The meaning of Modi Magic and BJP’s misery: त्वरित टिप्पणी: मोदी मैजिक और भाजपा की ‘दुर्गति’ के मायने

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चुनाव से पहले का दृश्य…
सभी कहते रहे : आर्थिक मंदी है, लोग परेशान हैं। आॅटो सेक्टर की बैंड बजी है।
भाजपा के नेता कहते रहे : कहां मंदी है? गाड़ियों की एडवांस बुकिंग ने रिकॉर्ड तोड़ दिया है। आॅनलाइन शॉपिंग बाजार ने करोड़ों का बिजनेस कर लिया है।
सभी कहते रहे : युवाओं को रोजगार नहीं मिल रहा है। सरकारी नौकरियों की भर्ती का रिकॉर्ड सबसे बुरे दौर में है।
भाजपा के नेता कहते रहे : हमने रिकॉर्ड नौकरी दी है। पुरानी सरकारों का रिकॉर्ड निकाल लो, फिर कहना।
मतदान के बाद का दृश्य
एग्जिट पोल कहते रहे : मोदी मैजिक फिर काम कर गया है। हरियाणा और महाराष्टÑ में रिकॉर्ड वोट से भाजपा सरकार बनाएगी।
वोटर्स ने कहा : सिर्फ मोदी मैजिक ही रटते रहोगे या जमीन स्तर पर काम करोगे, अभी टेलर दिखाया है। काम नहीं हुआ तो आने वाले दिनों में दिल्ली, झारखंड सहित कई राज्यों में चुनाव है। पूरी फिल्म दिखाएंगे।

मोदी सरकार पार्ट-2 के बाद महाराष्टÑ और हरियाणा का विधानसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बना था। उम्मीद की जा रही थी कि दोनों ही राज्यों में भाजपा का प्रदर्शन शानदार रहेगा। हरियाणा को लेकर तो स्थानीय नेतृत्व इतना उत्साह में था कि 75 प्लस से नीचे कोई बात ही नहीं करता था। पर वोटर तो वोटर ही है। उसने सभी नारों की ऐसी हवा निकाली कि सारा समीकरण ही उलट-पलट कर रख दिया। महाराष्टÑ में भी पिछले विधानसभा चुनाव से कम सीट भाजपा को मिली है। इसके अलावा 17 राज्यों में हुए उपचुनाव में भी भाजपा की स्थिति कमजोर हुई है। 52 में से सिर्फ 15 सीट मिलना बहुत कुछ बयां कर रहा है। यहां तक कि गुजरात में भी भाजपा को वोटर्स ने स्पष्ट संदेश दे दिया है।
दरअसल, यह चुनाव जहां एकतरफ भाजपा के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ था, वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस के लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न था। कांग्रेस ने तो अपनी लाइफ को रिचार्ज करवा लिया, लेकिन भाजपा की प्रतिष्ठा को गहरा ठेस पहुंचा है। निश्चित तौर पर हरियाणा और महाराष्टÑ दोनों ही जगह भाजपा सरकार बना लेगी, पर इसके साथ ही पार्टी के लिए आत्ममंथन का दौर जरूर शुरू होगा। आत्ममंथन इस बात पर किया जाना जरूरी है कि आखिर मजबूत स्थिति में रहते हुए पार्टी ने कहां गलती कर दी। कुछ ऐसी ही स्थिति गुजरात, महाराष्टÑ, बिहार जैसे राज्यों की भी रही है। नागपुर जैसे घोर भाजपा और आरएसएस वाले क्षेत्र में आए चुनावी परिणाम ने कड़ा संदेश दिया है। आरएसएस के गढ़ में इस बार कांग्रेस ने सेंध लगा दी है। इससे पहले हुए 2014 के विधानसभा चुनाव में जहां नागपुर जिले की 12 सीटों में से 11 पर बीजेपी का कब्जा था, लेकिन इस बार यह फासला आधे से भी कम हो गया।
अगर हरियाणा की बात की जाए तो 1982 से लेकर 2009 तक भाजपा ने कुल 47 सीट हासिल की थी, पर 2014 में एक साथ 47 सीटें जीत कर रिकॉर्ड बना लिया। हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में भी दस की दस सीट जीतकर भाजपा ने जता दिया था कि हरियाणा में भाजपा का कोई दूसरा विकल्प नहीं है। पर अचानक से भाजपा का ग्राफ ऐसा गिरा कि चुनाव परिणाम ने सभी को वास्तविकता के धरातल पर लाकर पटक दिया।
ऐसा नहीं था कि भाजपा को हरियाणा में अपनी ग्राउंड रियलिटी का पता नहीं था, पर राज्य का कोई भी बड़ा नेता इसे स्वीकार नहीं कर रहा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सात बड़ी चुनावी रैलियों ने भी कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ा। हालात यहां तक खराब हुए कि सरकार के पांच कद्दावर मंत्री भी चुनाव हार गए हैं। हरियाणा में पूरे चुनावी कैंपेन के दौरान भाजपा ने सिर्फ और सिर्फ राष्टÑीय मुद्दों पर ही फोकस किया। राष्टÑीय नेता अगर कश्मीर, धारा 370, पाकिस्तान, अमेरिका आदि पर चर्चा करें तो समझ में भी आता है, लेकिन हाल यह था कि स्थानीय नेता भी चुनावी मंच से केंद्र सरकार का ही राग अलापते रहे।
लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में जमीनी अंतर होता है। जनता राज्य के अंदर अपनी बातों को खोजती है। उसे इस बात से अधिक मतलब नहीं होता है कि कश्मीर में शांति है कि नहीं, वहां व्यापार चल रहा है कि नहीं। उसे इस बात से मतलब होता है कि हमारे राज्य में व्यापारियों का क्या हाल है। युवाओं को रोजगार मिला की नहीं। प्रदेश में महिलाएं और बेटियां सुरक्षित हैं या नहीं। सिर्फ बेटी पढ़ाओ और बेटी बचाओ के नारे वोट में तब्दील नहीं हो सकते हैं।
महाराष्ट्र में भी भाजपा निश्चित तौर पर सत्ता में वापसी कर चुकी है। पर यहां भी मोदी मैजिक के भरोसे पार्टी रही है। हालांकि यह कहने में गुरेज नहीं कि यहां मोदी मैजिक फीका ही रहा है। पंकजा मुंडे के क्षेत्र में प्रधानमंत्री मोदी की भव्य रैली करवाई गई। पर हाल देखिए स्वयं पंकजा मुंडे ही चुनाव हार गई हैं। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे में भी भाजपा ने पूरी मनमानी की। शिवसेना बेबस और खामोश बनी रही। पर अब स्थिति दूसरी है। शिवसेना पूरी हनक के साथ अपनी शर्तों को मनवाने की तैयारी कर चुकी है। 2014 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना और बीजेपी दोनों अलग अलग चुनाव लड़े थे। तब बीजेपी ने 122 सीटें जीती थी और शिवसेना को 63 सीटों से ही संतोष करना पड़ा था। इस बार दोनों मिल कर चुनाव लड़े और शिवसेना फायदे में रही।
कांग्रेस ने निश्चित तौर पर तमाम झंझावतों को झेलते हुए अपना पुराना रंग दिखाया है। महाराष्टÑ, हरियाणा से लेकर भाजपा के गढ़ वाले इलाकों में भी अपनी शानदार धमक दिखाकर कांग्रेस ने जता दिया है कि अभी वह सिर्फ कमजोर हुई थी खत्म नहीं। हरियाणा में तो कांग्रेस ने इतने झंझावत झेले कि कांग्रेस अध्यक्ष अशोक तंवर ही पार्टी छोड़ गए। पर सोनिया गांधी ने अपनी पुरानी टीम पर भरोसा दिखाया। भूपेंद्र सिंह हुड्डा और कुमारी शैलजा की जोड़ी ने टिकट बंटवारे से लेकर स्थानीय मुद्दों पर फोकस करते हुए चुनावी कैंपेन को संचालित किया। इसका परिणाम आज सामने है। भले ही अभी सत्ता तक पहुंचने में उसे काफी पापड़ बेलने पड़ जाएंगे, लेकिन एक बात तो तय है कि दमदार विपक्ष के साथ भी वह भारतीय जनता पार्टी को आने वाले समय में चैन से नहीं रहने देगी। एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक मजबूत विपक्ष का होना जरूरी है। हरियाणा कांग्रेस भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने में अपना सार्थक योगदान देगा इसकी उम्मीद की जाती है।
इस चुनाव के बाद निश्चित तौर पर भारतीय जनता पार्टी को आत्ममंथन करते हुए जनता से जुड़ी जमीनी दिक्कतों पर फोकस करना होगा। रोजगार, मंदी जैसे तमाम मुद्दों पर आंकड़ों की बाजीगरी से परे सरकार को ठोस काम करना होगा। नहीं तो मोदी मैजिक के भरोसे बहुत कुछ हासिल नहीं किया जा सकता है।
(लेखक आज समाज के संपादक हैं।)

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