Real leaders of formless government! निराकार सरकार के साकार नेता!

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सरकारें तो निराकार होती हैं जिस पार्टी को उसकी कमान सौंपी जाती है उसी लिहाज से वह चलती है। अब यह उस पार्टी की सोच, चिंतन और उसे गति देने वालों पर निर्भर है कि वह उस सरकार को किस दिशा में ले जाएंगे। सरकारें वही करती हैं जो व्यक्ति चाहते हैं और अगर व्यक्ति पारदर्शी तथा प्रगतिकामी हुए तो यकीनन सरकार की दिशा बदल जाएगी। लेकिन अगर वे प्रतिकामी हुए तो सरकारें पीछे की तरफ खिसकेंगी। दुख तो यह है कि मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार के लोग सरकार को आगे ले जाने की इच्छाशक्ति नहीं रखते और वे निरंतर सरकार को नाकारा बनाने की दिशा में क्रियाशील हैं। अब या तो खुद नरेंद्र मोदी केंद्र की जटिलताओं को समझते नहीं अथवा उनकी ही पार्टी में उनके विरोधियों को उन्हें परास्त करने में रुचि है। वर्ना क्या बात है कि केंद्र की मौजूदा मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल को लगभग सात महीने होने को आए और एक भी फैसला ऐसा नहीं हुआ जिस पर विवाद न हुआ हो। उनकी ही पार्टी के मुरली मनोहर जोशी ने उनके लत्ते न लिए हों। इससे साफ जाहिर है कि प्रधानमंत्री अनाड़ी हैं और उनकी पार्टी के पुराने म घाघ। राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता और राजनीति में हरदम प्रतिद्वंदी दल के राजनेताओं के लिए खिड़की खुली रखनी चाहिए मगर नरेंद्र मोदी ने शुरू से ही जिस तरह का आचरण किया है, उससे लगा नहीं कि उनकी रुचि विरोधी दलों को साथ लेकर चलने में है। और अपनी ही सरकार के मंत्रियों को लेकर चलने में है, सिवाय अमित शाह को छोड़ कर।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता प्रतिष्ठानों का केंद्रीकरण कर दिया है और ऐसे लोग बिठा दिए हैं, जो कोई काम कर ही नहीं सकते। एनडीए की पहली अटल सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने भी हर पोस्ट पर अपने भरोसे के लेकिन काबिल लोगों को तरजीह दी थी। उन्होंने मानद पदों पर भी उन लोगों को बिठाया जो उसे डिजर्ब करते थे इसलिए विरोधी दलों के राजनेता उनको घेरने में नाकाम रहे और चूंकि बाजपेयी जी विरोधी दलों के प्रति भी नरम रहते थे सो इसका लाभ भी उन्हें मिलता रहा और संकट के समय विरोधी दलों के नेता ही उनके लिए ढाल बन जाया करते थे और उन्हें उबार लेते थे। भले वे भाजपा नीत एनडीए सरकार के प्रधानमंत्री रहे हों लेकिन उनके निजी संबंध चूंकि वामदलों से भी बेहतर थे इसलिए राज्य सभा में या संसद के बाहर बाजपेयी को इतना तीखा विरोध कभी नहीं उठाना पड़ा, जितना कि मोदी सरकार को।
दुख तो इस बात का है कि एक भी मुददा ऐसा नहीं रहा जिस पर इस सरकार की सार्वजनिक तौर पर तारीफ हुई हो। यहां तक कि वे लोग भी जो लोकसभा चुनाव के पूर्व तक नरेंद्र मोदी को आदर्श राजनेता मानते थे अचानक उनके विरोधी हुए जा रहे हैं। लेकिन स्वयं प्रधानमंत्री जी इससे बेखबर हैं। अब या तो भाजपा एक राजनैतिक दल की तरह व्यवहार करने में नाकारा साबित होती जा रही है अथवा प्रधानमंत्री के हाथ से बहुत सारी चीजें बाहर हो गई हैं। यह ठीक है कि भारत की लोकप्रिय मानसिकता सेंटरिस्ट यानी मध्यमार्गी और चरमपंथी राजनीति करने वाले दल या नेताओं को लंबे समय तक जनता स्वीकार नहीं कर पाती पर इसके बावजूद नरेंद्र मोदी की सरकार तो कई बार ऐसे मुद्दों पर भी घेर ली जाती है जो मुद्दे शायद उतने जनविरोधी नहीं हैं।  सरकार का बचाव करने के लिए उसे ऐसे नेताओं और बौद्घिकों की दरकार होती है जो सरकार के फैसलों को स्वयं भी अच्छी तरह समझते हैं। पर नरेंद्र मोदी सरकार के साथ दिक्कत यह है कि इस सरकार ने जिन लोगों को सरकार का पक्ष रखने हेतु नियुक्त किया है वे जिस तरह से पक्ष रखते हैं उससे बात बिगड़ और जाती है। सरकार को मीठा बोलना चाहिए भले उसके पास अपार बहुमत हो लेकिन उसे याद रखना चाहिए कि विरोध में उठी एक भी आवाज उसके सारे किए कराए पर पानी फेर सकती है। नरेंद्र मोदी को चाहिए कि वे अपनी सरकार के लिए ऐसे बंदे तलाशें जो सरकार का बचाव भी करें और सरकार की छवि भी सुधारें।

– शंभूनाथ शुक्ल
(लेखक वरिष्ठ संपादक रहें हैं।)
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