Story of India-China war, a major’s speech: भारत-चीन युद्ध की कहानी, एक मेजर की जुबानी

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भारत- चीन के बीच सीमा विवाद का फिलहाल कोई हल निकलता नहीं दिख रहा है। चालबाज चीन हर रोज नए हथकण्डे अपना रहा है। अभी गलवान घाटी को लेकर विवाद नहीं थम रहा है। देश के जांबाज 20 सैनिकों की शहादत के बाद भी चीन अपनी हिमाकत से बाज नहीं आ रहा है। बॉर्डर पर तनाव बना है और युद्ध के हालात हैं। दोनों तरफ फौज और अत्यधिक हथियारों का जमावडा है।
सीमा पर तनाव कम करने के लिए भारत- चीन सैन्य अफसरों की कई चक्र की मीटिंग खत्म होने के बाद भी फिलहाल कोई हल निकलता नहीं दिख रहा। चीनी फौज का उस झील के पास भी जमावडा दिखा है जहां भारतीय सैनिक गश्त करते थे। चीनी फौज ने नक्शा भी बनाया है।
चीन अपनी मक्कारी से बाज नहीं आ रहा है। इस वक्त पूरी दुनिया की निगाह भारत- चीन सीमा विवाद पर है। ग्लोबल स्तर पर कोरोना संक्रमण को लेकर चीन को पूरी  दुनिया शक की निगाह से देख रहीं है। अमेरिका उस पर शिकंजा कस रहा है। जिसकी वजह से चालबाज चीन दुनिया का ध्यान बंटाने के लिए सीमा विवाद का हौवा खड़ा कर दिया है। 1962 में भारत- चीन के बीच युद्ध लड़ा गया था।
इस दौरान भारतीय फौज ने बड़ी बहादुरी दिखाई थीं। उस दौरान राजपूत रेजीमेंट के सेकंड लेफ्टिनेंट रहे मेजर ओंकारनाथ दुबे ने सीने में 16 गोलियां खाकर भी दुश्मन फौज को जमीन दिखाई थीं। हालांकि कुछ खामियों की वजह से हम यह युद्ध तो जीत नहीं पाए, लेकिन चीनी फौज को भारतीय सेना ने उसकी औकात बता दिया था। इस लेख के माध्यम से मौत को जीत कर निकले उसी योद्धा की कहानी हम आपको बताएंगे। राजपूत रेजीमेंट के सेकंड लेफ्टिनेंट मेजर रहे ओंकारनाथ दुबे के जेहन में 58 साल पूर्व हुई उस जंग की यादें आज भी ताजा हैं। 21 साल की उम्र में इस जांबाज ने सीने में 16 गोलियां खाकर दुश्मन फौज के हौसले पस्त कर दिए थे।
युद्ध में घायल होने की वजह से उन्हें समय से पहले सेना ने 1980 में रिटायर कर दिया गया। मेजर के सीने में 1962 के जख्म आज भी हरे हैं। भारत की कुछ गलतियों की वजह से यह लड़ाई जीत कर भी हार गया था। उस दौर में भारतीय सेना की बटालियन सिर्फ़ एक- एक एलएमजी और थ्री- नॉट- थ्री के भरोसे शत्रु की फौज से लड़ती थी। उत्तर प्रदेश के भदोही जिले के औराई तहसील के विक्रमपुर गांव निवासी मेजर ओंकारनाथ दुब देश की सेना के गौरव हैं। सेना की नई पीढ़ी के लिए वह मिसाल हैं। मेजर सेना की उस विंग का नेतृत्व करते थे जो आधुनिक इंसास रायफल की जगह दुश्मन फौज का थ्री- नॉट- थ्री से मुकाबला करती थी। आज की तारीख में भारतीय सेना 1962 में इतनी मजबूर नहीं थीं। उस दौर में जगुवार और राफेल, बोफोर्स, अर्जुन जैसेपैंटन टैंक और आधुनिक सैन्य युद्धपोत एवं विमान नहीं थे। 1962 के भारत- चीन युद्ध में मेजर ने अहम भूमिका निभाई थी। यह युद्ध अरुणाचल के नामचाकू घाटी में लड़ा गया था। इस युद्ध को आॅपरेशन ओंकार के नाम से भी जाना जाता है। सेकंड लेफ्टिनेंट रहे मेजर ओंकार नाथ दुबे बताते हैं कि उस दौरान भारतीय सैनिकों के पास आज की तरह आधुनिक युद्धपोत, टैंक, लड़ाकू विमान, इंसास रायफल और आधुनिक संचार की सुविधा नहीं थी। सिर्फ़ थ्री- नॉट- थ्री रायफल के भरोसे सेना युद्ध लड़ रहीं थी। लद्दाख में नामचाकू की लड़ाई सबसे भीषण थी। दोनों तरफ से काफी सैनिक हताहत हुए थे। नामचाकू नदी का पानी खून से लाल हो गया था। यह लड़ाई में 20 अक्टूबर को शुरू हुई थी। यह जंग 72 घंटे तक चली थी।  भारतीय फौज ने चार हजार चीनी सैनिकों को ढेर कर दिया था। मेजर खुद अंत तक चीनी सेना से एक एलएमजी और थ्री- नाट- थ्री जैसे साधारण हथियार से लोहा ले रहे थे। मेजर की युद्ध के दौरान जब गोलियां खत्म हो गई तो 300 की संख्या में चीनी फौज के जवान उन पर ताबड़तोड़ गोलियां दाग कर घायल कर दिया। मेजर बेहोशी की हालत में 24 घंटे नामचाकू घाटी में पड़े रहे। बाद में चीनी फौज ने हवलदार रोशन सिंह और उन्हें दुश्मन सेना ने बंदी बना लिया। युद्ध समझौतों के तहत भारत- चीन में बंदी बनाए गए सैनिकों की अदला- बदली के बाद रिहा किया गया। इस दौरान मेजर दुबे सीने 16 गोलियां लगने से बाद भी नामकाचू घाटी में वीर की तरह चीनी फौज से पड़े रहे, कुछ देर के बाद बेहोश हो गए। मेजर के अनुसार गोलियां दाहिने तरफ लगी थी इसलिए वह बच गए। मीडिया में छपे बयानों में मेजर के दावों को सच माने तो 1962 और 2020 की हालात में बहुत बड़ा फासला हो चुका है। उस दौरान उनके पास न समुचित हथियार थे और ना ही आज की तरह मजबूत हालात। आज का भारत 1962 में होता तो भारतीय फौज चीनी सैनिकों को बीजिंग और शंघाई तक खदेड़ देती। युद्ध के दौरान रसद और गोलियां खत्म हो गई थीं।
जिस जहाज से रसद और युद्ध का सामन भेजा गया था, उस पायलट ने बड़ी गलती कर दिया। रसद भारतीय इलाके में जबकि हथियार दूसरे हिस्से में गिरा दिया। जिसकी वजह से यह जंग हारनी पड़ी थीं। मेजर ने बताया कि चीन के साथ अरुणाचल की  नामकाचू वैली की इस जंग को जेपी डालवी की पुस्तक ‘हिमालयन ब्लंडर’ और ‘रिवर आफ साइलेंस’ में इस लड़ाई को विस्तार से लिखा गया है। मेजर 1962 के साथ 1965 और वर्ष 1971 में पाकिस्तान से हुई जंग में भी दुश्मनों के छक्के छुड़ा चुके हैं। मेजर के अनुसार भारत- चीन युद्ध में चीन ने एक जवान पर पांच का सिद्धांत रखकर युद्ध लड़ रहा था। हाल के दिनों में गालवान घाटी में भी उसने यहीं तरीका अपनाया।
दुश्मन फौज के एक सैनिक पर दस की रणनीति बनाई। जबकि भारतीय फौज आज भी एक पर तीन जवान का टारगेट रखती है। 1962 में भारतीय सेना के शौर्य और पराक्रम से चीनी सेना डर गया था। जिसकी वजह से पांच- पांच जवानों का झुंड भारत की सेना पर हमला करता था। इसके अलावा भारी तादात में चीनी हमला बोलते थे, लेकिन भारत के जांबाज जवान उन्हें जमीन दिखाते थे।
82 वर्षीय मेजर ओंकारनाथ दुबे ने भारतीय सैनिकों को संदेश दिया है कि खून की अंतिम  बूंद तक मेरी तरह गोली भलें सीने पर खा लेना, लेकिन भारत की एक इंच जमीन पर लाल सलाम को कब्जा मत होने देना।  भारतीय तिरंगा बीजिंग पर अवश्य लहराना।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। ये इनके निजी विचार हैं।)

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