The question of child rights stands in the Stockade: कटघरे में खड़ा बाल अधिकारों का सवाल

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बाल संरक्षण को लेकर हमारी चिंताएँ कितनी वाजिब हैं इसका जबाब हमें कानपुर महिला संवासिनी गृह से पता चल गया है। इस लापरवाही के सामने आने के बाद अब यह साफ हो गया है कि सरकारी आश्रय स्थलों की स्थिति बद से बदतर है। यहाँ व्यवस्था सिर्फ़ हाथी दाँत की माफिक है। यह हालात सिर्फ़ कानपुर तक ही सीमित नहीँ हैं पूरे राष्ट्रीय स्तर पर है। हम कितने अनैतिक हो गए हैं इसका कोई पैमाना नहीँ है। 57 बालिकाएं कोरोना संक्रमित पाई गई हैं जबकि सात गर्भवती हैं। इस गुनाह के लिए आखिर कौन जवाबदेह है। यह किसकी जिम्मेदारी बनती है। सात नाबालिग लड़कियां कैसे गर्भवती हुई। जिला प्रशासन का तर्क है कि पास्को मामले में दूसरे कई स्थानों से लाई गई लड़कियां आने पूर्व गर्भवती थीं। फिलहाल यह जाँच का विषय हो सकता है, लेकिन लापरवाही तो हुई है। इस बात को बाल आयोग ने भी माना है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मीडिया में आयीं रिपोर्ट के आधार पर मामले का खुद संज्ञान लिया है। उत्?तर प्रदेश के मुख्य सचिव और डीजीपी को नोटिस भेजा है। आयोग ने राज्य के मुख्य सचिव और डीजीपी से इस मामले में जवाब भी मांगा है। महिला आयोग ने भी कानपुर डीएम से रिपोर्ट मांगी है। आयोग ने  मामले की जांच स्वतंत्र एजेंसी से कराने की बात कहा है। चार हफ्ते में आयोग ने घटना की रिपोर्ट तलब की है। जिला प्रशासन पर कई सवाल उठ रहे हैं। जब सुप्रीम कोर्ट की तरफ से साफ निर्देश था कि सभी बालगृहों कि जांच कराई जाय, लेकिन प्रशासन ने आयोग के आदेश के पहले ऐसा नहीँ किया।  दुनिया कोरोना संक्रमण से जूझ रहीं है। इसके बावजूद
महिला संवासिनी गृह में नाबालिक लड़कियों कि स्वास्थ्य जाँच क्यों नहीँ कराई गई। समय रहते सभी की जाँच करा दी जाती तो इतनी तादात में यह संक्रमण नहीँ फैलता। लेकिन जिम्मेदार सरकारी अमले ने ऐसा कुछ नहीँ किया जिसकी वजह से इतनी तादात में नाबालिग लड़कियां कोरोना संक्रमित हुई। वक्त रहते जाँच होती तो संक्रमण फैलाने से बचाया जा सकता था। बाकि लड़कियों को आइसोलेट किया जा सकता था, लेकिन अंधों और बहारों को कौन बताए। इस मामले में अब राजनीति शुरू हो गई है। काँग्रेस, सपा जैसे दल राज्य की योगी सरकार को कटघरे में खड़ा करते दिखते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और प्रियंका वाड्रा गाँधी ने तीखा हमला बोला है। लेकिन इस राजनीति से नाबालिग संवासिनियों की पीड़ा को हम कम नहीँ कर सकते हैं। इस व्यवस्था के लिए सिर्फ़ योगी सरकार को ही जिम्मेदार नहीँ ठहराया जा सकता है। यह सिर्फ़ एक राज्य की नहीँ देशव्यापी कुप्रबंधन है। संवासिनी गृहों को बाल अधिकार संरक्षण को दृष्टि में रख कर बनाया गया था। इस तरह की व्यवस्था के पीछे साफ- सुथरा उद्देश्य था, लेकिन संवासिनी गृह अनैतिक व्यभिचार के अड्डे बन गए हैं। बिहार और गोरखपुर के संवासिनी गृहों में इस तरह की अनैतिक घटनाएँ पूर्व में सामने आ चुकी हैं। अंतहीन मीडिया डिबेट भी हो चुकी हैं। बाल संरक्षण आयोग और सुप्रीमकोर्ट की तरफ से कई तरह के दिशा निर्देश भी जारी किए गए हैं लेकिन सरकारें और सिस्टम सुधरने का नाम नहीँ लेती हैं। सरकार आदेश करती है तो सिस्टम में बैठे लोग दिशा निदेर्शों का पालन नहीँ करते हैं। लेकिन कानपुर जैसी घटना समाज के सामने आने के बाद गला सरकारों का फंसता है। महिला संवासिनी गृहों जिस तरह की अनैतिकता बरती जाती है वह किसी से छुपी नहीँ है। समाज में अन्याय, पीड़ा और प्रताड़ना सहने के बाद संवासिनी गृह में लाई गई लड़कियां सोचती होंगी कि यहाँ आकर उन्हें सकुन और शांति मिलेगी। नई जिंदगी जीने का मौका मिलेगा। वह अपने साथ हुए बुरे बर्ताव की वेदना से बाहर निकल सकती हैं, लेकिन ऐसा कुछ नहीँ होता। कानपुर जैसे सुधारगृहों में आकर उनके सपने हवा हो जाते हैं। उन्हें शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। मासूम नाबालिक लड़कियों का दैहिक शोषण होता है। इस अनैतिक कार्य में संवासिनी गृह के जिम्मेदार लोगों की मिलीभगत से इनकार नहीँ किया जा सकता है। लड़कियां कैसे गर्भवती हुई ? यह अपने आप में बड़ा सवाल है। लेकिन जबाब तो देना पड़ेगा। बाल बालसंरक्षण की आड़ में हजारों स्वयंसेवी संगठन इस दिशा में काम करते हैं। सरकार की तरफ से करोड़ों रुपए का फंड इस तरह के एनजीओ के लिए मिलता है। सरकार में अपनी पैठ मजबूर बनाने वाले एनजीओ मलाई काटते हैं। अफसरों की मिलीभगत से धन की बंदर बाँट होती है। जबकि सुधारगृहों में अव्यवस्था का आलम रहता है। आडिट और जाँच की सिर्फ़ खानापूर्ति होती है। अफसर अपना मोटा हिस्सा लेकर अलग हो जाते हैं। फिर कानपुर, गोरखपुर और मुजफ्फरपुर जैसी घटाएँ सामने आने के बाद बावेला मचता है। सरकार पर विपक्ष हमला बोलता है। बाल और महिला आयोग हरकत में आता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सरकारों से रपट माँगता है। कुछ दिन बाद सबकुछ सामान्य हो जाता है। बात जहाँ कि वहां रह जाती है। संवासिनी गृहों के सुधार और नाबालिग लड़कियों के अधिकार का मामला फिर ठंडे बस्ते में चला जाता है। उत्तर प्रदेश बाल संरक्षण आयोग की टीम इस बालिका गृह का पिछले दिनों निरीक्षण किया था। आयोग ने कई खामियों की तरफ ध्यान भी दिलाया था। आयोग ने माना भी है कि लापरवाही हुई है इससे इनकार भी नहीँ किया जा सकता है। शेल्टलहोम में क्षमता से अधिक लड़कियों को रखा गया है। जब सुप्रीम कोर्ट की तरफ से साफ निर्देश था कि बालगृहों की जांच कराई जाय। प्रशासन ने आयोग के आदेश के पहले जांच क्यों नहीं शुरू किया। जब कुछ लड़कियां पॉजिटिव पाई गई थीं तो गर्भवती लड़कियों को संक्रमित लड़कियों के साथ क्यों रहने क्यों दिया गया। भारत के साथ पूरी दुनिया में  20 नवंबर को बाल अधिकार दिवस मनाया जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय नियम के मुताबिक 18 साल की कम उम्र के किशोर बाल अधिकार संरक्षण के दायरे में आते हैं। सरकार और राष्ट्रीय बाल आयोग की तरफ से इस सम्बन्ध में नाबालिगों के अधिकार को लेकर साफ- सुथर और दिशा निर्देश भी हैं।  लेकिन सिस्टम इतना करप्ट हो चुका है कि उसकी कल्पना तक नहीँ कि जा सकती।  सिर्फ़ सरकारें बदलती हैं सिस्टम नहीँ बदलता है। देश में बच्चे अपनी सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों की वजह से असहाय हैं।
उनके साथ बालश्रम, दुर्व्यवहार, विस्थापन और असुरक्षित प्रवास जैसी समस्याएँ आम है। यौन शोषण के लिए गैर कानूनी खरीद-फरोख्त गंभीर चुनौती है। भिक्षावृत्ति, मानव अंगों का कारोबार, घरेलू कार्य और पोर्नोग्राफी की समस्या किसी से छुपी नहीँ है।

इस तरह के मामलों में बाल संरक्षण आयोग, सरकार की जिम्मेदारी बढ़ जाती हैं। हमें बाल संरक्षण अधिकारों को सख्ती से लागू करवाने की जरूरत है। दूसरी बात राष्ट्रीय बाल आयोग खुद इस तरह के मामलों में हस्तक्षेप कर दोषियों को सजा दिलाने में अहम भूमिका निभाए। उसे सरकारों पर अधिक आत्मनिर्भर नहीँ रहना चाहिए। आयोग सिर्फ़ रिपोर्ट आयोग बनकर न रह जाए इसका भी खयाल रखना होगा। अगर समय रहते स्थिति पर नियंत्रण नहीँ किया गया तो महिला संवासिनी गृह पतन की परकाष्ठा लांघ जाएंगे। इस हालत में सरकार और आयोग की जवाबदेही बढ़ जाती है।

प्रभुनाथ शुक्ल

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