Shouldn’t health be seen as a fundamental right? क्या स्वास्थ्य को एक मौलिक अधिकार के रूप में नहीं देखना चाहिए ? 

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NANCHANG, Feb. 2, 2020 (Xinhua) -- Workers make protective masks at the workshop of a company in Jinxian County, east China's Jiangxi Province, Feb. 1, 2020. To help fight the outbreak of pneumonia caused by novel coronavirus, workers of many medical material companies rushed to work ahead of schedule to make protective equipment. (Xinhua/Wan Xiang/IANS)

 आपदा प्रबंधन कानून, 2005 की धारा 12 (तीन) के तहत प्रत्येक परिवार चार लाख रुपये तक मुआवजा का हकदार है, जिसके सदस्य की कोरोना वायरस से मौत हुई।”

यह कहना है सुप्रीम कोर्ट में महामारी अधिनियम के अंतर्गत दायर एक याचिका के याचिकाकर्ता का। इसी तरह की एक अन्य याचिका में कहा गया है कि,

 कोविड-19 के कारण बड़ी संख्या में लोगों की मौत हुई और मृत्यु प्रमाणपत्र जारी करने की जरूरत है क्योंकि इसी के जरिए प्रभावित परिवार कानून की धारा 12 (तीन) के तहत मुआवजे का दावा कर सकते हैं।”

इससे पहले 11 जून को केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि

 कोविड-19 से जान गंवाने वाले लोगों के परिवारों को मुआवजे के लिए याचिकाओं में किए गए अनुरोध सही हैं,  और सरकार इस पर विचार कर रही है।”

सुप्रीम कोर्ट ने कोविड-19 से मरने वालों के परिवारों को चार लाख रुपये की अनुग्रह राशि देने के अनुरोध वाली दो याचिकाओं पर 24 मई को केंद्र से जवाब मांगा था और कहा था कि,

 वायरस की चपेट में आने वालों के लिए मृत्यु प्रमाण पत्र जारी करने के संबंध में एक समान नीति होनी चाहिए।”

सरकार ने जो हलफनामा दिया है, उसमे कहा है कि,

 मुआवजा देने के लिए सीमित संसाधनों के इस्तेमाल से दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम होंगे और महामारी से निपटने और स्वास्थ्य खर्च पर असर पड़ सकता है तथा लाभ की तुलना में नुकसान ज्यादा होगा। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण लेकिन महत्वपूर्ण तथ्य है कि सरकारों के संसाधनों की सीमाएं हैं और मुआवजे के माध्यम से कोई भी अतिरिक्त बोझ अन्य स्वास्थ्य और कल्याणकारी योजनाओं के लिए उपलब्ध धन को कम करेगा। आपदा प्रबंधन कानून, 2005 की धारा 12 के तहत राष्ट्रीय प्राधिकरण, है जिसे अनुग्रह सहायता सहित राहत के न्यूनतम मानकों के लिए दिशा-निर्देशों की सिफारिश करने का अधिकार है और संसद द्वारा पारित कानून के तहत यह काम उसे सौंपा गया है।”

सरकार ने फिलहाल मुआवजा देने से मना कर दिया है क्योंकि उसकी वित्तीय स्थिति ठीक नही है। सरकार की यह आत्मस्वीकृति सच है कि उसकी वित्तीय स्थिति ठीक नही है।

सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाएं और उन पर सरकार के इस स्टैंड से यह स्पष्ट है कि, लोग अपने अधिकारों के प्रति सतर्क और सजग हैं। निश्चित ही कोरोना की पहली लहर और दूसरी लहर, दोनो ने मिल कर भयंकर तबाही मचाई औऱ इससे न केवल, जन स्वास्थ्य के मोर्चे पर गवर्नेंस का खोखलापन उजागर हुआ बल्कि इसने हमारी आर्थिक नीतियों के कई छिद्र उजागर कर दिए। इस आपदा ने यह भी जता दिया कि, हम एक प्रचारजीवी गवर्नेंस में विश्वास रखते है। जब लोग ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहे थे, रसूखदार लोग भी अस्पतालों में बेड के लिये सड़कों पर अपने मरीज के साथ एम्बुलेंस में अनवरत प्रतीक्षारत थे, तब सरकारे पन्ने भर भर के विज्ञापन देकर यह साबित कर रही थी कि सब कुछ अच्छा है। जब सवाल उठाने वालों को देशद्रोही कहने की परंपरा जानबूझकर रोप दी जाय तो उसमें तानाशाही के ही खर पतवार और कांटे उगेंगे। आज सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा जनस्वास्थ्य है औऱ सबसे उपेक्षित भी। यह मैं नही कह रहा हूँ, बल्कि सरकार के हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े आंकड़े कह रहे हैं। अभी तीसरी लहर आनी है। टीकाकरण की गति से लोग अनजान नही है। हम सब एक मिथ्या इश्तहारों के युग मे कीचड़ में पांव धँसाये, दूर एक खूबसूरत पर अप्राप्य चांद देखने को अभिशप्त हैं।

एक कल्याणकारी राज्य में राज्य का यह  दायित्व होता है कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए परिस्थितियों का निर्माण किया जाए और उनकी निरंतरता को सुनिश्चित किया जाए। जीवन का अधिकार, जो सबसे महत्वपूर्ण मानवाधिकार है और अन्य सभी अधिकार इसी से निःसृत होते  है। पर सास्थ्य एक मौलिक अधिकार के रूप में संविधान में प्राविधित नहीं है, पर जब जीवन के अधिकार की तार्किक व्याख्या कीजियेगा तो स्वास्थ्य, जिस पर जीवन पूरी तरह से निर्भर करता है, उसी अधिकार में समाहित हो जाता है। संविधान में, कहीं भी अलग से, स्वास्थ्य के अधिकार (Right to Health) को एक मौलिक अधिकार के रूप में नहीं रखा गया है, पर अदालतो ने अपने, समय समय पर दिए गए विभिन्न फैसलों से, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 की उदार व्याख्या करते हुए इसके अंतर्गत स्वास्थ्य के अधिकार (Right to Health) को एक मौलिक अधिकार माना है। संविधान का अनुच्छेद 21, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। इसके अतिरिक्त, संविधान के अनेक प्रावधान ऐसे है जो जनस्वास्थ्य को प्रमुखता से व्याख्यायित करते हैं, परंतु, मौलिक अधिकार के रूप में स्वास्थ्य के अधिकार (Right to Health) को असल पहचान, अनुच्छेद 21 ही देता है।

स्वास्थ्य से आशय है, सम्पूर्ण शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और सामाजिक आरोग्यता।  स्वास्थ्य, किसी भी देश के विकास के महत्वपूर्ण मानकों में से एक है। बीमार जनसंख्या, एक स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण कर ही नहीं सकती है। कोरोना काल में दुनियाभर के देश और उसके नागरिक इस खतरे से रूबरू थे और अब भी वे इसकी दूसरी लहर के कहर से जूझ रहे हैं। इस महामारी के कारण, विश्व की अर्थव्यवस्था पर बेहद बुरा प्रभाव पड़ा है और अब भी सुधार की गति बहुत धीमी है। इस महामारी ने मानव जीवन के हर पहलू को अपने प्रभाव में ले लिया है। ऐसी परिस्थितियों में सरकार के नीति नियामकों और जनता को स्वास्थ्य के अधिकार के प्रति जागरूक और सचेत होना चाहिए।अनुच्छेद 21 में निहित जीवन के अधिकार को केवल मानव जीवन के अस्तित्व तक ही सीमित नहीं किया जा सकता है, बल्कि इसका आशय, ‘शरीर माद्यम खलु धर्म साधनम’ से है। स्वास्थ्य है, तो ही जीवन है, अन्यथा शेष, जीवित शव के समान है। जीवन के अधिकार में गरिमा के साथ जीने का अधिकार निहित है। उसमें, जीवन की अन्य आवश्यकताएं, जैसे पर्याप्त पोषण, कपड़े और आश्रय, और विविध रूपों में पढ़ने, लिखने और स्वयं को व्यक्त करने की सुविधा एवं साथी मनुष्यों के साथ घुलना-मिलना और रहना इत्यादि आते हैं। संविधान का अनुच्छेद 47, ‘पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करने के राज्य के कर्तव्य’ (Duty of the State to raise the level of nutrition and the standard of living and to improve public health) के विषय में भी कहता है।

अब कुछ अदालती फैसलों को देखते है, जो स्वास्थ्य को मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखते हैं।

  • विन्सेंट पनिकुर्लान्गारा बनाम भारत संघ एवं अन्य (1987 AIR 990)के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्वास्थ्य के अधिकार को अनुच्छेद 21 के भीतर तलाशने का एक महवपूर्ण उद्यम किया है। अदालत ने इस फ़ैसले में यह कहा है, कि इसे सुनिश्चित करना, राज्य की एक जिम्मेदारी है। इसके लिए, अदालत द्वारा इस मामले में बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ [1984] 3 SCC 161 का जिक्र भी किया गया था।

  • सीईएससी लिमिटेड बनाम सुभाष चन्द्र बोस (1992 AIR 573)के मामले में श्रमिकों के स्वास्थ्य के अधिकार के बारे में टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, स्वास्थ्य के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत किया गया है। इसे न केवल सामाजिक न्याय का एक पहलू माना जाना चाहिए, बल्कि यह राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत के अलावा उन अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के अंतर्गत भी आता है, जिनपर भारत ने हस्ताक्षर किया है।

  • कंज्यूमर एजुकेशन एंड रिसर्च सेण्टर बनाम भारत संघ (1995 AIR 922)के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह माना है, कि संविधान के अनुच्छेद 39 (सी), 41 और 43 को अनुच्छेद 21 के साथ पढ़े जाने पर यह साफ़ हो जाता है कि स्वास्थ्य और चिकित्सा का अधिकार एक मौलिक अधिकार है और व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करने के साथ-साथ के साथ यह कामगार के जीवन को सार्थक और उद्देश्यपूर्ण बनाता है।

यहाँ अदालत ने मुख्य रूप से कामगार/मजदूरों के स्वास्थ्य के अधिकार को मुख्य रूप से रेखांकित किया है। पर यह अदालत द्वारा इस अधिकार को सामान्य रूप से आम लोगों के लिए मौलिक अधिकार के रूप में देखने की शुरुआत मानी जाती है।

  • पश्चिम बंग खेत मजदूर समिति बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य (1996 SCC (4) 37)के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह साफ़ किया गया है कि,

 इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि लोगों को पर्याप्त चिकित्सा सेवाएं प्रदान करना राज्य का संवैधानिक दायित्व है। इस उद्देश्य के लिए जो भी आवश्यक है उसे किया जाना चाहिए।”

अदालत ने इस मामले में यह साफ़ किया था कि

 एक गरीब व्यक्ति को मुफ्त स्वास्थ्य सहायता प्रदान करने के संवैधानिक दायित्व के संदर्भ में, वित्तीय बाधाओं के कारण राज्य उस संबंध में अपने संवैधानिक दायित्व से बच नहीं सकता है। चिकित्सा सेवाओं के लिए धन के आवंटन के मामले में राज्य की संवैधानिक बाध्यता को ध्यान में रखा जाना चाहिए।”

  • पंजाब राज्य बनाम मोहिंदर सिंह चावला (1997, 2 SCC 83)के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह स्पष्ट किया जा चुका है कि स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करना सरकार का एक संवैधानिक दायित्व है।

इसमे कोई दो राय नही है कि, यह राज्य की जिम्मेदारी है कि वह अपने प्राथमिक कर्तव्य के रूप में अपने नागरिकों का बेहतर स्वास्थ्य सुनिश्चित करे। सरकार, सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों को खोलकर इस दायित्व का निर्वाह करती भी है, लेकिन इसे सार्थक बनाने के लिए, यह जरुरी है यह अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र लोगों की पहुँच के भीतर भी होने चाहिए। अदालत का यह भी कहना है कि,

 अस्पतालों और स्वास्थ्य केन्द्रों में प्रतीक्षा सूची की कतार को कम किया जाना चाहिए और यह भी राज्य की जिम्मेदारी है कि वह सर्वोत्तम प्रतिभाओं को इन अस्पतालों और स्वास्थ्य केन्द्रों में नियुक्त करे और प्रभावी योगदान देने के लिए अपने प्रशासन को तैयार करने के लिए सभी सुविधाएं प्रदान करे, क्योंकि यह भी सरकार का कर्तव्य है।

[पंजाब राज्य बनाम राम लुभाया बग्गा (1998) 4 SCC 117)]।

  • एसोसिएशन ऑफ़ मेडिकल सुपरस्पेशलिटी अस्पिरंट्स एवं रेसिडेंट्स बनाम भारत संघ के मामले में (2019) 8 SCC 607में सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह कहा गया था कि

 भारत के संविधान का अनुच्छेद 21, प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के अधिकार की रक्षा के लिए राज्य पर एक दायित्व को लागू करता है। मानव जीवन का संरक्षण इस प्रकार सर्वोपरि है। राज्य द्वारा संचालित सरकारी अस्पताल और उसमें कार्यरत चिकित्सा अधिकारी मानव जीवन के संरक्षण के लिए चिकित्सा सहायता देने के लिए बाध्य हैं।”

  • अश्विनी कुमार बनाम भारत संघ (2019) 2एससीसी 636, के मामले में उच्चतम न्यायालय ने जोर देकर कहा था कि

“राज्य यह सुनिश्चित करने के लिए बाध्य है कि ये मौलिक अधिकार (स्वास्थ्य सम्बन्धी) न केवल संरक्षित हैं बल्कि लागू किए गए हैं और सभी नागरिकों के लिए उपलब्ध हैं।”

  • तेलंगाना हाईकोर्ट ने अपने एक निर्णय गंटा जय कुमार बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य [Writ Petition (PIL) No. 75 of 2020]में यह कहा था कि मेडिकल इमरजेंसी के नाम पर नागरिकों के मौलिक अधिकारों को कुचलने की इजाज़त नहीं दी जा सकती जो उन्हें संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिया गया है।”

यह मामला कोविड 19 की जांच से जुड़ा था, जोकि सरकार द्वारा लोगों को सिर्फ़ चिह्नित सरकारी अस्पतालों से ही कोविड 19 की जांच कराने के सरकारी आदेश से सम्बंधित था। न्यायमूर्ति एम. एस. रामचंद्र राव और न्यायमूर्ति के. लक्ष्मण की खंडपीठ ने इस आदेश को अपने फैसले में ख़ारिज कर दिया।

अदालत ने कहा कि सरकार का यह आदेश, लोगों को जांच के लिए निजी अस्पतालों में जाने की इजाज़त नहीं देता है, जबकि इन अस्पताओं को आईसीएमआर द्वारा जांच करने की अनुमति मिली है। इस मामले में न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के तहत स्वास्थ्य के अधिकार की व्याख्या करते हुए अपने लिए चिकित्सीय देखभाल को चुनने के अधिकार के दायरे का विस्तार किया है। यह अभिनिर्णित किया गया कि,

“इस अधिकार के अंतर्गत, अपनी पसंद की प्रयोगशाला में परीक्षण करने की स्वतंत्रता शामिल है और सरकार उस अधिकार को नहीं ले सकती है।”

अदालत ने ख़ास तौर पर कहा कि,

“राज्य विशेष रूप से व्यक्ति की पसंद को सीमित करके उसे अक्षम नहीं कर सकता है जब एक ऐसी बीमारी की बात आती है जो उसके या उसके परिजनों के जीवन/ स्वास्थ्य को प्रभावित करती है।”

2014 के बाद स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर में कोई सुधार तो नही हुआ, पर सरकार ने बेहद धूमधड़ाके से एक अनोखी स्वास्थ्य योजना का आरंभ किया जिसे आयुष्मान योजना नाम दिया। सितंबर, 2018 में इस योजना को रांची में लॉन्च किया गया था। पर उससे पहले अगस्त में ही ट्रायल के दौरान हरियाणा के करनाल में इस योजना के तहत पैदा हुई बच्ची ‘करिश्मा’ को इस योजना का पहली लाभार्थी माना जाता है। इस योजना के अंतर्गत ग़रीब परिवारों के हर सदस्य का आयुष्मान कार्ड बनता है।  जिसमें अस्पताल में भर्ती होने पर 5 लाख रुपये तक का इलाज मुफ़्त होता है। माना जाता है कि देश की कुल आबादी के आर्थिक रूप से कमज़ोर निचले 40 फ़ीसदी लोगों के लिए यह योजना लायी गयी है, जिंसमे देश भर में 20 हजार से ज़्यादा अस्पतालों में 1000 से ज़्यादा बीमारियों का इलाज मुफ़्त में करवाया जा सकता है। इस योजना के लाभार्थी सामाजिक और आर्थिक स्थिति के आधार पर तय किए जाते हैं, जिसके लिए 2011 में हुई सामाजिक और आर्थिक जनगणना के मानक बनाया गया है।

सरकार की इस महत्वाकांक्षी आयुष्मान भारत योजना के दो हिस्से हैं। एक है उनकी हेल्थ इंश्योरेंस स्कीम जिसे आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (आयुष्मान भारत-PMJAY) और दूसरी है हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर योजना। आयुष्मान भारत-PMJAY देश की ही नहीं, दुनिया की सबसे बड़ी हेल्थ इंश्योरेंस स्कीम है- ऐसा केंद्र सरकार का हमेशा से दावा रहा है। जब कोरोना महामारी भारत में पैर पसार रही थी, तब केंद्र सरकार ने कोविड-19 के मरीज़ों का इलाज भी आयुष्मान योजना के तहत करवाने की घोषणा की थी। बीबीसी की पड़ताल के अनुसार, अब तक इस योजना के तहत तकरीबन 15 करोड़ 88 लाख कार्ड बन चुके हैं, जिनमें ज़्यादातर लोग ग्रामीण इलाकों में रहते है। आयुष्मान भारत के डिप्टी सीईओ विपुल अग्रवाल के मुताबिक़ पिछले एक साल में,

  • आयुष्मान भारत-PMJAYके तहत 14 अप्रैल 2021 तक देश भर में 4 लाख लोगों को मुफ़्त कोरोना इलाज मुहैया करवाया गया।
  • 10लाख कार्ड धारकों का कोरोना टेस्ट भी करवाया गया है.
  • इन सब पर कुल ख़र्च हुआ है महज़12 करोड़ रुपये.

यह जानकारी बीबीसी की वेबसाइट पर छपे एक लेख से है।

देश के हर कोने से कोरोना का इलाज करवाने के लिए मकान, जमीन और गहने बेचने की ना जाने कितने ही कहानियाँ सुनने में आ रही हैं, लेकिन जिनके पास बेचने के लिए कुछ नहीं है, उनके लिए ये कार्ड कितना उपयोगी होगा, इसका बखान करते केंद्र सरकार थकती नहीं थी। पिछले साल मई में इस योजना का बढ़-चढ़ कर बखान करते हुए इसके तहत एक करोड़ लोगों का मुफ़्त इलाज करवाने की उपलब्धि का जश्न भी मनाया गया।

लेकिन इस योजना की खामियां क्या हैं, इसे देखें।

  • योजना में ज़रूरत की तुलना में बहुत कम अस्पताल शामिल हैं और वो भी नज़दीक नहीं है
  • कोविड19के इलाज की सुविधा सभी पैनल में शामिल अस्पतालों में नहीं

आयुष्मान भारत के लाभार्थियों तक अस्पतालों की पूरी सूचना नहीं पहुँच पाई है

  • निजी अस्पतालों में ली जाने वाली रकम योजना की तय सीमा से बहुत अधिक हैं
  • कोविड पर योजना के तहत अब तक केवल12 करोड़ रुपए खर्च हुए।

मार्च की शुरुआत में जब दूसरी लहर का प्रकोप बढ़ रहा था, तब 38 फ़ीसदी नए मामले ऐसे ज़िलों में दर्ज किए जा रहे थे जहाँ 60 फ़ीसदी से अधिक आबादी ग्रामीण इलाक़ों में रहती है. लेकिन अप्रैल के अंत तक ये आंकड़ा बढ़ कर 48 फ़ीसदी तक हो चुका था। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक उनमें से केवल 4 लाख मरीज़ों को ही इस इंश्योरेंस स्कीम के तहत लाभ मिला है। इन 4 लाख लोगों के इलाज पर सरकार ने 12 करोड़ रुपये ख़र्च किए हैं। जबकि, आयुष्मान भारत-PMJAY का सालाना बजट तकरीबन 6400 करोड़ रुपये का है। हेल्थ एक्सपर्ट, ऊमेन सी. कुरियन ने बीबीसी से कहा,

“जब देश में रोजाना औसतन 20-25 हजार PMJAY के अस्पतालों में दाखिले के नए मामले आ रहे हों, तब साल भर में सरकारी स्कीम के तहत केवल 4 लाख मरीज़ों का इलाज, इतनी बड़ी हेल्थ स्कीम के लिए अच्छा कैसे माना जा सकता है ? इस सरकार की दिक़्क़त यही है कि ये डेटा साझा नहीं करते हैं। अब ये 4 लाख मरीज, किस हाल में थे, किस राज्य में कितने थे, ये बताने में भी इन्हें दिक़्क़त है, तो फिर समझा जा सकता है कि ये क्या छुपाना चाह रहे हैं.”

सरकार ने इस आपदा से कुछ सीखा है या अब भी वह सत्ता की ही मोहनिद्रा में है ? इसका उत्तर है सरकार अभी जहां थी वही है। हम एक ऐसी सरकार द्वारा शासित हैं जिसकी न तो कोई स्पष्ट आर्थिक नीति है और न ही कोई स्वास्थ्य नीति है। सरकार ने 2014 के बाद स्वास्थ्य के इंफ्रास्ट्रक्चर को बढ़ाने का कोई काम नही किया। बड़े और सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल ज़रूरी हैं पर बेहद खर्चीले होने के नाते वे हर जिले में खोले नही जा सकते है। पर जनता तक पहुंचता हुआ प्रायमरी हेल्थ सेंटर्स से लेकर जिला अस्पताल तक सरकारी अस्पतालों की यह श्रृंखला समृद्ध औऱ सुगठित की जा सकती है। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि, 2014 के पहले स्वास्थ्य ढांचा बहुत अच्छी तरह से था, बल्कि उदारवाद के बाद 1991 में जब निजी अस्पताल और मेडिकल कॉलेज अस्तित्व में आने लगे तब से सरकारी स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर उपेक्षित होने लगा। कुछ तो, सरकार की उपेक्षा और कुछ सरकारी अस्पतालों की बदइंतजामी और भ्रष्टाचार इसका कारण रहा है।

स्वास्थ्य बीमा एक ज़रूरी कदम है जो लोगो को बीमारी में आर्थिक सम्बल प्रदान करता है, पर इलाज तो अस्पताल में होना है, इलाज डॉक्टर को करना है। जब तक पर्याप्त संख्या में पीएचसी से लेकर स्पेशियलिटी अस्पताल नहीं रहेंगे तो लोग धन लेकर भी ऐसे ही बदहवास बने घूमते रहेंगे जैसे कि अभी मार्च अप्रैल मई में हमने कोरोना की दूसरी लहर के समय देखा है। ज़रूरत है हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर की जो कम से कम पीएचसी से लेकर जिला अस्पताल तक सुगठित और सुलभ हो, हेल्थ प्रोगेशनल की, जिंसमे डॉक्टरों के साथ नर्सेस, फार्मासिस्ट, अन्य पैरामेडिकल स्टाफ हों और ज़रूरत है स्वास्थ्य के सम्बंध में समाज मे जागरूकता फैलाने वाले कम्युनिटी हेल्थ वर्कर्स की। पर यह सब तभी होगा जब सरकार की एक निश्चित और सुविचारित स्वास्थ्य नीति हो और उसके लिये बजट का इंतज़ाम भी किया जाय। निजी अस्पतालों को बेलगाम छोड़ देना भी जनता और जनस्वास्थ्य दोनो के लिये भी घातक है। सरकार को कोई न कोई ऐसा मेकेनिज़्म बनाना पड़ेगा जिससे आरोग्य की बात करने वाले अच्छे और खूबसूरत नामो वाले यह निजी अस्पताल, गरीब और पीड़ित मरीजों के तीमारदारों को लूटने के केंद्र न बन सकें। क्या इस आपदा से सरकार कुछ सीखेगी ? यह भविष्य बताएगा।

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