What kind of India do we want! कैसा भारत चाहते हैं हम!

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भारत में सब कुछ ठीक-ठाक है, गुलाबी-गुलाबी है, बढिय़ा दिखता है, लेकिन सिर्फ तब अगर हम शीर्षासन करें, उलटे होकर देखें, वरना तो यही समझना मुश्किल है कि ठीक करना कहां से शुरू करें। स्वास्थ्य, परिवहन, रोजगार, गवर्नेंस, कहीं भी ऐसा कुछ नहीं है जिस पर हम गर्व कर सकें। भ्रष्ट नेता, असंवेदनशील नौकरशाही, अक्षम कार्यकारी, नकारा संसद, महंगा न्याय, कायर बुद्धिजीवी, पूर्वाग्रहगस्त मीडिया और भक्तों या चमचों में बंटे अधिकांश नागरिक। यह सूची अंतहीन है।
कहना मुश्किल है कि हम भारतीय अपने नेताओं से और खुद से क्या चाहते हैं? हम अपने देश को भविष्य में कैसा बनते देखना चाहते हैं? नेतागण सिर्फ तभी सुनते हैं जब उन्हें लगे कि फरियादी किसी वोट बैंक का हिस्सा है। शासन-प्रशासन में जनता की कोई भागीदारी नहीं है। परिणाम यह है कि चुनाव के समय तक मतदाता इतना खीझा हुआ होता है कि वह तत्कालीन सरकार के भ्रष्टाचार और निकम्मेपन के खिलाफ वोट देता है। मतदान के समय एंटी-इन्कंबेंसी का यही कारण है। हम अपनी मर्ज़ी से अपने जनप्रतिनिधि चुनते हैं लेकिन दलबदल कानून और पार्टी ह्विप से बंधे जनप्रतिनिधि अपनी मर्ज़ी से वोट नहीं दे सकते, कानून बनवा नहीं सकते, रुकवा नहीं सकते, बदल नहीं सकते। नौकरशाही इतनी ताकतवर है कि मंत्रियों तक को उनकी चिरौरी करनी पड़ती है। छोटे-बड़े हर काम के लिए लोग सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटते रह जाते हैं।
जान-पहचान न हो तो सरकारी कर्मचारियों को भी अपना काम करवाने के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। कहा जाता है कि भगवान की मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, लेकिन भारतवर्ष का सच यह है कि यहां रिश्वत दिये बिना पत्ता भी नहीं हिलता। पुलिस हमारी रक्षक नहीं है। एक आम आदमी पुलिस से सिर्फ डरता है। हम भरसक कोशिश करते हैं कि पुलिस, पटवारी और अदालतों से बचे रहें। उद्यमी चाहते हैं कि टैक्स के कानून सरल हों, इंस्पेक्टर राज न हो, विभिन्न विभागों की अनुचित दखलअंदाजी न हो, व्यवसाय आरंभ करना आसान हो।
सरकार की सारी घोषणाओं और तिकड़मबाजी के बावजूद असलियत यह है कि यहां व्यवसाय आरंभ करना और चलाना दोनों ही बड़े जीवट का काम है। हम गर्व से कहते हैं कि भारत एक युवा देश है जहां युवाओं की संख्या सबसे ज्य़ादा है। लेकिन क्या हम इसे समग्रता में देख पा रहे हैं? जब हम युवा वर्ग की बात करते हैं तो युवा वर्ग के साथ उसके सपने खुद-ब-खुद जुड़ जाते हैं। युवा वर्ग के साथ आज सबसे बड़ी समस्या रोजगार है। हमारी किसी भी सरकार ने इस समस्या को हल करने या इसे समझने की आवश्यकता नहीं समझी। रोजगार सृजन के इतने उथले उपाय किये गए कि उनकी कलई खुलते देर नहीं लगी। मनरेगा जैसे उपाय रोजगार के साधन नहीं, खैरात हैं, जो इस समस्या का स्थाई समाधान कदापि नहीं हो सकते।
पढ़े-लिखे युवाओं में इतनी हताशा है कि चपरासी के पद के लिए एमए, एमकॉम और एमएससी ही नहीं, इंजीनियर तक भी लाइन में लग जाते हैं? आखिर इस हताशा का कारण क्या है? इस हताशा का एक कारण यह भी है कि पढ़े-लिखे युवा सिर्फ डिग्रीधारी हैं। उन्होंने परीक्षाएं पास करने का प्रमाणपत्र तो ले लिया लेकिन उनके पास वास्तविक ज्ञान शून्य है। वे रोजगार के काबिल नहीं हैं, एंप्लाएबल नहीं है। इतनी महंगी पढ़ाई के बावजूद इन बच्चों का रोजगार के काबिल न होना एक बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि उन्हें कक्षाओं में व्यावहारिक ज्ञान मिलता ही नहीं। कालेजों में पढ़ाया जाने वाला कोर्स दस-दस साल पुराना है, उनके कंप्यूटर, उनकी मशीनें पांच से दस साल पुरानी हैं। परिणाम यह होता है कि जब वे अपनी पढ़ाई समाप्त करके निकलते हैं तो पहले ही दस साल पुराने हो चुके होते हैं। दुनिया आगे निकल चुक होती है और वे अपनी बेकार हो चुकी कागजी पढ़ाई से चिपके रहते हैं।
हम अक्सर खुश होते हैं कि पेप्सिको, गूगल, माइक्रोसाफ्ट आदि के मुखिया भारतीय मूल के लोग हैं। हम इंद्रा नूई, सुंदर पिचाई और सत्या नडेला का उदाहरण देते फिरते हैं, लेकिन हम ये भूल जाते हैं कि ये लोग भारतीय मूल के लोग हैं, भारतीय नहीं हैं। उनकी उच्च शिक्षा भारत में नहीं हुई। वे भारत से बाहर किसी विश्वविख्यात युनिवर्सिटी में भी पढ़े और उन्होंने इन विकसित देशों के लोगों के काम करने के तरीकों को समझा और अपनाया, तभी वे इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुखिया बनने के काबिल बने। हमारे देश में तो बहुत छोटी कक्षाओं से ही यह सिलसिला आरंभ हो जाता है कि बच्चे के प्रोजेक्ट उनके मां-बाप, भाई-बहन पूरे करते हैं, साइंस की प्रेक्टिकल की कापियां कोई और बनाता है, पुराने शोधपत्र उठाकर कई बार तो सिर्फ नाम बदल कर जमा करा दिये जाते हैं।
ऐसे बच्चे जिन्हें व्यावहारिक ज्ञान है ही नहीं, जीवन में नया क्या कर पायेंगे? वे इंजीनियरिंग करके भी चपरासी और क्लर्क बनने के ही काबिल हैं। आने वाले दस सालों में यह समस्या और भी बढ़ेगी। बच्चे पैदा होंगे, युवा होंगे और बेरोजगार रह जाएंगे। इस समस्या की ओर हमारा ध्यान जाता ही नहीं। हम इस विकराल समस्या की ओर से आंखें मूंदे बैठे हैं। हम एक विचित्र युग में जी रहे हैं। गांवों और कस्बों से पढ़कर निकले नब्बे प्रतिशत बच्चे, जीहां 90 प्रतिशत बच्चे न हिंदी ठीक से जानते हैं न अंग्रेजी जानते हैं, वे न कोई अर्ज़ी लिख सकते हैं, न कोई प्रोफार्मा भर सकते हैं न बैंक या पोस्टआफिस की किसी प्रोसेस को बिना किसी सहायता के खुद पूरा कर सकते हैं। बहुत से बच्चों ने तो ग्रेजुएट होने तक भी कभी किसी बैंक या पोस्टआफिस में कदम तक नहीं रखा होता। आज हमें सोचना होगा कि हम कैसा भारत चाहते हैं? क्या हम चपरासियों-क्लर्कों का देश बनना चाहते हैं? क्या हम नशे और अपराध में डूबे बेरोजगार युवाओं का देश बनना चाहते हैं? क्या हम सिर्फ राजनीतिक तिकड़मबाजियों और जुमलों का देश बनना चाहते हैं? क्या हम विकास के नाम पर भीड़तंत्र होना चाहते हैं? क्या हम स्वार्थी राजनीतिक नेताओं का वोट बैंक बने रहना चाहते हैं? या क्या हम कल्पनाशील उद्यमियों का देश बनना चाहते हैं? आज आवश्यकता इस बात की है कि हमारे देश में प्रयोगधर्मी वातावरण बनने, बच्चों को प्रयोग करने और असफल होने की इजाजत हो, असफलता को दाग मानने के बजाए सफलता की सीढ़ी माना जाए।
(लेखक मोटिवेशनल एक्सपर्ट हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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