Time to learn creatively from mistakes: गलतियों से सीख रचनात्मक करने का समय

0
251

हमारे बचपन का बड़ा हिस्सा कानपुर में गुजरा। हम संयुक्त परिवार में दर्शनपुरवा वाले घर में रहा करते थे। जीटी रोड के दूसरी तरफ श्रीरामकृष्ण मिशन आश्रम था, जहां बड़े अक्षरों में लिखा होता था “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः”। वहां के अस्पताल में चाचा सेवा करने जाते थे। जहां स्वामीजी, डाक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ के साथ समर्पण भाव से लगे रहते थे। बेहद सस्ती दरों पर दवा दी जाती थी। हम भी वहां के पुस्तकालय और स्वामीजी से ज्ञान प्राप्ति को जाते थे। मिशन का स्कूल सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। पिताजी ने भी वहीं से पढ़ाई की थी, जिससे वहां के शिक्षक हमें भी मदद करते थे। उन दिनों सबसे अच्छे अस्पताल उर्सला और हैलट (गणेश शंकर विद्यार्थी मेडिकल कालेज अस्पताल) सरकारी थे। पिताजी को डकैतों से मुठभेड़ में गोली लगी, तो हैलट ने ही नया जीवन दिया था। अन्य अच्छे अस्पताल मिशनरी के थे, चाहे वो हिंदू हो या ईसाई मिशनरी के। यही स्थिति स्कूलों-कालेजों की भी थी। अब हम देश के पहले प्लांड सिटी चंडीगढ़ में हैं। देश का टॊप पीजीआई, मेडिकल कालेज और राजकीय सुपर स्पेशियल्टी अस्पताल यहां है। बावजूद इसके यहां के तमाम बड़े लोग निजी अस्पतालों का रुख करते हैं। कोविड-19 महामारी ने जब देश को घेरा तब तमाम सरकारी और मिशनरी के अस्पताल-डाक्टर ही काम आये। अस्पतालों को निजी दुकानों की तरह चलाने वाले डाक्टर ऐसे वक्त में दुबके रहे। यह तब है जबकि भारत में 80 फीसदी चिकित्सीय संसाधन निजी क्षेत्र के अस्पतालों में है।

देश जब अंग्रेजी हुकूमत से आजाद हुआ तब आधी आबादी मलेरिया से ग्रसित थी, करीब दो लाख लोग मर जाते थे। चिकनगुनियां ने 1951 में डेढ़ लाख जिंदगियां खत्म कर दीं थीं। प्लेग और दूसरी महामारियों से हर साल लाखों लोगों मरते थे। हमारे पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने इनके खिलाफ युद्ध छेड़ा। जिससे सभी महामारियां सामान्य बीमारी बन गईं। उन्होंने सार्वजनिक स्वास्थ सेवा की स्थापना की। 1947 में सिर्फ 15 मेडिकल कालेज थे मगर जब पंडित नेहरू स्वर्गवासी हुए तब 81 मेडिकल कालेज एवं इंस्टीट्यूट थे। उन्होंने इस लड़ाई के लिए 1952 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी की स्थापना की, जो दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी लैब है। विश्व स्वास्थ संगठन ने इसे एच-5 सहित कोविड-19 की सबसे प्रतिष्ठित लैब की मान्यता दी है। यह उदाहरण मात्र है, क्योंकि ऐसी तमाम लैब और सुपर स्पेशियल्टी अस्पताल एवं शोध संस्थान उन्होंने तब स्थापित किये जब उन्हें कंगाल देश मिला था। इस वक्त भारत में 535 मेडिकल कॉलेज हैं, जहां से हर साल करीब 80 हजार डाक्टर और तीन लाख नर्सें निकलते हैं। यह तब संभव हो सका, जब सरकार कुछ उद्योगपतियों या समूह-संप्रदाय के लिए नहीं, समाज, राष्ट्र और मानवता के लिए काम करती थी। सस्ती किंतु गुणवत्ता युक्त शिक्षा लक्ष्य था। जिससे देश को ऐसे चिकित्सक, वैज्ञानिक और टेक्नोक्रेट-ब्यूरोक्रेट मिल सके, जिन्होंने विश्व में भारत का परचम लहराया। कालांतर में हमारी सरकारों ने सियासी एजेंडों और कुछ उद्योगपतियों के हितों के लिए काम किया। नतीजा, शिक्षा-स्वास्थ महंगा हो गया। अब नीति आयोग ने सार्वजनिक स्वास्थ सेवाओं के बजाय निजी स्वास्थ कंपनियों को तरजीह देना शुरू कर दिया। निजी मेडिकल-इंजीनियरिंग कालेजों, विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थाओं की दुकाने खुलीं। सार्वजनिक संस्थानों की बुरी गति हो गई। सामान्य निजी अस्पतालों से लेकर फाइव स्टार अस्पतालों की चेन खुल गई, जिन्होंने इलाज के नाम पर लूट मचा दी। यही हमारी सबसे बड़ी गलती थी, जो कोरोना महामारी में बेनकाब हो चुकी है।

मोदी सरकार में वित्त राज्य मंत्री रहे जयंत सिन्हा कहते हैं कि कोविड ने साबित किया है कि हमने जैविक विज्ञान और स्वास्थ्य सेवाओं के अनुसंधान पर पर्याप्त खर्च नहीं किया है। नागरिकों के हित में संसाधनों की बढ़ोत्तरी के लिए अधिक खर्च की जरूरत है। जैविक विज्ञान क्षेत्र की कंपनियों के साथ अधिकार प्राप्त कार्यदलों और नियामकों तथा नीति निर्माताओं के साथ काम किया जाये ताकि इसमें निवेश, रोजगार बढ़ें। सार्वजनिक स्वास्थ सेवा मजबूत बने। हमारे पास कुशल डॉक्टर, नर्सें, और जैविक विज्ञान के विशेषज्ञों की कमी नहीं है। शोध को बढ़ावा देने के लिए सरकार को अधिक आर्थिक मदद देने की व्यवस्था करनी चाहिए। शोध के लिए जेनोमिक्स, कंप्युटेशनल बायोलॉजी, वाइरोलोजी, एपिडेमिओलोजी, न्यूरोसाइन्स, स्टेम सेल आदि क्षेत्रों पर ध्यान दिया जाये। लाइफ साइंस के विभिन्न शोध संस्थानों को अलग-अलग मंत्रालय नियंत्रित करते हैं। रसायन व उर्वरक मंत्रालय नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग ऑथरिटी (एनपीपीए) को, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइज़ेशन और नेशनल हेल्थ पोर्टल ऑफ इंडिया एलेक्ट्रोनिक हेल्थ रेकॉर्ड (ईएचआर) को और इलेक्ट्रॉनिकी और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय पर्सनल डाटा प्रोटेक्सन को नियंत्रित करता है। निश्चित रूप से जयंत की बात तार्किक है। दुखद यह है कि सरकार इसे प्राथमिकता में रखकर काम करने के बजाय सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट (राजपथ और नये संसद भवन) पर खर्च करने को मंजूरी दे रही है, जबकि मौजूदा संसद भवन और राजपथ बेहतरीन हैं। संकट की इस घड़ी में जनता की गाढ़ी कमाई के 20 हजार करोड़ रुपये उसकी मौजूं जरूरतों के लिए उपयोग करने के बजाय आलीशान जिंदगी के लिए खर्च किये जा रहे हैं। मुख्य विपक्षी दल की प्रमुख सोनिया गांधी सहित कई नेताओं ने प्रधानमंत्री से इस प्रोजेक्ट को निलंबित करके यह धन कोविड से लड़ने में लगाने की मांग की है। अधिक दुख तब हुआ जब, इंसाफ का मंदिर समझे जाने वाले सुप्रीम कोर्ट में इसे रोकने की याचिका को भी उसने हस्तक्षेप से इंकार करते हुए खारिज कर दी।

हमने देखा है कि इस महामारी के दौरान मिड डे मील और मनरेगा योजनाएं काम आई हैं, इनके धन से कुछ गरीब मजदूरों और बच्चों को खाने के लिए दिया गया। देश के 80 फीसदी जरूरतमंद लोगों को सिविल सोसाइटी और संवेदनशील लोगों ने भोजन पहुंचाने का काम किया है। एफसीआई के गोदामों में अब भी अनाज सड़ रहा है। लॊक डाउन के 40 दिन गुजरने के बाद भी कोरोना से लड़ रहे राज्यों को केंद्र सरकार से न मदद का धन मिल सका है और न ही उनके राजस्व का हिस्सा। इस मुद्दे को लेकर पंजाब के लोगों ने तिरंगा लगाकर विरोध भी जताया। उन्होंने इवेंट बनाने की गलती नहीं की। केंद्र सरकार ने गबन करने वाले कर्जदारों को 68 हजार करोड़ की राहत जरूर दे दी है मगर वास्तविक लाइफलाइन चलाने वाले लघु एवं मध्यम दर्जे के उद्योगों को कोई राहत नहीं दी। विश्व श्रम संगठन ने कहा है कि लॊकडाउन से श्रमिकों की हालत बदतर हुई है। भविष्य में भयंकर बेरोजगारी पैदा होने वाली है। विश्व में 160 करोड़ लोगों का रोजगार छिन गया है, जिसमें सबसे अधिक भारत के श्रमिक हैं। वहीं, विश्व बैंक का मानना है कि बड़ी मंदी का दौर शुरू हो चुका है। जीडीपी ऋणात्मक वृद्धि की ओर चल दी है। इतनी गंभीर हालात के बावजूद भारत में भविष्य के इस संकट से जूझने की तैयारी के बजाय सियासी दल सांप्रदायिकता का खेल खेल रहे हैं। पालघर में दो साधुओं से लिंचिंग होती है तो पूरा साधु और हिंदू समाज संकट में आ जाता है मगर जब यूपी में तीन साधुओं की हत्या होती है तो कोई आवाज नहीं आती। सांप्रदायिकता और तुष्टीकरण की नीतियों ने देश को रचनात्मक नहीं करने दिया। विश्व मानवाधिकार संगठन ने भारत को अल्पसंख्यक विरोधी देश बता दिया है। सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ व्यवस्था जो आम नागरिक की आवश्यकता है, पर पूंजीवादियों के लिए सरकार ने पं. नेहरू की उन जनहित वाली नीतियों की हत्या कर दी।

ऐसे कठिन समय में भी जिम्मेदार लोग रचनात्मक करने के बजाय सांप्रदायिकता की चादर से अपनी नाकामी छिपाने में जुटे हैं। बगैर पूरी तैयारियों के किये गये लॊक डाउन से देश गंभीर संकट में फंसा है। नित नये मनमानी आदेश जारी हो रहे हैं। ऐसे में जिम्मेदारी राज्यों के कंधे पर डालकर बचने की कोशिश की जा रही है। उद्योग, स्वास्थ एवं सार्वजनिक सेवाएं और श्रमिक गंभीर संकट में हैं। ऐसे में भी अगर हमने अपनी गलतियों से सबक लेकर रचनात्मक नहीं किया तो देश को अराजकता के संकट से कोई नहीं बचा सकता।

जयहिंद!

[email protected]

(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)

SHARE