्ने लगा, कि अब नरेंद्र मोदी के समक्ष वे नेता भी अपनी महत्त्वाकांक्षाएँ ज़ाहिर करने लगे हैं, जो उन्हें स्थापित करने में जी-जान से जुटे थे।

आज के गृहमंत्री अमित शाह ने मोदी जी के पिछले कार्यकाल के समय उन्हें स्थापित करने में महती भूमिका निभाई थी। इसीलिए उन्हें प्रधानमंत्री ने अपने दूसरे कार्यकाल में देश का गृह मंत्री बनाया। लेकिन सीएबी को संसद में पास कराने में गृह मंत्री ने जैसी हबड़-तबड़ मचाई, उससे प्रधानमंत्री कहीं न कहीं आहत भी हुए। हालांकि गृह मंत्री अमित शाह ने जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने और इस राज्य को केंद्रीय शासन के अधीन लाने में भी जल्दबाज़ी दिखाई थी। किन्तु वह तो आरएसएस का पुराना एजेंडा था, इसलिए वे चुप रहे। मगर सीएबी को कानून बनाने के लिए उन्होंने कुछ ज्यादा ही हड़बड़ी दिखा दी। इसके बाद प्रधानमंत्री लगातार कहते रहे, कि एनआरसी नहीं लागू होगा, पर गृह मंत्री उसे पूरे देश में लागू कराने पर ज़ोर देते रहे।

ये कुछ ऐसी बातें हैं, जिनसे शक-शुबहा तो होता ही है।

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