Shah ki sha, sharad ki maat: शाह की शह, शरद की मात

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चुनाव के नतीजे आने के बाद कुल – 288 विधायकों में सरकार भाजपा -शिवसेना 105-56 सरकार बना सकती थी लेकिन जब शिवसेना पीछे हट गई तो बीजेपी ने अपनी तरफ से कोई कदम नहीं उठाया और उसने सीधा राज्यपाल से जा कर कह दिया कि वो सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है। इसके बाद बीजेपी को लेकर पूरे देश में और महाराष्ट्र में एक सहानुभूति थी कि पार्टी का व्यवहार सम्मानजनक रहा है लेकिन अजित पवार के साथ मिलकर जो बीजेपी ने किया उससे उसने वो सहानुभूति भी खो दी है और प्रतिष्ठा भी खो दी है। अस्ल में सत्ता के अहंकार ने भाजपा के सर्वोच्च जोड़ी को ही भ्रमित नहीं किया अपितु छुट भइये नेता, कार्यकर्ता, समर्थक जिन्हें भक्त कहा जाता है सभी सर पर अहंकार की गठड़ी लिए घूमते नजर आ रहे हैं। मोरल पुलिस, गो सेवक, स्वच्छता सैनिक बने इतने उद्द्यंड हो गए हैं कि अनेक हत्याओं में शक की सुई उनकी तरफ उठती रही है बुलन्दशहर में पुलिस इंस्पेक्टर तक की मॉब लिंचिंग में भी पार्टी के कार्यकतार्ओं का नाम आए।
इसी अहंकार ने उनके सभी साथियों सहयोगियों में शंका पैदा कर दी। अपने अहंकार में डूबी भाजपा का शरद पवार की ताकत को कम आंकना भारी पड़ा विधानसभा चुनाव से पहले शरद पवार के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय का नोटिस आने के बाद जिस तरह उन्होंने पलटवार किया उसके बाद बीजेपी को कम से कम 15.20 सीटों का नुकसान अवश्य हुआ है। शरद पवार की एनसीपी ऐसी पार्टी थी जो महाराष्ट्र में बफर की तरह काम कर रही थी। जब शिवसेना का दबाव होता था तो एनसीपी, बीजेपी मदद के लिए आ जाती थी। 2014 में बहुमत साबित करने की बारी थी तो एनसीपी ने उन्हें समर्थन दिया था। इस चुनाव में वो पुल बीजेपी ने जला दिया। इसका नतीजा ये हुआ कि जब शिवसेना ने साथ छोड़ा तो कोई बीजेपी के साथ नहीं था। 2014 से पहले महाराष्ट्र में शिवसेना भाजपा के बड़े भाई की भूमिका में थी। गठबंधन की सरकार में दोनों बार भाजपा के मुख्यमंत्री बने थे श्री मनोहर जोशी व राणे। यहां यह बताना भी आवश्यक है कि शिवसेना भाजपा के गठबंधन का श्रेय श्री अडवानी को जाता है। अडवाणी की दूरदर्शिता ही थी कि उन्होंने हिंद्त्व आधारित वोट बैंक को एक सूत्र में बांधा। श्री नरेन्द्र मोदी व शाह की जोड़ी ने गुजरात में विपक्ष ही नहीं पार्टी में भी विरोध की आवाज दबाने में सफलता पाई थी। वहां उनके मार्गदर्शक केशु भाई पटेल को आहत होकर पार्टी छोड़नी पड़ी थी। गुजरात दंगो के बाद जब अटल जी राजधर्म न निभाने के लिए मोदी को हटाना चाहते थे तो अडवाणी जी उनके कवच बने थे। प्रधानमन्त्री बनते ही उन्हें नेपक्ष्य में धकेल दिया। तो एक तरफ तो रार्ष्ट्रीय स्तर के नेता शरद पवार को छेड़कर भाजपा ने सोये शेर को जगा दिया उन्हें संभवत श्री चिदम्बरम के साथ हो रहे व्यवहार ने शंकित कर दिया होगा। दूसरी तरफ विधान सभा के नतीजों ने घायल बाघ शिवसेना को मौका दे दिया अपने हिस्से का मांस मांगने को। अगर अमित शाह चाणक्य होते तो वे शिवसेना से समझौता कर लेते और अपनी पारी में ही, निर्दलीय, छोटी पार्टियों, कांग्रेस एनसीपी के विधायक तोड़ लेते। जग जाहिर है कि इस कला में वे उस्ताद माने जाते हैं। लेकिन अहंकार के बादलों ने बुद्धि के आसमान को ढक लिया। अब चलते हैं मराठा सरदार शरद पवार की तरफ वे राजनीति के मेकेवली माने जाने जाते हैं। वे 1978 में मात्र 37 साल की उम्र में अपने राजनीतिक गुरु व संतदादा पाटिल से बगावत करके कांग्रेस से अलग हुए और मुख्यमंत्री बन गए। तब से वे महाराष्ट्र की राजनीति में ध्रुव तारे की तरह स्थापित हैं। कभी कांग्रेस में आए, कभी गए, तीन बार मुख्यमंत्री भी बने। प्रधानमंत्री मोदी न केवल भाजपा के मित्रों, आरएसएस के दिग्गजों की अनदेखी में माहिर हैं अपितु अपने मित्रों को भूलने की आदत भी है उन्हें। शरद पवार से मोदी जी का लंबा नाता रहा है। बकौल मोदी जी अपने मुख्यमंत्री काल में वे शरद पवार से प्रशासनिक और राजनीतिक मसलों पर फोन पर सलाह लेते थे। अभी पिछले सप्ताह पवार से हुई मुलाकात में भी मोदी जी ने पवार की प्रशंसा की तो लगा था कि मुम्बई 2014 का इतिहास दोहराया जाएगा। इस मुलाकात के संदर्भ में मुझे रामचरित मानस का प्रसंग याद आ रहा है। शंकर जी के मना करने पर भी जब नारद ऋषि ने विष्णु लोक जाकर अभिमान सहित कामदेव को हराने की बात बताई तो विष्णु जी ने कहा कि रुख बदन करी वचन मृदु बोले श्री भगवान, तुम्हारे सिमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान। यानी केवल बोल मीठे थे पर हाव भाव रूखे थे। नारद तो नहीं समझे अनुभवी शरद ने बाबा तुलसी की इस चौपाई के माध्यम से मोदी के व्यवहार को समझ लिया था। अब आते हैं असली नाटक पर। शरद पवार ने शिवसेना, कांग्रेस से बात कर समझ लिया था कि इन दोनों का एक साथ घाट पर लाना कोई खाला जी का घर नहीं है साथ ही वे शाह मोदी की मंशा भी समझते थे वे जानते थे कि अगर एनसीपी, कांग्रेस व शिवसेना मिलकर भी राज्यपाल से मिले तो वे बहाने बना बना टालते रहेंगे यथा पहले तो वे सभी विधायकों की परेड की इच्छा जाहिर करेंगे फिर अपने विवेक से केंद्र को राष्ट्रपति शासन हटाने का पत्र लिखने में देरी कर सकते हैं उनका अधिकार है, फिर मोदी जी काबिना की मीटिंग बुलाने में वक्त ले सकते हैं। उसके बाद राष्ट्रपति कहां जल्द से आर्डर करेंगे। इन सबमें अगर महीना या महीने लगे तो शाह क्या विधायकों को नहीं तोड़ लेंगे। तो इस मराठा सरदार ने छत्रपति शिवाजी की टोपी पहन भतीजे अजीत को भेज दिया और रातों रात राष्ट्रपति शासन खत्म करवा लिया। उसके बाद हुआ नाटक तो खुले में खेला गया और इस तरह शरद ने भाजपा के स्वघोषित चाणक्य को शकुनि की भूमिका में ला खड़ा किया। इस पवार ने शाह की चाणक्य जैसे रणनीतिकार एक भी फेल न होने वाली छवि एक झटके में धराशायी कर दी। यही नहीं अजीत पवार की तथाकथित बगावत ने शिवसेना व कांग्रेस की टाल-मटोल को न केवल खत्म किया अपितु शरद पवार की बारगेनिंग पावर को भी बढ़ा दिया ऐसा मुझे लग रहा है। बाकी तो भविष्य बतायेगा। अगर मेरी यह बात सही हुई और महाराष्ट्र सरकार 5 साल स्थिरता से चली तो कौन जाने तो 2024 लोक सभा चुनाव में विपक्षी दल शरद को प्रधानमंत्री पद का सांझा उमीदवार बना लें। राजनीति में कुछ भी असम्भव नहीं है।
डॉ. श्याम सखा श्याम
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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