Two cities, life is precious: दो शहर, जीवन अनमोल

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बड़े शहर हमेशा ही किसी ना किसी कारण खबरों में रहते ही हैं। आजकल दिल्ली खराब आबोहवा के लिए और मुंबई स्वर-कोकिला लता मंगेशकर के खराब स्वास्थ्य के लिए चर्चा में है।
दिल्ली और इसके आस-पास का इलाका 2012-13 से ही नवम्बर के महीने में धुएं और धुंध की चपेट में है। लिखने वालों ने स्मोक और फॉग को मिलाकर इस नए बवाल को स्मॉग का नाम दे दिया। चीन की राजधानी बीजिंग और इसके आसपास के शहरों में इसी समय कुछ ऐसा ही हुआ। चीनी हुक्मरानों ने फौरन एक क्षेत्रीय कमिटी बनाई। लक्ष्य तय किए, एक्शन प्लान बनाया और उसे साधने में जुट गए। उनकी सोच साफ थी कि साल 2022 में जब दुनियां विंटर ओलम्पिक खेलों के लिए चीन में जुटे तो उसे हवा भी ना लगे कि दस साल पहले उनकी हवा इतनी खराब थी। पहले तो कोयले की भट्ठियां बंद की। फिर परिवहन व्यवस्था को सीएनजी और बिजली पर ले आए। पर्यावरण सम्बन्धी जरूरी कानून बनाया और उसे सख़्ती से लागू किया। गाड़ियों की संख्या सीमित की। प्राथमिकता इलेक्ट्रिक वाहनों को दिया। वातावरण से कार्बन सोखने वाले नई तकनीकों के विकास में पैसा और ध्यान लगाया। बड़ी संख्या में पेड़-पौधे लगाए।
2017 आते-आते फर्क साफ दिखने लगा। स्मॉग गए दिनों की बात हो गई। अब तो प्रामाणिक रिपोर्ट छप रहे हैं कि कैसे चीन ने ये बला अपने सिर से टाली और  इस त्रासदी से जूझ रहे इलाके किस तरह से इसका अनुसरण कर अपने को स्मॉग से बचा सकते हैं। और तो और, चीन प्रदूषण-निषेध को 20% प्रतिवर्ष वृद्धि दर वाला उद्योग की तरह देख रहा है। भारत में सारा जोर छाती पीटने और हाय-तौबा मचाने पर रहा। प्रजातंत्र में साम्यवादी चीन के तर्ज पर आनन-फानन काम पर जुटने का स्कोप नहीं होता। राज्यों में बंटे होने की वजह से सरकारों में आपसी समन्वय की समस्या रहती है। कार्यान्वयन की रफ्तार भी सुस्त होती है।
वायु-प्रदूषण जैसी गम्भीर समस्या से निबटने में भी सरकारें एक-दूसरे पर दोष मढ़ती रही। चूंकि सांस लेना दिल्ली और इसके आसपास के इलाके में दूभर हो रहा था, बाकियों ने झटपट अपना पल्ला झाड़ लिया। पराली जलाने को अन्नदाता की मजबूरी बताने लगे। लाचारी ऐसे दिखाई कि जैसे ये कोई अटल प्राकृतिक आपदा हो। गाड़ियों की संख्या सीमित करने पर बवाल मचता सो दिल्ली सरकार आड-ईवेन का राग अलापने लगी। सीएनजी और इलेक्ट्रिक बसों पर जितना जोर दिया वो समस्या के समाधान के लिए नितांत अपर्याप्त था। पेड़ लगाने की बात दूर की कौड़ी ही रही। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के कर्मी कुछ कारगर करने के बजाय अपनी चांदी चमकाने में लगे रहे। ये एक ऐसी त्रासदी बन कर रह गई जिसके लिए किसी को सीधे तौर पर जिÞम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय के तमाम सख़्ती के बाद अभी भी सोच यही है कि चीन से कार्बन सोखने वाला टावर खरीद कर लगा देने से समस्या सुलझ जाएगी। किसी को कुछ और करने की जरूरत नहीं है। एक सर्वे में दस में चार लोगों ने कहा कि वे प्रदूषण की वजह से दिल्ली छोड़ कर जाना चाहते हैं। स्तंभकार मेघनाद साहा ने अखबार के एक लेख में दिल्ली छोड़ो तक का सुझाव दे डाला है। उनका कहना है कि दंडकारण्य के नब्बे किलोमीटर के इलाके में एक नई राष्ट्रीय राजधानी बनाई जानी चाहिए, दिल्ली को विदा कहने का वक्त आ गया है। सोशल मीडिया पर एक पोस्ट वायरल हुआ है जिसमें एक बच्चे ने लिखा है कि पोल्यूसन एक वार्षिक पर्व है जो दिवाली के ठीक बाद आता है। छुट्टी के मामले में ये दिवाली से भी बड़ा पर्व है क्योंकि इसमें छुट्टी दिवाली की छुट्टी से भी ज्यादा होती है।
मुंबई भारत की वाणिज्यिक राजधानी है। बॉलीवुड के लिए मशहूर ये शहर कारोबारियों का गढ़ है। कहते हैं कि किस्मत साथ दे जाए जो यहाँ लोग शून्य से शुरू कर अरबों-खरबों तक पहुँच जाते हैं। इधर आजकल किसान असमय बारिश के चपेट में हैं। चुनाव तो हो गए लेकिन सरकार चुनी जानी बाकी है। राज्यपाल वक्ती-बादशाह हैं। प्रसिद्ध गायिका लता मंगेशकर जी साँस की तकलीफ की वजह से अस्पताल में हैं। प्रदूषण तो वहां भी है लेकिन उनकी बीमारी बढ़ते उम्र की वजह से है। इनका जन्म 1929 में इंदौर में हुआ था। 13 साल की थी तबसे से काम कर रही हैं। पहले फिल्मों में छोटे-मोटे रोल किए फिर गाने में चल निकली। छत्तीस से ऊपर भाषाओं में इन्होंने हजारों की संख्या में गीत गाया है। मोहम्मद रफी और इनमें विवाद भी हुआ था कि दोनों में से किसने ज्यादा गीत गाया है। रफी से एक बार और भिड़ी थी जब गायकों को मिलने वाली फीस को बढ़ाने की बात पर उन्होंने लता जी का साथ नहीं दिया था। सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय हैं। मुंबई में अपने घर के आगे फ्लाईओवर बनाये जाने पर कड़ा विरोध जताया था। भारत रत्न के अलावा फ्रांस के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से भी नवाजी गयीं है। राज्य सभा में भी  मनोनीत हुई थी। स्वास्थ्य कारणों से भाग कम ही ले पाती थी। 1963 में जब लता जी ने पहली बार ह्यए मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर को पानी वाला गीत गाया था तो कहते हैं कि तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू की आंख भी नम हो गई थी। वीर फौजियों को ही समर्पित एक और गीत सौगंध मुझे इस मिट्टी, मैं देश नहीं झुकने दूंगा इसी साल रिकार्ड करवाया है। ऐसा नहीं कि इन्हें संघर्ष नहीं करना पड़ा। शुरू के दौर में कई म्यूजिक डाईरेक्टर ने ये कहकर इनको बाहर का रास्ता दिखा दिया था कि तुम्हारी  आवाज बहुत पतली है। लेकिन एक बार जब चलीं तो कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1972 में ये महीनों बीमार रही। चर्चा है कि इन्हें इन्हीं के घरेलू नौकर ने धीमा जहर दे दिया था। अब जब कि लता जी उम्र के आखिरी पड़ाव में हैं, इनका अस्पताल आना-जाना लगा रहेगा। मगर भूलना नहीं चाहिए कि सदियों में एकाध कलाकार को ही इतना सम्मान और प्यार मिलता है:
हजारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा
ईश्वर करें कि वे शीघ्र ही पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाएं और अपने नए गीतों से सबको फिर से प्रेरित और प्रफुल्लित करें।

(लेखक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं।

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