Which way are we going? हम किस राह पर जा रहे हैं?

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सनातन धर्म वसुधैव कुटुम्बकम् पर आधारित है। महोपनिषद् के चौथे अध्याय में ‘‘अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।’’ इसका अभिप्राय है कि यह अपना भाई है और वह अपना नहीं है, इस तरह का गणित छोटी मानसिकता के लोग लगाते हैं। उदार और बड़े हृदय के लोग संपूर्ण धरती में ही अपना परिवार देखते हैं। भारत की संसद में प्रवेश करते आपको इस श्लोक के जरिए हमारे लोकतंत्र का चेहरा दिखेगा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध किया गया है। सनातन धर्म के मूल में भी यह बताया गया है कि जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता बल्कि कोई भी अपने संस्कारों द्वारा वर्ण का निर्माण करता है। यही नहीं हमारे लोग बड़े गर्व से कहते हैं कि हम विश्व के प्राचीनतम धर्म से हैं। अब तक प्राप्त समस्त ग्रंथों में सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद है, जो संस्कृत में लिखा गया है। इससे यह भी समझा जा सकता है कि संस्कृत सभ्य समाज की प्रथम भाषा रही होगी। संस्कृत के मामले में सबसे अच्छा यह है कि हमारे देश और आसपास के देशों की भाषाओं की लिपि में अंतर के बावजूद उसमें संस्कृत का पुट मिलता है, जो उसे बड़ा बना देता है।
हिंदू महासभा के संस्थापक एवं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे पंडित मदन मोहन मालवीय ने 1916 की बसंत पंचमी को काशी हिंदू विश्वविद्यालय स्थापित करते अपने संदेश में कहा था ‘भारत केवल हिन्दुओं का देश नहीं है बल्कि यह मुस्लिम, ईसाई और पारसियों का भी देश है। देश तभी विकास और शक्ति प्राप्त कर सकता है, जब विभिन्न समुदाय के लोग परस्पर प्रेम और भाईचारे के साथ जीवन व्यतीत करेंगे। यह मेरी इच्छा और प्रार्थना है कि प्रकाश और जीवन का यह केन्द्र जो अस्तित्व में आ रहा है, वह ऐसे छात्र प्रदान करेगा जो अपने बौद्धिक रूप से संसार के दूसरे श्रेष्ठ छात्रों के बराबर होंगे और एक श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करेंगे। अपने देश से प्यार करेंगे और परमपिता के प्रति ईमानदार रहेंगे।’ अंग्रेजी हुकूमत में काशी हिंदू विश्विद्यालय, वाराणसी ‘बनारस हिंदू विश्वविद्यालय एक्ट, 1915’ के जरिए बना था। बीएचयू के संस्थापक मालवीय जी ने इसकी नीव एनी बेसेंट के सेंट्रल हिंदू कालेज के जरिए रखी थी। इसके लिए दरभंगा के तत्कालीन राजा रामेश्वर सिंह ने संसाधन दिये तो काशी नरेश ने भूमि। हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान अली खान ने सबसे बड़ी नकद धनराशि 10 लाख रुपए दिये थे। बिड़ला जैसे उद्योगपतियों ने जब भी जरूरत हुई भरपूर सहयोग दिया। सभी धर्मावलंबियों के सहयोग से बीएचयू बना था। यही कारण है कि बनारसी इसे मालवीय जी की बगिया कहकर संबोधित करते हैं, क्योंकि इसमें सभी धर्म, लिंग और क्षेत्र के लोग ही आधार पुष्प हैं।
हम यह चर्चा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि बीएचयू में इस वक्त एक कट्टर विचारधारा के कुछ लोग पिछले 15 दिनों से संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के सहायक प्रोफेसर फिरोज खान का विरोध कर रहे हैं। विरोध इस बात पर है कि संस्कृत विद्या धर्म विषय एक गैर हिंदू कैसे पढ़ा सकता है क्योंकि गैर हिंदू ने उसे जिया नहीं है। कट्टरपंथियों ने कुलपति प्रो. राकेश भटनागर की कार पर पानी की बोतल भी फेंकी। हालांकि जयपुर निवासी फिरोजखान के पिता रमजान खान भी संस्कृत के विद्वान हैं। हिंदू देवताओं के भजन गाते हैं। उनके अन्य बेटे भी संस्कृत में परास्नातक हैं। वह इस विरोध पर दुखी मन से कहते हैं कि सोचता हूं बेटे को संस्कृत पढ़ाने के बजाय मुर्गे की दुकान खुलवा देता तो शायद ऐसी तुक्ष्य सोच रखने वालों को आपत्ति न होती। विरोधियों के समर्थन में अपना चेहरा चमकाने एक भगवाधारी मठाधीश अविमुक्तेश्वरानंद पहुंचे और उन्होंने भावनाओं को भड़काने वाली बात की। यह वही मठाधीश हैं जो श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर कॉरीडोर बनने का विरोध कर रहे थे। बीएचयू में चल रही इस सियासत के बीच अब सहायक प्रोफेसर फिरोज खान के समर्थन में सैकड़ों छात्र सड़क पर उतर पड़े हैं। उनका मानना है कि कुछ एक विचारधारा के लोग मालवीय जी की बगिया का माहौल गंदा कर रहे हैं। महामना की बगिया बीएचयू में हर धर्म और जाति के लोगों का समान अधिकार है। धर्म के आधार पर नियुक्ति का विरोध अनुचित है। मालवीय जी के पोते गिरधर मालवीय भी इस राजनीति से दुखी हैं, वह कहते हैं कि प्रोफेसर फिरोज की नियुक्ति पर विरोध नहीं होना चाहिए क्योंकि महामना सर्वधर्म समभाव के समर्थक थे। इस बीच वाराणसी कांग्रेस का एक प्रतिनिधिमंडल कुलपति से मिला और मांग की कि बीएचयू में सांप्रदायिकता का जहर न बोने दें। बताते चलें कि बीएचयू में ही उर्दू विभाग में ऋषि शर्मा सहायक प्रोफेसर हैं। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग के एचओडी मुस्लिम हैं तो इलाहाबाद में अरबी के प्रोफेसर हिंदू हैं।
दूसरी बड़ी घटना देश के अव्वल विश्वविद्यालय जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली) की है। यहां अचानक हॉस्टल की फीस और तमाम चार्ज करीब 300 फीसदी बढ़ा दिये गये। छात्रों ने जब इसका शांतिपूर्ण विरोध किया तो केंद्र सरकार ने पुलिस और अर्ध सैनिक बलों से उन पर लाठियां बरसाईं। इसमें एक नेत्रहीन छात्र को ऐसे पीटा गया कि वह कोई आतंकी हो। विश्व में देश का नाम रौशन करने वाले इस शोधपरक विश्वविद्यालय में भारी भरकम फीस वृद्धि सिर्फ इसलिए की गई क्योंकि यहां के बुद्धिजीवी छात्र-छात्रायें सरकार की नीतियों की निष्पक्ष कटु समीक्षा करते और उन पर चचार्यें कराते रहे हैं। बताते चलें कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ पूरी मुहीम यहीं से चली थी मगर उन्होंने विश्वविद्यालय को तुक्ष्य राजनीति का हिस्सा नहीं बनाया था। नतीजतन यहां स्वतंत्र चर्चायें होती रहीं। जेएनयू से निकले विद्यार्थियों ने देश दुनिया में भारत का प्रतिनिधित्व कर गौरव बढ़ाया। इस वक्त एक विचारधारा का समूह विश्वविद्यालय के अस्तित्व को खतरे में डालना चाहता है। ऐसे लोग कभी इसे राष्ट्रविरोधियों का अड्डा बताते हैं तो कभी विद्यार्थियों के चल चरित्र पर ऊंगली उठाते हैं। इन साजिशों के बावजूद जब वह कुछ हासिल न कर सके तो फीस के रूप में हमला किया जा रहा है। वैश्विक रूप से आंकलन करें तो आज भी भारत के राजकीय विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में फीस बहुत अधिक और सुविधाएं बेहद कम हैं। जो लोग जेएनयू पर सवाल खड़ा करते हैं, वह स्वयं इस विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा को भी पास नहीं कर सकते। ऐसे लोग यहां के छात्रों को मुफ्तखोर और अंकल-आंटी कहकर हमला करते हैं। यह वही लोग हैं जिन्होंने खुद राजकीय मेडिकल, इंजीनियरिंग कॉलेज और स्कूलों में यहां से भी कम फीस में पढ़ाई की है।
हालात देखकर सवाल उठता है कि क्या राष्ट्रभक्त सिर्फ वंदे मातरम या भारत माता की जय बोलने से ही होता है? देश की सामरिक और राजनीतिक कमियों पर चर्चा करने से कोई राष्ट्रद्रोही हो जाता है? देश को कथित राष्ट्रवादी नहीं बल्कि सच्चा राष्ट्रप्रेमी चाहिए, जो उसके लिए काम करे, न कि दावे। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने डिस्कवरी आफ इंडिया में भारत माता कौन हैं, का विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है कि जब मैं किसी जलसे में पहुंचता, तो मेरा स्वागत ‘भारत माता की जय’ नारे के साथ किया जाता। मैं लोगों से पूछ बैठता कि इस नारे का क्या मतलब है? यह भारत माता कौन हैं, जिसकी वे जय चाहते हैं। मेरे सवाल से उन्हें कौतूहल होता। कुछ जवाब न सूझने पर एक दूसरे की तरफ या मेरी तरफ देखने लगते। आखिर एक जाट किसान ने जवाब दिया कि भारत माता से मतलब धरती से है। कौन सी धरती? उनके गांव की, जिले की या सूबे की या सारे हिंदुस्तान की? इस तरह सवाल जवाब पर वे उकताकर कहते कि मैं ही बताऊं। मैं इसकी कोशिश करता कि हिंदुस्तान वह सबकुछ है, जिसे उन्होंने समझ रखा है, लेकिन वह इससे भी बहुत ज्यादा है। हिंदुस्तान के नदी, पहाड़, जंगल और खेत, जो हमें अन्न देते हैं। वे सभी जो हमें अजीज हैं। हिंदुस्तान के लोग, उनके और मेरे जैसे, जो सारे देश में फैले हुए हैं। भारत माता दरअसल यही करोड़ों लोग हैं और भारत माता की जय से मतलब हुआ इन सब लोगों की जय। मैं उनसे कहता कि तुम भारत माता के अंश हो, एक तरह से तुम ही भारत माता हो।”
यही सच है। भारत माता कोई जमीन का टुकड़ा मात्र नहीं है। हम सब भारत माता हैं। सच्चा राष्ट्रवादी और राष्ट्रहित की राह वही है कि हम इन सभी के हित में सोचें और करें। हम किसी के विचारों को कुचलें नहीं बल्कि उसके विचारों को सुनकर उसमें आगे की बात जोड़ें या सुधार करें। यही तो हमारे धर्म और संस्कृति ने हमें सिखाया था मगर हम तो संकीर्ण विचारधारा में बह रहे हैं। हमारी संस्कृति जोड़ने की है, न कि तोड़ने की। विरोधी विचारधारा के लोगों को भी साथ लेकर चलना ही हमारा धर्म है, न कि उन्हें कुचने के लिए मनगढ़ंत कुचक्र रचना। तुक्ष्य बनकर राह से भटकने के बजाय बड़े हृदय के बनिये, जो हमें सनातन धर्म ने सिखाया है।

जयहिंद

(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)

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