Translation results What is needed if you do not want movement? Deserted ways of democracy! आंदोलन नहीं चाहिए, तो क्या चाहिए? लोकतंत्र के वीरान रास्ते!

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प्रधानमंत्री मोदी ने देश के आंदोलनों का मजाक उड़ाया है। आपातकाल से लेकर अयोध्या आंदोलन तक, महंगाई से कश्मीर में अनुच्छेद-370 हटाने तक भाजपा ने लगातार आंदोलन ही किया। राम का आंदोलन नहीं हुआ होता तो आज की भाजपा नजर नहीं आती। उस भाजपा के प्रधानमंत्री मोदी आंदोलनजीवी कहकर खिल्ली उड़ाते हैं तो स्वतंत्रता आंदोलन का भी अपमान होता है।
जिस लोकतंत्र के रास्ते वीरान रहते हैं, उस देश की संसद मृतप्राय हो जाती है। ऐसा एक विधान राममनोहर लोहिया द्वारा किए जाने की याद आती है। आज लोहिया की बातें सत्य होती नजर आ रही हैं। संसद दिन-प्रतिदिन मृतप्राय हो रही है क्योंकि रास्ते सुनसान हो जाएं, ऐसा फरमान प्रधानमंत्री मोदी ने जारी किया है। देश के आंदोलनों को रोको। आंदोलन मतलब विदेशी शक्तियों की साजिश है। कुछ लोग सिर्फ आंदोलनों पर ही जी रहे हैं। आंदोलनजीवी शब्द का उल्लेख करके प्रधानमंत्री ने सड़क पर उतरनेवाले कार्यकतार्ओं का उपहास किया है।
यह उपहास सिर्फ गाजीपुर में तीन महीने से कृषि कानून के विरोध में आंदोलन करनेवाले किसानों का ही नहीं, बल्कि देश की आजादी और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए डेढ़ सौ वर्षों से आंदोलन करनेवाले हर किसी का उपहास है। आंदोलन सिर्फ सड़क पर ही होता है, ऐसा नहीं है। इसके विविध तरीके हैं। लोकमान्य तिलक को १९०६ में सजा हुई थी, लेकिन जब देश आजाद हुआ तब उस भूल को सुधारने का निर्णय लिया गया। तब हाईकोर्ट में एक तख्ती लगाई गई, न्यायालय ने मुझे दोषी ठहराया होगा फिर भी इस न्यायालय से श्रेष्ठ न्यायालय है व उसके समक्ष मैं निर्दोष हूं। इस आशय वाले धारदार वाक्य उस तख्ती पर उकेरे गए और उसका समारंभ पूर्वक अनावरण तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एम.सी. छागला के हाथों किया गया। लोकमान्य को सजा हुई तब हम युवक थे और आक्रोश के साथ हाथ में पत्थर उठाएं, ऐसा उस समय छागला ने कहा था।
अर्थात लोकमान्य ने एक आंदोलन किया व न्यायाधीश छागला के मन में भी आंदोलन करने का विचार उठा। जिस मन में अन्याय के खिलाफ संताप व स्वाभिमान की चिंगारी उठती है, वही आंदोलन करता है। बाकी सब अप्रभावी ही सिद्ध होते हैं।
गोधरा कांड क्या था?
प्रधानमंत्री मोदी व गृहमंत्री शाह आज आंदोलनों की खिल्ली उड़ा रहे हैं। परंतु साबरमती एक्सप्रेस जलाए जाने के बाद जो भयंकर गोधरा कांड हुआ, उसी से मोदी हिंदू समाज के नए मसीहा बने। मोदी की दृष्टि में गोधरा कांड स्फूर्त आंदोलन था। यह आंदोलन परजीवी है, ऐसा तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने नहीं कहा। उसी गोधरा कांड आंदोलन ने मोदी व शाह को दिल्ली के तख्त तक पहुंचा दिया। उसकी तुलना में दिल्ली की सीमा पर चल रहा किसानों का आंदोलन शांत और सौम्य है। अनुशासन का पालन किया जा रहा है। यह आंदोलन कापोर्रेट व्यवस्था और निवेशकों के खिलाफ होने के कारण किसानों को बदनाम किया जा रहा है। जिन्हें आज किसानों का आंदोलन नहीं चाहिए उन्हें स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की जांच करनी चाहिए। देश के स्वतंत्रता संग्राम में किसान बड़ी संख्या में उतरे थे। गुजरात में वल्लभ भाई पटेल की विश्व में सबसे ऊंची प्रतिमा का निर्माण किया गया है। ब्रिटिशों के विरोध में साराबंदी, बारडोली सत्याग्रह किसानों ने किया व इसका नेतृत्व वल्लभ भाई पटेल ने किया। पटेल की सिर्फ प्रतिमा खड़ी करने से क्या होगा? महात्मा गांधी और बाबासाहेब आंबेडकर सबसे बड़े आंदोलनजीवी थे। कानून भंग, विदेशी कपड़ों की होली, चले जाओ, नमक सत्याग्रह ऐसे कई आंदोलनों से गांधीजी ने देश को एक झंडे के तले एकजुट किया, एकमत किया। गांधीजी के उपोषण भी आंदोलन ही थे।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने पानी चखने (चवदार तल्या) का आंदोलन किया। अस्पृश्यों की अस्मिता के लिए संघर्ष किया। यह आंदोलन नहीं तो और क्या था? संसद के गलियारे में कई मूर्तियां विराजमान हैं। उस हर मूर्ति के आंदोलन का इतिहास है, जो हर मूर्ति अब जीवित होकर बताती है, हमने आंदोलन किया इसलिए आप सिंहासन पर बैठे हो।
संसद के गलियारे में महात्मा फुले की मूर्ति संसद के गलियारे में है। स्त्री शिक्षा, किसानों की समस्याओं पर आंदोलन की चिंगारी भड़कानेवाले फुले ही थे। फुले जातिभेद के खिलाफ लड़े। अपने बाड़े का कुआं उन्होंने अस्पृश्यों के लिए खोल दिया। फिर इस आंदोलन को भी परजीवी आदि कहा जाए क्या? गाजीपुर के किसानों का आंदोलन मतलब तमाशा ऐसा भाजपा के महाराष्ट्र के किसान नेता पाशा पटेल द्वारा कहा जाना अफसोसजनक ही है। न्या. महादेव गोविंद रानडे ने एक जगह कहा है, जहां लोगों की बातों को मान मिलता है, वो देश स्वतंत्र है। जहां नहीं, वह परतंत्र है। इस अर्थ से देखिए तो आज कोई स्वतंत्र है क्या?
सत्याग्रह – सत्याग्रह हिंदुस्थान द्वारा दुनिया के समक्ष रखा गया बंदूक के खिलाफ विशिष्टतापूर्ण पर्याय होने की बात राममनोहर लोहिया ने कही। उन लोहिया की मूर्ति भी आज संसद भवन में है। जयप्रकाश नारायण ने आपातकाल के खिलाफ दूसरे स्वतंत्रता संग्राम का आह्वान किया। उस आंदोलन ने इंदिरा गांधी की सत्ता को उखाड़ फेंका। वो आंदोलन परजीवी था क्या? क्योंकि उससे पहले इंदिरा गांधी लगातार संघर्ष करती थीं कि विदेशी शक्तियां देश को अस्थिर करने का प्रयास कर रही हैं। मोदी के परजीवी सिद्धांत को स्वीकार कर लिया जाए तो इंदिरा गांधी का वो कहना सही ही था। आगे इंदिरा गांधी व राजीव गांधी का खून उसी विदेशी शक्ति ने किया, ऐसा आरोप लगा।
आज भारतीय जनता पार्टी नेताजी सुभाषचंद्र बोस के प्रति प्रेम से लबरेज हो रही है। नेताजी की आजाद हिंद सेना एक आंदोलन ही थी। उन्होंने चलो दिल्ली ऐसा रोमहर्षक एलान करते हुए हिंदुस्थानी सैनिकों में स्वतंत्रता की आकांक्षा जलाई। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा! यह घोषणा एक आंदोलन ही थी। नेताजी बोस दूसरे विश्वयुद्ध के अंत में मतलब वर्ष १९४५ में हवाई हादसे में मारे गए। उसके बाद अगले ही वर्ष फरवरी, १९४६ में मुंबई में नाविकों ने विद्रोह किया। उस बगावत के कारण ब्रिटिश सरकार के पैरों तले जमीन ही खिसक गई।
ये बगावत मुंबई की सड़कों पर पैष्ठल गई। ब्रिटिशों ने पहली बार ही सड़क पर टैंक लाए। उस समय कम्युनिस्ट सड़क पर जगह-जगह लग रहे थे। टैंकों के समक्ष कम्युनिस्ट महिला नेता ताल ठोंककर खड़ी थीं, उनमें कॉ. कमल दोंडे मारी गर्इं। कॉ. कुसुम रणदिवे के पैर में गोली लगी। वह अंत तक पैरों में ही रही। इन ऐसे आंदोलनों से ही आजादी मिली। देश का निर्माण हुआ।
निर्भयाओं का क्या किया जाए?
पंजाब में लाला लाजपतराय किसानों के नेता थे। अंग्रेजों द्वारा किए गए लाठी से हमले में उनकी मौत हो गई। महाराष्ट्र में वसंतदादा पाटील, किसनवीर, नाना पाटील ये किसानों के सुपुत्र ही संघर्ष कर रहे थे। पश्चिम बंगाल में राजा राममोहन राय ने सामाजिक सुधार के लिए संघर्ष किया। सती प्रथा बंद करनी पड़ी। यह आंदोलन ही था। दिल्ली में निर्भया बलात्कार प्रकरण हुआ, तब दिल्ली की सड़कों पर और संसद में आंदोलन करनेवाले भाजपा के ही लोग थे। अब किसी निर्भया पर अत्याचार होता है तो हाथरस की तरह उसे अंधेरे में पुलिस चुपचाप जला देगी व उस घटना की खबर छापनेवालों को देशद्रोही ठहराएगी।
अयोध्या में राम मंदिर बन रहा है, वह सैकड़ों कारसेवकों के बलिदान के कारण ही। ये तमाम शहीद विदेशी हाथ अथवा परजीवी ही थे, ऐसा अब कहना होगा। मुखर्जी का बलिदान देश के आंदोलनों का इतिहास बहुत ही विशाल है। छात्रों से लेकर किसानों तक। १ अगस्त, १९२० को मतलब लोकमान्य तिलक के निधन के दिन से गांधीजी ने ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ असहयोग युद्ध शुरू किया। वकील सनद वापस लौटाने लगे। लोगों ने अपनी-अपनी सरकारी पदवियां लौटा दीं। स्कूल, कॉलेज, महाविद्यालय और न्यायालयों का बहिष्कार कर दिया गया।

(लेखक राज्यसभा सासंद व सामना के कार्यकारी संपादक हैं। यह इनके निजी विचार हैं।

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