The future of the country in the way of darkness! अंधकार की राह में देश का भविष्य!

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जो बात कहते डरते हैं सब, तू वो बात लिख, इतनी अंधेरी थी ना कभी पहले रात, लिख। जिनसे क़सीदे लिखे थे, वो फेंक दे क़लम, फिर खून-ए-दिल से सच्चे कलाम की सिफ़त लिख। मुखर शायर जावेद अख्तर साहब की इन पंक्तियों में बहुत कुछ छिपा है। सच की आवाज बनने वाला मीडिया हो या तमाम संस्थाएं, सभी की क़लम सत्ता के क़सीदे गढ़ने में लगी हैं। सच कहता हूं कि इन हालात को देखकर मैं खुद न्यूज चैनल्स देखना बंद कर चुका हूं। एक दर्जन अखबारों पर चंद मिनटों में ही नजर डाल लेता हूं मगर कुछ अखबारों को खोजकर उनके पहले पेज देखता हूं। वजह, सच्ची क़लम की लिखावट यदा-कदा ही मिलती है। जब पत्रकारिता के पेशे में आया था, तो बड़े-बड़े सिद्धांत, मूल्य और एथिक्स सीखे थे, उनकी रोज हत्या होते देखता रह जाता हूं। पिछले कुछ दिनों से अपनी मां के निधन कारण परिवार के साथ लखनऊ घर पर था। कभी मोहल्ला ही अपना घर नजर आता था मगर अब उतना अपनापन नहीं दिखता। दिल्ली-चंडीगढ़ से जब तुलना करता हूं, तो अभी भी तमाम घरों में अपनापन दिखता है। घर में अपनी चर्चा से अधिक नफरत की बातें होती हैं। अब पापा के मित्र मुईद और साबिर अंकल जैसा यकीनी अपनत्व घर में ही नहीं रहा। अब तो वह मुसलमां और हम हिंदू हो चुके हैं। उनके जैसे लोगों का घर आना भी लोगों की आंखों में चुभता है। एक बच्चा सवाल करता है कि इतने मुसलमां हमारे घर क्यों आ रहे हैं, शायद वह उस अपनेपन को नहीं समझता, जो हमने महसूस किया था।

देश इतनी समस्याओं में फंसा है कि उनकी फेहरिस्त बनाने में घंटो लगते हैं। आर्थिक तबाही का दौर चल रहा है। चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाहीं के आंकड़ों ने हमें विश्व की बदतर आर्थिक दशा वाला देश बना दिया है। नकारात्मक जीडीपी की आशंका तो थी मगर -23.9 फीसदी पर हम गिरेंगे, यह तो सोच में ही नहीं था। हालांकि विश्व के तमाम अर्थशास्त्रियों ने यह पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि गलत और नकारात्मक नीतियां देश की अर्थव्यवस्था को चौपट कर देंगी। “ग्लोबल इकनॉमिक फ्रीडम इंडेक्स” ने तो भारत को 26 रैंक गिरा दिया, जिससे वह 105वें स्थान पर पहुंच गया है। यही नहीं, हमारे समाज में बढ़ी वैमनस्यता और नफरत के कारण हमारा सामाजिक तानाबाना टूटने लगा है, जिससे हम विश्व इंडेक्स में बुरे हाल में हैं। वहीं हमारे वह पड़ोसी देश जो हमसे सदैव पीछे रहते थे, आगे निकल गये हैं। आर्थिक और सामाजिक तबाही का दौर पिछले कुछ सालों से चल रहा था। इसका नतीजा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों में सामने आया है। इन हालात के चलते सिर्फ 2019 में करीब 43 हजार किसानों-मजदूरों ने आत्महत्या कर ली। बेरोजगारी से परेशान 14 हजार से अधिक युवाओं ने खुदकुशी कर ली। हालात यह हो चुके हैं कि देश में रोजाना 382 लोग विभिन्न कारणों से आत्महत्या कर रहे हैं। खुदकुशी करने वालों में दिहाड़ी मजदूर 23.4 प्रतिशत हैं जबकि गृहिणियां 15.4 प्रतिशत। छोटे कारोबार करने वाले 11.6 प्रतिशत, बेरोजगार 10.1 प्रतिशत, पेशेवर या वेतनभोगी 9.1 प्रतिशत, छात्र और कृषि क्षेत्र से जुड़े लोग 7.4 प्रतिशत, और सेवानिवृत्त 0.9 फीसदी लोगों ने आत्महत्या की है। एनसीआरबी के मुताबिक 14.7 फीसदी आत्महत्या करने वालों के विभिन्न कारण थे। यह वह आंकड़े हैं, जो रिपोर्ट किये गये, तो रिपोर्ट ही नहीं किये गये, उनकी तादाद भी कम नहीं है।

हमारे देश की व्यवस्था लोककल्याण की भावना पर आधारित रही है। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इसी भावना को सर्वोपरि रखते हुए “कैपटलिस्ट इकनॉमी” को नहीं बल्कि “सोशयो कैपटलिज्म इकनॉमी” को अपनाया था। जिसमें बड़ों से कमाया जाता और छोटे-मध्यम वर्ग को मदद की जाती थी। उन्होंने प्रधानमंत्री के पद को सेवक के तौर पर प्रस्तुत किया। इसके लिए उन्होंने सिर्फ एक रुपये वेतन और एक बंगले में रहकर अपने सभी खर्च खुद उठाने का फैसला किया। इंदिरा गांधी के वक्त तक यही व्यवस्था रही। उनकी सुरक्षा व्यवस्था भी बेहद सामान्य थी मगर इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सुरक्षा से लेकर अन्य तमाम खर्च बढ़ा दिये गये, जो अब विश्व में सबसे अधिक हैं। 1998 तक प्रधानमंत्री स्वदेशी अंबेस्डर कार से चलते थे मगर उसके बाद अटल सरकार में बीएमडब्ल्यू के टॉप मॉडल की कारें आ गईं। दूसरी तरफ हमारी आवाम लगातार असुरक्षित होती गई। विभिन्न तरीके के अपराध बढ़े। नफरत को राजनीतिक हथियार बना लिया गया क्योंकि समुदायों और जातियों में नफरत फैलने से बड़ा वोट बैंक तैयार होने लगा। आबादी के अनुपात में देखें तो देश में भुखमरी और दूसरी समस्याओं में देश विश्व के एक सैकड़ा देशों से आगे निकल गया है। सामाजिक असमानता और दिखावे ने हमारे समाज में जहर घोला है। धार्मिक उन्मांद सिर चढ़कर बोल रहा है। सांप्रदायिक आधार पर हमले और राजकीय कार्यवाही होती है। सेना से लेकर घरों तक में वैमनस्यता पनपी है। अदालतें न्याय का मंदिर बनने के बजाय सत्ता की पालक की तरह काम कर रही हैं।

कोविड-19 के कारण वैश्विक स्तर पर हालात खराब हुए हैं मगर हमारे देश में सबसे बुरी गति हुई है। जहां देश की जीडीपी -23.9 फीसदी गिरी है, वहीं अंबानी जैसे कारपोरेट घरानों की 30 फीसदी बढ़ी है। हमारी सरकार ने आर्थिक तबाही से देश को बचाने के लिए निम्न-मध्यम वर्ग के व्यापार-उद्योग के बजाय कारपोरेट और बड़े उद्योगों को मदद दी है। धन की कमी को पूरा करने के लिए पिछली सरकारों में हमारे टैक्स के रुपयों से बनीं, सार्वजनिक कंपनियों को कारपोरेट घरानों को कौड़ियों के भाव सौंपा जा रहा है। अब सार्वजनिक संपत्तियों और संसाधनों को भी बेचा जाने लगा है। देश की अर्थव्यवस्था पिछले कुछ सालों में गलत नीतियों के चलते जर्जर हो चुकी थी, जो कोविड-19 की महामारी में भरभरा कर गिर पड़ी है। हमारी बैंकों ने देश के रोजगार की रीढ़ एमएसएमई सेक्टर को मदद नहीं दी मगर कारपोरेट और बड़े उद्योगों को करीब 50 लाख करोड़ रुपये का कर्ज दे दिया। इसमें 70 फीसदी कर्ज अब एनपीए में तब्दील हो रहा है। नतीजतन तमाम बैंक बंद करके उनका मर्जर कर दिया गया और जो बचे हैं, उनमें भी तकरीबन 50 हजार कर्मचारियों-अधिकारियों को वीआरएस देने की तैयारी कर ली गई है। राज्यों को जीएसटी में उनका हिस्सा नहीं दिया जा रहा है। खाली पड़े पदों को न भरने तथा नये पद न बनाने का भी आदेश दिया जा चुका है। जिससे बेरोजगारी एतिहासिक रूप से सबसे अधिक हो गई है। उपभोक्ताओं की खरीद क्षमता नहीं रही। लोग डर के माहौल में जी रहे हैं। निजी क्षेत्र में लगातार छंटनी हो रही है।

ऐसे वक्त में भारतीय मीडिया ने निष्पक्षता और जनहित के मुद्दों पर चर्चा करना बंद कर दिया है। वह फिल्मी स्टोरी की तरह कभी रिया-सुशांत करता है तो कभी कंगना जैसी अदाकारों पर फिदा होता है। वह भारतीय सीमाओं में घुसती चीनी, नेपाली और पाकिस्तानी सेना पर चर्चा नहीं करता बल्कि गढ़ी गई कहानियां सुनाता है। ईडी, सीबीआई, एनसीबी, पुलिस और आयकर विभाग देश के अहम काम छोड़कर इस ड्रामें का हिस्सा बनें हैं। हमारे सैनिक रोजाना मर रहे हैं और हम खुद में मस्त हैं। हमारे युवा अपना वजूद खो रहे हैं। भविष्य की पीढ़ी को ज्ञान-तर्क विहीन शिक्षा देने का क्रम जारी है। शिक्षा और शिक्षण संस्थान इतने महंगे और एजेंडे पर चल रहे हैं कि आमजन अपने बच्चों को पढ़ाने की स्थिति में ही नहीं रह जाएगा। आर्थिक तबाही में वह बच्चों को पढ़ाने के बजाय उनसे कमाई करने के तरीके अपनाने को मजबूर होगा। वक्त रहते हम सभी नहीं चेते और सरकार ने वास्तविक समस्या को खत्म करके तबाही रोकने पर काम नहीं किया, तो तय है कि देश का भविष्य अंधकार में होगा। सरकारों में बैठे नेताओं को अपने स्वार्थ छोड़कर लोककल्याण की तरफ सोचने और करने की जरूरत है।

जयहिंद!  

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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक मल्टीमीडिया हैं)  

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