Utterkatha-Look at the faces of those playing Brahmin cards! ब्राह्म्ण कार्ड खेलने वालों के चेहरे तो देखिए!

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उत्तर प्रदेश में दुर्दांत विकास दुबे कांड के बाद खोई जमीन पाने की बेचैनी व सौदेबाजी की कवायद है यूपी में मायावती और जितिन  प्रसाद का ताजा सियासी पैंतरा।उत्तर प्रदेश के कानपुर में विकरु गांव में आठ पुलिसवालों की हत्या और दुर्दांत  हत्यारे विकास दुबे के साथियों सहित एनकाउंटर के बाद राजनैतिक दलों में ब्राह्म्ण प्रेम चर्रा गया है । गैर भाजपा दलों, खासतौर से कांग्रेस और बसपा को लगता है कि इस प्रकरण के बाद सूबे की योगी आदित्यनाथ सरकार से ब्राह्मण नाराज हैं और 2022 के विधानसभा चुनाव के पहले इस जाति के फैसलाकुन वोटों को अपने पाले में करने का यह मुफीद वक़्त है।
अव्वल तो ऐसा पूरी तरह है नही, और उससे ज्यादा सवाल उन लोगों पर है जो ब्राह्मणों का हित चिंतक बनने के लिए तेजी से  सियासी मैदान में कूद रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि विकास दुबे एक दुर्दांत अपराधी था जिसने जघन्यतम कृत्य किया जिसकी कठोरतम सजा उसको मिलनी चाहिए थी लेकिन इस पूरे मामले में पुलिस के रवैये से हुई कुछ गंभीर चूकों ने विपक्ष को मौका तो दे ही दिया है। विकास दुबे घनघोर अपराधी था, इसलिए सियासत करने वाले ज्यादा मुखर नही हुए लेकिन अब हालत यह है कि राजनीति करने वाले प्रयागराज में ब्राह्मण परिवारों में हुई कई हत्याओं के मामले उठाने लगे हैं। दरअसल ब्राह्म्णों हितों की रक्षा के नाम पर कांग्रेस की ओर से लगातार तीन चुनाव हार चुके जितिन प्रसाद ने मोर्चा संभाला है तो कभी ब्रह्म शंखनाद के दम पर सत्ता तक पहुंची मायावती ने भी जुबानी सहानुभूति जतानी शुरू की है। चुनाव दर चुनाव पस्त होती और करीब करीब हाशिये पर जा चुकी मायावती का ब्राह्म्ण प्रेम का ट्वीट देखते ही जितिन प्रसाद ने पूरे समुदाय की ओर उनका आभार जता दिया है। माया और जितिन की यह जुगलबंदी मैदान में शिकस्त खाए दो योद्धाओं की एक दूसरे का घाव चाटने जैसी सांत्वना ही दिखती है। जितिन का यह माया प्रेम तब और सवाल खड़ा करता है जबकि कांग्रेस नेत्री और यूपी की प्रभारी प्रियंका गांधी के खिलाफ भाजपा से ज्यादा मोर्चा बसपा सुप्रीमों ने खोल रखा है। उत्तर प्रदेश की राजनीति पर पैनी नजर रखने वालों का मानना है कि जितिन प्रसाद ब्राह्म्णों के नाम पर अपनी लुटी विरासत को फिर से सजाकर सौदेबाजी की जमीन ही तैयार करना चाहते हैं। उनके ब्राह्म्ण प्रेम को समाज में कम मीडिया  में ज्यादा स्थान मिला है। पहले सिंधिया और अब सचिन पायलट के उदाहरण इस धारणा को पुख्ता करते हैं। जितिन प्रसाद बीते लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा से पींगे बढ़ाकर अपने प्रति इस शक को जायज ठहराने की वजह भी दे चुके हैं। प्रियंका गांधी के यूपी कांग्रेस में बागडोर संभालने के बाद नयी सियासत शुरू हुयी है जिसमें ग्रैंड ओल्ड पार्टी अब सड़कों, जेलों में ज्यादा नजर आ रही है। संगठन में आंदोलनों से निकले लोगों का जमावड़ा है और हर रोज धरना प्रदर्शन जेल भरो जैसे कार्यक्रम चल रहे हैं। खुद प्रियंका गांधी ने सोनभद्र में जमीन विवाद पर आदिवासियों के नरसंहार में गिरफ्तारी देकर इसकी शुरूआत की थी। गुरुवार को सोनभद्र के उम्भा नरसंहार की पहली बरसी पर आयोजित बलिदान दिवस में हिस्सा लेने जा रहे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू को भदोही में भारी पुलिस बल के साथ रोक कर एक गेस्ट हाउस में बैठा दिया गया।
अजय कुमार लल्लू पिछले दो महीने के दौरान सरकार विरोधी मोर्चा खोलने के नाते जेल में ज्यादा रहे हैं और बाहर कम । मतलब, पिछले तीन दशक से उत्तर प्रदेश में लगातार सिकुड़ते हुए इतिहास की सबसे बुरी गत को पाने के बावजूद इधर एक साल से प्रदेश में कांग्रेस ने सड़क पर उतर कर अपनी छवि ऐसी तैयार की है जो वास्तव में मुख्य विपक्षी दल की होनी चाहिए। बदली हुई यूपी कांग्रेस दरअसल ठहराव की राजनीति करने वाले बड़े नेता पुत्रों को रास नही आ रही है। कोरोना काल में जब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जेल गए और नेता व कार्यकर्त्ता सड़कों पर राहत सामाग्री बांट रहे थे तब यही व जितिन प्रसाद अपने शाहजहांपुर के आलीशान फार्महाउस में ट्रैक्टर चलाते और पतंग उड़ाते देखे जा रहे थे।
उत्तर प्रदेश में मामूली पहचान रखने वाले और कम से ब्राह्म्णों के बीच कभी बतौर नेता न माने जाने वाले जितिन ने जिलों में ब्रह्म संवाद के नाम से राजनीति शुरू की है। हालांकि उनके इस संवाद के पीछे बैसाखी जिलों के कांग्रेस संगठनों की ही है न कि समाज के रसूखदार लोगों की। दरअसल दो लोकसभा चुनाव और पिछला विधानसभा चुनाव हार चुके जितिन प्रसाद की कुल जमा गिनती बड़े नेता के पुत्र के तौर पर ही होती रही है जिसने अपनी पारिवारिक प्रष्ठभूमि के दम पर पहला लोकसभा चुनाव जीतते ही केंद्रीय मंत्री का पद पा लिया था। खुद जितिन प्रसाद ने सत्ता में रहते कभी ब्राह्म्णों की राजनीति नहीं की न हीं उनके दुख दर्द में खड़े हुए। शायद यही कारण है उनकी कवायद को पीछे ब्राह्म्ण समुदाय नहीं बल्कि कांग्रेस के ही जिला शहर के पदाधिकारी नजर आ रहे हैं। राजनैतिक गलियारों में माना जा रहा है है कि चुनाव दर चुनाव जमीन खोते जा रहे जितिन प्रसाद ने अब खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए आखरी दांव के तौर पर जाति कार्ड खेला है। ब्राह्म्णों में अंसतोष को भुना जितिन अपने राजनैतिक  रसूख को कम से कम वहां तक ले जाना चाहते हैं जहां उनकी एंट्री सत्ताधारी खेमे में सम्मानजनक हो सके।
दूसरी ओर ब्राह्म्णों के साथ हो रहे अत्याचार पर फिर से घड़ियाली आंसू बहाने निकली मायावती को लेकर भी इस समुदाय  में रोष है। खुद ब्राह्म्ण नेताओं का मानना है कि उनके समर्थन व सहयोग से सत्ता की मलाई चख चुकी मायावती ने राजनैतिक भागीदारी के नाम पर बस एक परिवार के लोगों को आगे बढ़ाया था। 2007 में  ब्राह्म्णों के सहयोग से सत्ता हासिल कर चुकी मायावती को अब सब कुछ लुट जाने के बाद फिर से इस समुदाय की याद आयी है। दरअसल यूपी में भाजपा से हद से ज्यादा नजदीकी, ड्राइंगरुम में बैठ सियासत करने की आदत और कैडर की लगातार उपेक्षा के साथ ही गलत फैसलों ने मायावती को अप्रासंगिक बना दिया है। यूपी में उन्हें कबका पीछे ढकेल कर लगातार मुखर रह और सड़कों पर उतर प्रियंका गांधी ने मुख्य विपक्ष की भूमिका हथिया ली है। इन हालात में फिर से मायावती को ब्राह्म्ण देवता नजर आने लगे है।
वास्तव में जातिवाद भारतीय राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने वाले इस हिंदी हृदय प्रदेश के लिए एक कड़वी सच्चाई और बड़ी जरूरत बन गया है। 1989 के बाद जबसे यहां कांग्रेस का तंबू उखड़ा और क्षेत्रीय क्षत्रपों का वर्चस्व शुरू हुआ, पड़ोसी बिहार की तरह जातियां सत्ता की सीढ़ी का अहम कारक बनना शुरू हो गईं । जातीय समीकरणों के ही दम पर ही तीन बार मुलायम सिंह यादव , एक बार उनके सुपुत्र अखिलेश यादव और सबसे ज्यादा चार बार मायावती को सूबे में सत्ता की बागडोर मिली।
इस अवधि में केंद्र में कांग्रेस को तीन बार सत्ता संचालन का मौका भले ही मिला हो लेकिन जातीय गणित में लगातार कमजोर होने के कारण उत्तर प्रदेश में वह लगातार कमजोर होती गई और हालत यह है कि आज राज्य की विधानसभा में उसके पांव विधायक हैं या छह, पार्टी ही नही बता सकती है।
1989 के पहले ब्राह्मण, मुस्लिम और दलित वर्ग का एकमुश्त साथ कांग्रेस को मिलता था लेकिन उसके बाद रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद और मंडल के दौर में पार्टी का आधार वोट बैंक छिन्न भिन्न होता रहा।
दलित बसपा के साथ निकल लिए तो मुसलमान मुलायम सिंह और ब्राह्मणों का बड़ा तबका बाबरी विध्वंस के बाद भाजपा की ओर मुड़ गया। नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस के पास न तो जातीय वोट बचे और न ही संगठन के लिए झंडा और डंडा उठाने वाले लोग।
(लेखक उत्तर प्रदेश प्रेस मान्यता समिति के अघ्यक्ष हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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