Statesman builds the nation! स्टेट्समैन राष्ट्र बनाता है!

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राष्ट्रीय सांख्यकी मंत्रालय के मुताबिक 2020-21 के वित्तीय वर्ष में जीडीपी 135 लाख करोड़ रही, जो पिछले साल 145 लाख करोड़ थी। इस वक्त हमारे देश की जीडीपी -7.3 फीसदी पर है, जो 1947 के बाद पहली बार इतनी बदतर हाल में पहुंची है। साफ है कि हमारी अर्थव्यवस्था पटरी से उतर चुकी है। हमारा राजकोषीय घाटा भी 9.3 फीसदी हो गया है। यह तब है, जबकि दो दर्जन सरकारी कंपनियों और निगमों को सरकार ने निजी हाथों में दे दिया है। हम युवा देश होने का दम भरते हैं, मगर देश की बेरोजगारी दर 12 फीसदी पहुंच गई है। कोरोना महामारी में उद्योग व्यवसाय के ठप पड़ जाने का असर यह रहा कि इस साल दो करोड़ से अधिक लोगों के रोजगार छिन गये। पिछले साल 10 करोड़ से अधिक लोग बेरोजगार हो गये थे। संभलने की नौबत आती, उसके पहले ही व्यवस्था ठप हो गई। इन हालात से दुखी लोग आत्महत्या को विवश हो रहे हैं, इनमें प्रोफेशनल्स की संख्या काफी है। पिछले सालों में आत्महत्या दर में करीब चार फीसदी का इजाफा हुआ है। कृषि कानूनों में बदलाव से भी नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। औसतन 80 किसान हर माह आत्महत्या कर रहे हैं। अपराध का आंकड़ा भी तेजी से बढ़ रहा है।

महामारी से पहले के दौर में औद्योगिक विकास सही दिशा में था, मगर अब वही नकारात्मक है। इसने बेरोजगारी को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है। सरकारी सेवाओं के लाखों पद खाली पड़े हुए हैं, जिनमें भर्तियां नहीं हो रही हैं। दूसरी तरफ निजी क्षेत्रों ने भी कर्मचारियों के हितों से खुद को दूर कर लिया है। सभी तरह के उद्योगों में छंटनी का दौर जारी है। वहीं देश में थोक महंगाई दर अब तक के सबसे बड़े आंकड़े को छू चुकी है। केंद्र सरकार के आंकड़े बताते हैं कि इस वक्त यह 10.49 फीसदी की दर से बढ़ रही है। पेट्रोलियम उत्पादों के दाम भी ऐतिहासिक रूप से उच्चतम स्तर पर हैं, जबकि उसकी तुलना में कच्चे तेल की कीमत बहुत नहीं बढ़ी है। इनको नियंत्रित करने के लिए फिलहाल कोई नीति और ठोस कदम न होने से हालात बद से बदतर हैं। खाद्य पदार्थों के दामों में भी बेतहाशा वृद्धि देखने को मिल रही है। सरकारी आंकड़ों की मानें तो कोरोना से अब तक साढ़े तीन लाख लोगों की मृत्यु हो चुकी है। गैर सरकारी अनुमान और सर्वे के मुताबिक मौत का आंकड़ा 40 लाख के पार है। कोरोना संक्रमित होकर अपनी जान गंवाने वालों से लेकर इलाज करवाने वालों तक ने जीवन बचाने के लिए अपना बहुत कुछ कुर्बान कर दिया है। हालात यह हो गये कि किसी ने अपना मकान बेचा, तो किसी ने गहने। किसी ने तमाम कर्ज उठाये, तो किसी ने अस्मत तक बेच दी।

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में हालात से दुखी होकर या अपने भविष्य की चिंता में भारत की नागरिकता छोड़कर, अन्य दूसरे देशों की नागरिकता लेने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है। मौजूदा वक्त में न तो योग्यतानुसार रोजगार मिल पा रहे हैं और न ही भरपेट भोजन। ऐसे में अपराध बढ़ना स्वाभाविक है। उद्योग धंधे निराशा में डूबे हैं। अर्थव्यवस्था नकारात्मक हो रही है। कर्ज के बोझ में दबे उद्यमी खुद को दिवालिया घोषित कराने की लाइन में खड़े हैं, तो कुछ भाग रहे हैं। इलाज के नाम पर निजी अस्पताल लूट का अड्डा बन गये हैं। सरकारी अस्पतालों में जरूरी सुविधाओं और दवाओं का अभाव है। लोग आक्सीजन, बेड और दवाओं के अभाव में घर से लेकर अस्पताल के गेट तक मरते दिखे हैं। अस्पतालों से लेकर श्मशान घाट तक लंबी लाइने और भर्ती कराने से लेकर अंतिम संस्कार तक के लिए सिफारिश के साथ ही अवैध वसूली खुले आम हुई है। आपदा में अवसर खोजते लोगों ने जहां मौका मिला, मरते-बिलखते लोगों से भी कमाई कर ली। इस मुनाफाखोरी की लत सरकार में भी लगी। उसने वैक्सीन से लेकर दूसरी अन्य व्यवस्थाओं में भी कमाई का जरिया निकाल लिया। संविधान के कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से सभी ने पल्ला झाड़ लिया। जिम्मेदारी से बचने के लिए हमारे चुने गये प्रतिनिधियों से लेकर सत्तानशीनों तक ने बहानों की चादर ओढ़ ली। जिस किसी ने सेवा करने के लिए हाथ आगे बढ़ाया, उसके सामने कानूनी दिक्कतें खड़ी की गईं। सच दिखाने पर मुकदमें दर्ज किये गये।

इन हालात में देश को एक राजनेता की रहनुमाई की जरूरत थी, मगर वह सभी चुनाव में व्यस्त रहे। धार्मिक तुष्टीकरण के लिए महामारी से आंख फेर ली गई। महाकुंभ जैसे तमाम बड़े आयोजनों को अनुमति दे दी गई। पंचायत चुनावों ने कोरोना को गांव-गांव तक पहुंचा दिया। जहां न प्राथमिक स्वास्थ सुविधाएं थीं और न संसाधन। मरने वालों ने भी इसे विधाता की नियति मान ली। कई परिवार पुरुष विहीन हो गये, तो कई परिवारों में कोई नहीं बचा। अदालतों से लेकर वैश्विक मीडिया तक ने, इस पर सरकार और उसके जिम्मेदारों को घेरा, मगर उनकी आंखों में बेशर्मी के सिवाय कुछ नहीं दिखा। हमें याद है कि सभी विपक्षी दलों ने पिछले साल बिहार चुनाव और फिर इस साल बंगाल सहित अन्य राज्यों के चुनाव को टालने की मांग चुनाव आयोग से की थी, मगर उसने इसे अनसुना कर दिया। आयोग, सरकार की हां में हां मिलाता दिखा। उधर, अदालतों ने भी तब मुंह खोला, जब उनके जजों को अपने जीवन के खतरे का आभास हुआ। सरकारों ने इस दौरान उनकी नीतियों पर अपने खिलाफ उठने वाली आवाज और आलोचनाओं को कुचलने में ताकत लगा दी। केंद्र सरकार ने पेंशन नीति में बदलाव करते हुए पूर्व सैन्य कर्मियों-अधिकारियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाने की अधिसूचना जारी कर दी। देश के लिए अपना जीवन कुर्बान करने वालों को यह सजा पहली बार दी गई। कई पत्रकारों और नेताओं पर देशद्रोह के मुकदमें दर्ज कर लिये गये। सोशल मीडिया और मुख्य धारा के मीडिया के मुंह पर ताला लगाने के नियम बना दिये गये।

हमें याद आता है कि जब देश आजाद हुआ, तब पंडित जवाहर लाल नेहरू ने एक राजनेता के तौर पर देश को न सिर्फ संभाला बल्कि आगे बढ़ाया था। उन्होंने उस वक्त की तीन बड़ी महामारियों से देश को निजात दिलाने के साथ ही पीड़ितों को खड़े होने में मदद भी की थी। यह तब हुआ, जब देश आंतरिक और बाहरी आक्रमणों का शिकार था। कई युद्ध हमारे देश पर थोपे गये। उनके बाद लाल बहादुर शास्त्री ने उनकी नीति को आगे बढ़ाया, हालांकि वह सिर्फ डेढ़ साल ही रहे। राजनीतिक और बाहरी शक्तियों के हमलों के बीच इंदिरा गांधी ने देश को एक सशक्त राष्ट्र के रूप में स्थापित किया। उन्होंने पड़ोसी देश पाकिस्तान के दो टुकड़े करके भारत को सदैव के लिए सुरक्षित बना दिया। उसका नतीजा है कि आज तक कोई अन्य देश हम पर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं जुटा सका। युवा प्रधानमंत्री के तौर पर राजीव गांधी ने युवाओं को अधिक रोजगार के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी तथा आईटी क्रांति को अपनाया। अटल बिहारी वाजपेई ने वैश्विक अर्थ नीतियों को अपनाते हुए देश को मजबूत किया। कारगिल में पाकिस्तान द्वारा कब्जाये गये भूखंड को मुक्त कराया। उनके बाद डॉ. मनमोहन सिंह सरकार ने अपने आर्थिक सुधारों के जरिए देश को विकास के पथ पर तेजी से दौड़ाया। भारत की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ किया।

नरेंद्र मोदी ने 2014 में जब देश की सत्ता संभाली, तो वैसे ही राजनेता की छवि उनमें देखी गई। उन्होंने जीएसटी, नोटबंदी और व्यवस्था सुधार के लिए जब काम शुरू किया, तो जनता ने मनभर उन्हें समर्थन दिया। कोरोना महामारी के पहले दौर में भी जनता ने उनको भरपूर सहयोग दिया। इन सब के बाद भी देश की सीमाओं से लेकर आंतरिक दशा सुधरने के बजाय बिगड़ी हैं। ऐसे में देश उनसे एक राजनेता की तरह “सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय”, की नीति पर देश का नेतृत्व करने की उम्मीद करता है। अगर वक्त रहते इस नीति को सच्चे मन से अपनाते हुए वैश्विक अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों की राय से हमने नीतियां नहीं बनाईं, तो हम अपना बचाखुचा अस्तित्व भी खो देंगे। सरकार को आलोचनाओं को सकारात्मक अंदाज में लेना चाहिए। उसे उठते सवालों का जवाब भी रचनात्मक ढंग से देना चाहिए, न कि आवाज कुचलकर। वजह, राष्ट्र का निर्माण नेतृत्व ही करता है और नेतृत्व में लोकतांत्रिक राजनेता दिखना चाहिए, न कि कुछ और!

जय हिंद!

(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं।)

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