..So the need for executive is over! तो कार्यपालिकाओं की जरूरत ही खत्म हो गई है!

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बेटियां खुशी से उछल पड़ीं क्योंकि पिछले सप्ताह उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने वह हक दे दिया, जो हाईकोर्ट ने 10 साल पहले दिया था मगर सरकार कुंडली मारे बैठी थी। बेटियों को सेना में कमीशन दिये जाने का फैसला सर्वोच्च अदालत ने सुनाया। जस्टिस अरुण मिश्र की टिप्पणी कि इस देश में कोई कानून ही नहीं बचा है। बेहतर है, इस देश में रहा ही न जाए। इस सप्ताह एक बार फिर शाहीनबाग के आंदोलन से बंद पड़ी सड़क को खुलवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को दखल देनी पड़ी। अदालत ने वार्ताकार नियुक्त किये। आपको याद होगा कि जब दिल्ली एनसीआर की आबोहवा खराब हुई तब भी अदालत ने ही सरकार को पर्यावरण सुधारने के लिए सुझाव और निर्देश दिये। खराब सड़कों को दुरुस्त करने की बात हो या फिर शुद्ध जल की, अदालत की सख्ती से ही कुछ हो पाया। सफाई कर्मियों की हड़ताल हो या रोडवेज कर्मियों की, अदालतें समझौते कराती घूम रही हैं। तमाम गंभीर अपराधों के मामले में भी अदालत ने ही आदेश दिये, तब अपराधियों पर कार्रवाई हो सकी। कई मामलों में तो अदालत ने ही कानून बनाने तक के लिए सरकार को निर्देश दिया। कार्यपालिका अपने काम छोड़कर बाकी सब कुछ कर रही है। बस वही नहीं कर रही जो करना उसकी जिम्मेदारी है।
हम संवैधानिक लोकतांत्रिक गणराज्य के नागरिक हैं। संविधान में नागरिकों और गणराज्य के भूभाग की साम्यक समृद्धि के लिए काम करने की व्यवस्था है। इसके लिए तीन संस्थाएं बनाई गई हैं, जिनमें एक विधायिका, दूसरी कार्यपालिका और तीसरी न्यायपालिका। तीनों को अपने कार्यों के लिए विस्तृत अधिकार मिले हैं, जिससे सभी बेहतर तरीके से अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सके। किसी दूसरी संस्था के कार्य में दखल देने की जरूरत न पड़े। इस वक्त जो हो रहा है वह तीनों संस्थाओं की गरिमा और कर्तव्य के विपरीत है। जो काम कार्यपालिका के हैं, वह अदालतें कर रही हैं। जो अदालतों को तेजी से करना चाहिए वह कार्यपालिका के भार में दबे पड़े हैं। संविधान में सुप्रीम कोर्ट को नागरिकों के मूल अधिकारों और संवैधानिक ढांचे का संरक्षक बनाया गया है मगर वही सबसे ज्यादा खराब हाल में हैं। प्रदर्शन करते नागरिकों की पुलिस तंत्र हत्या कर देता है मगर सुप्रीम कोर्ट खामोशी से सब देखता रह जाता है। वहीं जब कार्यपालिका धरने और हड़ताल खत्म नहीं करा पाता तो अदालत यह काम भी करने लग जाती है। जब इंसाफ के लिए कोई धक्के खाता है, तो अदालतों में तारीख पर तारीख मिलती है क्योंकि वह दूसरे के कामों में व्यस्त है। इंसाफ अगर मिलता भी है तो इतनी देरी से कि वह अपना औचित्य खो देता है।
छह माह पहले संवैधानिक बारीकियों का फायदा उठा केंद्र सरकार ने जम्मू कश्मीर को अनुच्छेद 370 में मिले विशेषाधिकार छीन लिये। राज्य को दो टुकड़े करके केंद्र शासित सूबे में तब्दील कर दिया। इसके खिलाफ याचिका दाखिल हुई मगर अदालत ने कोई तत्परता नहीं दिखाई। इसके चलते कश्मीर में पिछले छह महीने से हालात बदतर हैं। वहां की आवाम और नेता नजरबंदी में हैं। कश्मीरियों की आवाज बुलंद करने वालों को एक-एक कर जेल में डाला जा रहा है। जब इस ज्यादती के खिलाफ याचिका दाखिल होती है तो मूल अधिकारों की संरक्षक अदालत कहती है कि जल्दी क्या है? वही अदालत लंबित मुकदमें का जल्द फैसला कर विवाद को खत्म करने के बजाय सरकार के काम करती दिखाई देती है। संसद ने सांप्रदायिक आधार पर नागरिकता अधिनियम में जो संशोधन किया, उसके खिलाफ देश-विदेश में प्रदर्शन हो रहे हैं। नागरिकों में नफरत और रोष दोनों पनप रहा है मगर सरकार उनकी बात तक सुनना नहीं चाहती है। उधर, सुप्रीम कोर्ट इस संशोधन के खिलाफ दाखिल याचिका पर सुनवाई के लिए संवैधानिक पीठ का गठन भी नहीं कर पाई है। उसे इसके लिए जल्दी नहीं है। जामिया मिलिया हो या अलीगढ़ विश्वविद्यालय, दोनों में वर्दी वाले गुंडे की तरह पुलिस ने जो किया, उस पर अदालतों की चुप्पी सवालों में है। जेएनयू में विद्यार्थियों पर और गार्गी कालेज में बेटियों की आबरू पर हमला होता है तो सरकार और अदालतं धृतराष्ट्र बन जाते हैं।
हमें दो साल पहले का एक वाकया याद आता है, जब तत्कालीन प्रधान न्यायमूर्ति दीपक मिश्र ने कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद की तल्खी पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि संवैधानिक व्यवस्था में एक-दूसरे के लिए सम्मान होना चाहिए। कोई भी शाखा सर्वोच्चता का दावा नहीं कर सकती है। सभी अपना काम ईमानदारी और पूरी दक्षता से करें, तभी संस्थाओं का सम्मान रहेगा। इस वक्त जो देखने को मिल रहा है, उसमें यही तथ्य नदारत है। सड़कें टूटी हैं और लोग खड्ढों के कारण हादसों का शिकार हो रहे हैं। अदालतों को उस पर संज्ञान लेना पड़ रहा है। सड़कों और बाजारों में फड़ी माफिया काबिज हैं मगर कार्यपालिका तमाशबीन है। छोटे-छोटे मामलों में भी अफसरशाही हावी है। नागरिकों को अपने वाजिब कामों के लिए भी अदालतों में धक्के खाने पड़ रहे हैं। नौकरियों में भर्ती के मामले हों या अनुकंपा के आधार पर समायोजन, बगैर अदालत गये कुछ नहीं हो पा रहा। भूमि की क्षतिपूर्ति राशि हो या उसके बदले में दूसरी जगह देने का मामला, बगैर अदालत कोई अधिकारी कुछ नहीं करना चाहता है। कार्यपालिका सिर्फ वहीं तत्परता से काम करती है, जहां उसे निजी फायदा दिखता है। शायद यही कारण है कि हाल के दिनों में जस्टिस अरुण मिश्रा ने नाराजगी जताते हुए कहा कि क्या सरकारी डेस्क अफसर सुप्रीम कोर्ट से बढ़कर है, जिसने हमारे आदेश पर रोक लगा दी? क्या हम सुप्रीम कोर्ट को बंद कर दें? क्या देश में कोई कानून बचा है? क्या ये मनी पॉवर नहीं है? देश की सर्वोच्च अदालत की इस टिप्पणी से स्पष्ट है कि कार्यपालिका अपने ही काम नहीं कर रही और उसे इस पर शर्म भी नहीं।
इस वक्त देश गंभीर चुनौतियों से जूझ रहा है मगर हुक्मरां व्यक्तिगत हितों को साधने में लगे हैं। रोजगार से लेकर आर्थिक हालात तक सब बद से बदतर हो रहे हैं। शिक्षा महंगी तो हो गई मगर गुणवत्ता छींड़ हुई है। नगरों का ढांचा बिगड़ रहा है। नागरिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पा रही है। न शुद्ध पानी मिल रहा और न हवा। सड़कें हिचकोले खा रही हैं और सरकार टोल टैक्स सहित अन्य सभी कर बढ़ाती जा रही है। स्वच्छता और किसानों के हित के नाम पर जनता “सेस” भर रही है मगर जमीनी कुछ नहीं दिख रहा। हम विदेशी व्यापारियों की आवभगत में लगे हैं मगर अपने नागरिकों के हितों को नकार रहे हैं। न महिलाएं सुरक्षित हैं और न युवाओं का भविष्य। कार्यपालिका इन सभी को हल करने के बजाय हिंदुस्तान-पाकिस्तान, हिंदू-मुस्लिम की बेजा बहस में उलझी है। अदालतें उसके काम को अंजाम दे रही हैं। विधायिकायें सरल और सुलभ शासन व्यवस्था स्थापित करने के लिए कानून बनाने के बजाय विवाद खड़े कर रही हैं। जन प्रतिनिधि सिर्फ निजी और सियासी एजेंडे को पूरा करने में लगे हैं। उनके लिए जनहित प्राथमिकता नहीं है। यही कारण है कि हर काम को आगे बढ़ाने में कार्यपालिका नहीं, न्यायपालिका को आगे आना पड़ रहा है। इससे सवाल उठता है कि क्या कार्यपालिका की देश में आवश्यकता ही खत्म हो गई है? उम्मीद करते हैं कि तीनों संस्थायें अपने दायित्व को समझेंगी और बगैर किसी दूसरे के काम में हस्तक्षेप किये, नागरिकों की अपेक्षाओं को पूरा करेंगी।
-जयहिंद

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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)

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