Relief Fund or Debt Box! राहत कोष या कर्ज का पिटारा!

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बीस लाख करोड़ के राहत कोष से सब गदगद हैं। नेता, अभिनेता, अफसर और आम आदमी भी। लेकिन अभी तक यह साफ नहीं हो पाया है, कि यह कर्ज़ है अथवा राहत? सरकार अपने खजाने से पहले तो बड़ा हिस्सा एमएसएमई अर्थात् माइक्रो, स्माल, मीडियम समूह के कारखाना चलाने वालों को कर्ज बांटेगी और अंत में रेहड़ी, पटरी पर खोमचा लगाने वालों को दस-दस हजार कर्ज़ देगी। लेकिन इस कर्ज से वह कैसे इस आपातस्थिति का मुकाबला कर पाएगी? यह स्पष्ट नहीं है। कर्ज मिल गया, कारखाने खुल भी गए और मजदूर न हुआ तो वे चलेंगे कैसे? और अगर मजदूर भी आ गया, पर उत्पाद को खरीदने वाला ही नहीं मिला, तो लिक्वीडिटी कहां से आएगी? आदि ऐसे प्रश्न हैं, जिनका जवाब प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री ने नहीं दिया।
दरअसल प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री ने पूरे मामले का सरलीकरण कर दिया है, और वह यह, कि ‘कर्ज लो और घी पियो’। मगर कर्ज के बूते अर्थव्यवस्था नहीं चलती, उसके लिए जो दूरदृष्टि दिखानी चाहिए, वह यह सरकार नहीं दिखा पा रही है। कोई भी कर्ज तब तक व्यर्थ है, जब तक कि उस कर्ज से चलने वाले कारखाने के उत्पाद को खरीदने वाला ग्राहक न मिले। ग्राहक तब मिलेगा जब लिक्वीडिटी पर्याप्त हो। खरीददार की जेब में पैसा नहीं है। इसके लिए सरकार ने कोई प्रयास नहीं किए। उल्टे इस उपभोक्ता वर्ग को उन्होंने अपने जीवन में सादगी लाने और लोकल बनने का उपदेश दिया। अच्छी बात है, कि हम स्वदेशी वस्तुओं को अपनाएं, सादगी से रहें। पर उसके लिए ऊपर से नीचे तक एक खाका बनाना होगा। सरकार के नेता और अधिकारी जैसा आचरण करते हैं, वैसा ही जनता करती है। क्या किसी नेता और अफसर ने अपने जीवन में सादगी के ये गुर सीखे? अगर नहीं सीखे तो सादगी एवं स्वदेशी अपनाने के आपके उपदेश खोखले हैं।
सरकार आज तक इस सवाल का जवाब नहीं दे सकी, कि क्यों हमारे देश में आज ये मजदूरों का पलायन हो रहा है? लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर अपने काम करने की जगह से अपने गाँवों को भाग जा रहा है। पैदल या जो सवारी मिली उससे। क्यों नहीं वह रुका? क्योंकि आपने न उसको छत दी, न काम की गारंटी। जबकि किसी भी उद्योग या व्यापार की सबसे अहम कड़ी यह मजदूर ही है। अब अगर यह मजदूर न लौटा, तो आपका बीस लाख करोड़ का कर्ज ये नेता, अभिनेता और अफसर तथा उद्योगपति डकार जाएंगे। तब जनता के टैक्स से भरे खजाने का यह पैसा क्या लुटाने के लिए है? क्या लंगर खोलने अथवा मुफ्त भोजन बांटने से आप इस देश की विशाल जनसंख्या का पेट भर सकते हैं। कितने दिन लंगर चलेंगे? जब सब भूखे हो जाएंगे, तब ये लंगर किस काम के होंगे? क्योंकि प्रधानमंत्री जी आपने लिक्वीडिटी बढ़ाने के लिए कोई भी उपाय नहीं सुझाए हैं।
प्रधानमंत्री जी की वाणी में लोगों को बांध लेने का कौशल है। लोग उनकी वाक्-कला के मुरीद हैं, किंतु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने इस कोरोना आपदा से निपटने के लिए कोई कौशल नहीं दिखाया। जब कोरोना के संकेत पिछले साल नवम्बर से आने लगे थे, कि चीन के वहां शहर एक ऐसे वायरस का संक्रमण हुआ है, तब ही क्यों नहीं कदम उठाये गए? चीन के इस वहां शहर में भारत के हजारों छात्र मेडिकल की पढ़ाई के लिए जाते हैं। वे भाग कर वहां से आने लगे, किंतु भारत सरकार ने उनकी मेडिकल जांच करने अथवा उन्हें क्वारंटाइन में रखने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। सिर्फ लक्षणों को आधार बनाया, जबकि सब को पता है, कि यह वीषाणु मृत है, बात इसके ऊपर एक तैलीय चक्र है, जो मनुष्य के डीएनए में पहुंच कर इतना नुकसान पहुंचाता है कि उसका श्वसन तंत्र काम करना बंद कर देता है। यह वीषाणु साठ वर्ष से ऊपर के अन लोगों के लिए घातक है, जो हार्ट, डायबिटीज, बीपी अथवा अस्थमा के पुराने मरीज हैं। चूंकि इसमें मृत्यु दर बहुत कम है (तीन से साढ़े तीन प्रतिशत) इसलिए सरकार और भी निश्चिंत रही। न तो चीन आने-जाने वाली फ्लाइट को रोका गया, न उन्हें पूरी तरह सैनीटाइज किया गया। आजकल दुनियां अगर मुट्ठी में है, तो बीमारियां भी बस कुछ ही इंचों की दूरी पर हैं। चीन से पहला लक्षणों युक्त मरीज तीस जनवरी को भारत के केरल प्रांत में पहुंचा। तब भी केंद्र सरकार नहीं चेती। बस चीन से आने वाले पर्यटकों पर रोक लगाई गई।
किंतु अन्य देशों से आने वालों पर नहीं। फरवरी के दूसरे हफ्ते में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत के गुजरात राज्य में आए। लेकिन उनके स्वागत में सरकार बिछ गई। उन्हें दिल्ली लाया गया। आगरा के ताज में ले जाय गया। इसके अलावा मार्च के दूसरे हफ्ते तक योरोप, अमेरिका, साउथ ईस्ट तथा खाड़ी देशों से विमान सेवाएं निर्बाध चलती रहीं। जाहिर है, इसी के साथ-साथ कोरोना वायरस भी बेरोक-टोक भारत आता रहा। यह आश्चर्यजनक है, कि 19 मार्च तक भारत की विमान सेवाओं पर रोक नहीं लगाई गई, जबकि तब तक चीन का यह वायरस इटली, फं्रास, इंग्लैंड और अमेरिका को तबाह कर चुका था। रोजाना हजारों लोग मार रहे थे। यहां तक कि अन खाड़ी देशों में भी, जहां के बारे में कहा जाता था, कि वहां की गर्मी में कोई भी वायरस पनप नहीं सकता था। सरकार के पास ये आंकड़े तक नहीं थे, कि जो लोग टूरिस्ट वीजा लेकर भारत आए हैं, उनकी लोकेशन क्या है। अचानक बीस मार्च को प्रधानमंत्री मोदी जी टीवी चैनलों पर प्रकट होते हैं और 22 मार्च को कर्फयू की घोषणा करते हैं। तब तक कई राज्यों की सरकारों ने अपने-अपने राज्यों की सीमाएं सील कर दीं। नतीजा लोग फंस गए। प्रधानमंत्री ने 25 मार्च से पूरे देश में लॉकडाउन घोषित कर दिया। जो जहां है, वहीं फंस गया। ट्रेन, ट्राम, मेट्रो, लोकल और सभी तरह के पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर रोक तो लगी ही, निजी वाहनों की आवाजाही पर भी रोक लगा दी गई। लोग अपने घर नहीं पहुंच पाए। बच्चे, बूढ़े, अधेड़, जवान सब फँस गए। परिवार बिछड़ गए। कुछ लोग पैदल ही चल दिए। लेकिन पुलिस उन्हें न जाने देती। इन आने-जाने वालों की भीड़ पर काबू पाना मुश्किल हो गया। किसी तरह लाखों की संख्या में मजदूर, बच्चे और मध्य वर्ग के लोग अपने-अपने घरों को बढ़े। 25 मार्च से 14 अप्रैल, फिर तीन मई। इसके बाद 17 मई और अब जो संकेत मिल रहे हैं, उनके अनुसार कुछ ढील के साथ 31 मई तक यह लॉक डाउन जारी रहेगा।  तब सरकार मदद की घोषणा कर रही है, लेकिन क्या मदद उस जरूरतमंद तक पहुंच पाएगी, यह बड़ा सवाल है।
(लेखक वरिष्ठ संपादक हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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