thenge par sarakaar, manamaanee ho rahee jaanaleva: ठेंगे पर सरकार, मनमानी हो रही जानलेवा

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उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रहीं प्रयागराज की सांसद रीता बहुगुणा जोशी के लिए यह दीवाली अंधियारों की सौगात लाई है। उनकी इकलौती पौत्री को रोक के बावजूद चले पटाखों का शिकार होना पड़ा। छह साल की बच्ची की जान पटाखों के कारण चली गयी। कोरोना के इस दौर में प्रदूषण की भयावहता को देखते हुए दिल्ली सहित देश के कई प्रमुख शहरों में पटाखों पर पाबंदी लगी थी। सरकारी पाबंदी के अलावा कोरोनाके दौर में श्वसन संबंधी  समस्याओं के मद्देनजर डॉक्टर भी पटाखे न चलाने की अपील लगातार कर रहे थे। इसके बावजूद दीवाली पर धड़ल्ले से पटाखे चलाए गए।
इससे हजारों लोग अत्यधिक बीमार हुए, वहीं रीता बहुगुणा जोशी की पौत्री की मौत जैसी तमाम घटनाओं ने भी हिला कर रख दिया। दरअसल यह स्थितियां जनता के अराजक मनोभावों के कारण उत्पन्न हुई हैं। लोगों ने सरकार को ठेंगे पर रखकर मनमानी करने की ठान रखी है, जिससे संकट लगातार बढ़ रहा है और जनमानस की मनमानी जानलेवा साबित हो रही है।
जिस तरह देश में कोरोना पर नियंत्रण कठिन हो रहा है, भारी संख्या में लोगों की जान जा रही है, उसके लिए सिर्फ सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। सरकार लॉकडाउन की बात करती है, तो आर्थिक संकट मुंह बाए खड़ा हो जाता है। लॉकडाउन खत्म होता है तो लोग सड़कों पर इस तरह निकलते हैं, मानो बीमारी ही खत्म हो गयी हो। मास्क लगाने से लेकर दो गज दूरी बनाने तक की तमाम घोषणाओं को दरकिनार कर लोग अराजक ढंग से सड़क पर जगह-जगह भीड़ लगाए दिख जाएंगे। सरकारी रोक उसी तरह निष्प्रभावी है, जिस तरह देश के ज्यादातर हिस्सों में यातायात नियम निष्प्रभावी रहते हैं। सरकारी नियमों के अलावा समाजिक वर्जनाएं भी टूटने से समस्या हो रही है।
दीवाली पर कोरोना के बावजूद जिस तरह से मनमाने ढंग से पटाखे चले और आतिशबाजी हुई, वह भारतीय संस्कृति के आचरण के अनुरूप तो कतई नहीं कही जा सकती। कुछ दशक पहले तक यदि गांव या मोहल्ले में किसी की मृत्यु हो जाती थी, तो उस गांव या मोहल्ले में दीपक प्रज्ज्वलित कर दीपावली मनाने का शगुन भर कर लिया जाता था, और पूरा मोहल्ला शोकग्रस्त वातावरण में पटाखे नहीं चलाता था। पिछले आठ महीनों से अधिक समय से देश कोरोना का दंश झेल रहा है। दिल्ली हो या देश के तमाम अन्य बड़े शहर, शायद ही कोई मोहल्ला होगा, जहां कोरोना या ऐसी ही किसी बीमारी के कारण मौतें न हुई हों।
किन्तु अब लोगों को दूसरों के दुख की परवाह ही नहीं है और अपनी खुशियों के नाम पर पड़ोसी की मौत की परवाह किये बिना आतिशबाजी करने में पीछे नहीं रहते। यदि भारतीय सांस्कृतिक विरासत ही संजोई गयी होती, तो सरकारी रोक जैसी जरूरतें नहीं पड़तीं और पटाखों के कारण उत्पन्न संकट से बचा जा सकता था। वैसे जनता सरकार की रोक भी नहीं मानना चाहती है। यही कारण है कि पटाखों पर रोक के बावजूद दिल्ली से लखनऊ तक हर जगह मनमाने ढंग से पटाखे चलाए गए। इसके परिणाम स्वरूप प्रदूषण में अनपेक्षित वृद्धि दर्ज की गयी।दीवाली की रात वायु गुणवत्ता सूचकांक सरकारी रोक संबंधी आदेशों को चिढ़ाता नजर आ रहा था।
सामान्य स्थितियों में मानक के अनुरूप वायु गुणवत्ता सूचकांक पचास के आंकड़े को पार नहीं करना चाहिए। सौ के ऊपर वायु गुणवत्ता सूचकांक खतरनाक माना जाता है। इसके बावजूद जींद में दीवाली की रात वायु गुणवत्ता सूचकांक 457 पहुंच गया था। दिल्ली समेत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की हालत भी बहुत खराब रही। गाजियाबाद में वायु गुणवत्ता सूचकांक 448 तो नोएडा में 441 दर्ज किया गया। देश की राजधानी दिल्ली वाले सरकारी आदेश न मानने के लिए कितने बेताब हैं, यह बात भी दीवाली की रात साबित हुई। दिल्ली का वायु गुणवत्ता सूचकांक 435 दर्ज किया गया। यह आंकड़ा दिल्ली का औसत आंकड़ा था। दिल्ली के अंदर कुछ स्थानों पर तो वायु गुणवत्ता सूचकांक 500 तक पहुंच गया था।
गुरुग्राम व फरीदाबाद भी इस मामले में पीछे नहीं रहे और दीवाली की रात हुई जमकर आतिशबाजी के चलते वहां वायु गुणवत्ता सूचकांक 425 व 414 तक पहुंच गया। यह स्थिति प्रदूषण को जानलेवा बना रही है। दिल्ली व आसपास जिस तेजी से तीसरी बार कोरोना पांव पसार रहा है, उस दृष्टि से यह प्रदूषण बेहत खतरनाक साबित होने वाला है। ये स्थितियां बताती हैं कि आम जनमानस में सरकारों की बातें मानने की जिजीविषा ही समाप्त हो चुकी है। लोग मनमाने ढंग से हर पाबंदी को परिभाषित करते हैं। कई बार तो धार्मिक आधार पर भी पाबंदियों का समर्थन या विरोध शुरू हो जाता है। इसका कष्ट वही समझ पाता है, जिसके घर के किसी व्यक्ति की जान जाती है।
अराजकता व मनमानी का परिणाम जाति, धर्म, सामाजिक ओहदा या स्थिति देखकर सामने नहीं आता। पटाखे हों या अन्य पाबंदियां, इन पर अमल जनता को ही सुनिश्चित करना होगा। ऐसा न होने पर पूरे समाज को बड़े कष्ट व संकटों के लिए तैयार रहना होगा। जिस तरह पर्यावरण की चिंता न कर हमने पूरे मौसम चक्र व वातावरण को खतरे में डाल दिया है, अब अन्य स्तरों पर अराजकता सामाजिक संकट का कारण बन रही है। इससे मुक्ति का पथ भी जनता को ही खोजना होगा।
(लेखक स्तंभकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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