Ram name in the mouth, Godse ideology in the heart: मुंह में राम, दिल में गोडसे वाली विचारधारा

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मुंह में राम, बगल में छूरी वाली कहावत तो आपने खूब सुनी होगी। पर इन दिनों मुंह में राम दिल में गोडसे वाली विचारधारा पनप रही है। या यूं कहें पनप चुकी है। महात्मा गांधी की विचारधारा से आप सहमत भी हो सकते हैं और असमहत भी। पर एक हत्यारे को आप राष्टÑभक्त बताकर क्या कहना चाहते हैं यह समझ से परे है। इस तरह की बयानबाजी करने वालों को मंथन करना चाहिए कि वो सार्वजनिक जीवन में रहते हुए समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं।
साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के अपने फॉलोअर हैं। लोकतंत्र में आस्था में रखने वाले लोग भी उनके समर्थक हैं, जिनके बल पर वो आज सांसद हैं। और इसी के बल पर वो लोकतंत्र के मंदिर में प्रवेश की हकदार हैं। उन्हें वहां खुलकर बोलने का अधिकार है। वो अपने इस अधिकार का प्रयोग भी खूब करती हैं। पर उनसे यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि लोकतंत्र के मंदिर में बैठकर वो अपनी किस विचारधारा से पूरे देश को अवगत करना चाहती हैं। इस पूरी कवायद के पीछे उनकी मंशा क्या है। वो देश को क्या संदेश देना चाहती हैं।
आपकी अपनी विचारधारा हो सकती है। आप किसी के समर्थक हो सकते हैं या विरोधी। आप किसी की पूजा कर सकते हैं या तिरस्कार। पर यह हक आपको किसने दे दिया कि सार्वजनिक जीवन में रहते हुए, एक संवैधानिक पद पर रहते हुए आप लोकतंत्र के मंदिर में अपनी विचारधारा का खुलेआम प्रदर्शन करें। आप शायद यह भूल गई हैं कि जिन लोकतंत्र के प्रहरियों ने आपको इस सर्वोच्य सदन में पहुंचाया है उन्होंने आपसे यह अपेक्षा नहीं की थी कि आप राष्टÑपिता के हत्यारे का महिमामंडन करें। आपसे यह अपेक्षा नहीं की गई थी कि आप किसी हत्यारे को राष्टÑभक्त बता दें। संसद की अपनी गरिमा होती है। लोकतंत्र का यह मंदिर अपने आप में कई इतिहास समेटे है। पर इसी संसद में जब महात्मा गांधी के हत्यारे को देशभक्त बताया जाए तो इससे शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता है।
आपकी अपनी विचारधारा हो सकती है। आपके अपने प्रिय हो सकते हैं। आप किसी धर्म या संप्रदाय को मान सकते हैं। पर जब देश के संसद की गरिमा का आता है तो आपको संयमित रहने की जरूरत होती है। पर अफसोस इस बात है कि भारतीय लोकतंत्र के मंदिर की गरिमा को हमेशा ठेस पहुंचाने का काम हमारे द्वारा ही चुने गए सांसद करते हैं। आए दिन ऐसा होता है कि संसद की मर्यादाओं को तार-तार कर दिया जाता है। यह कोई पहली बार नहीं है कि साध्वी प्रज्ञा ने विवादित बोल बोले हों। इससे पहले भी उन्होंने कई बार सार्वजनिक मंच से कुछ न कुछ विवादित ही बोला है। हो सकता है कि वो अपनी निजी जिंदगी की खुन्नस सार्वजनिक मंच पर निकालती हों। पर उन्हें या उनके जैसे सांसदों को यह हक किसी ने नहीं दिया कि वो लोकतंत्र की गरीमा को ठेस पहुंचाएं।
भारत एक ऐसा देश है जहां साधु संतों को बेहद सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। उनके द्वारा बोले गए हर एक शब्द को लोग अपनाने का प्रयास करते हैं। हमारे वेद पुराण आपको हमेशा इस बात की याद दिलाते हैं कि आपके संस्कार क्या हैं। हिंदू धर्म के जिस आधार की हम बात करते हैं उसका आधार स्तंभ ही हमारे वेद पुराण और संस्कार हैं। ऐसे में जब साध्वी संत समाज का हिस्सा होते हुए इस तरह की बातों को प्रमाणित करे तो इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता है। एक हत्यारा सिर्फ एक हत्यारा ही होता है। एक बलात्कारी सिर्फ एक बलात्कारी ही होता है। अगर कोई किसी हत्यारे को सिर्फ इस बात के लिए जायज कहे कि उसने अपनी विचारधारा के कारण उसकी हत्या कर दी। या कोई किसी बलात्कारी को सिर्फ इसलिए जायज करार दे कि उसने अपनी यौन इच्छा की पूर्ति के लिए ऐसा कर दिया, तो मेरी समझ से इससे बड़ा मूढ़ और मुर्ख व्यक्ति कोई दूसरा नहीं हो सकता है।
भोपाल से भारतीय जनता पार्टी की सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने पिछले दिनों संसद में अपने भाषण के दौरान जिस तरह महात्मा गांधी के हत्यारे गोडसे को देशभक्त बताया उससे पूरा देश शर्मशार है। प्रज्ञा ठाकुर एक साध्वी के रूप में हैं। इससे बड़ी जिम्मेदारी भी उनके ऊपर है कि वो एक संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। उन्हें भोपाल की जनता ने इसलिए अपना सांसद बनाया है कि वो उनकी बातों को लोकतंत्र के सर्वोच्य सदन में रखेंगी। उन्हें इस बात के लिए सांसद नहीं बनाया गया है कि वो अपनी राजनीतिक विचारधारा को देश को बताने के लिए इस सदन का उपयोग करें।
हमें लोकतंत्र के इस मंदिर का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि इसी मंदिर के अंदर उन्हें माफी मांगने पर मजबूर किया गया। प्रज्ञा ठाकुर को तीन घंटे के अंदर दो बार माफी मांगनी पड़ी। पर सवाल यह है कि सिर्फ माफी मांग लेने से उनका अपराध क्षम्य हो गया। जिस व्यक्ति को भारतीय लोकतंत्र में राष्टÑपिता के नाम से पहचान मिली हुई है उसके हत्यारे का महिमामंडन करना कहां का संस्कार है। आप अपनी विचारधारा को मानने के लिए स्वतंत्र हैं, पर लोकतंत्र के मंदिर में इस तरह की विचारधारा का परिलक्षण कहां से स्वीकार कर लिया जाए।
साध्वी प्रज्ञा के विचारधारा का दूसरा पहलू भी समझने की जरूरत है। उन्हें इस बात पर तो दुख है कि उन्होंने राष्टÑपिता के हत्यारे को राष्टÑभक्त कहा। इसके लिए उन्होंने सार्वजनिक रूप से क्षमा भी मांग ली। पर साथ उन्हें इस बात पर खेद भी है कि संसद के ही एक सदस्य ने उन्हें आतंकवादी कह दिया। उन्होंने कहा कि मेरे ऊपर आरोप सिद्ध नहीं हुए हैं, इसलिए मुझे आतंकी कहना मेरा अपमान है। अब साध्वी को यह कौन बताने जाए कि यह ठीक है कि आपके ऊपर दोष सिद्ध नहीं हुए हैं इसलिए आप आतंकी नहीं कही जाएंगी। पर जिस हत्यारे को हत्या के जुर्म में फांसी दी जा चुकी है उसे राष्टÑभक्त कहना कहां का सम्मान है।
हद है इस तरह की विचारधारा रखने वाले सांसदों का। शर्म आनी चाहिए कि वो इस तरह की विचारधारा में न केवल विश्ववास रखती हैं बल्कि इसे सार्वजनिक मंच से पूरे देश के सामने भी रखती हैं। केंद्र सरकार इस बात के लिए बधाई की पात्र है कि उसने तत्काल कार्रवाई करते हुए साध्वी प्रज्ञा को उनकी हैसियत का अंदाजा लगा दिया। प्रज्ञा ठाकुर को रक्षा मंत्रालय की कमेटी से निष्कासित कर दिया गया। इसके अलावा बीजेपी की ओर से साध्वी प्रज्ञा के संसदीय दल की बैठक में आने से रोक लगा दी गई थी। इस तरह के प्रकरण को एक सीख के तौर पर लिए जाने की जरूरत है। सभी दलों को अपने नेताओं और सांसदों को यह जरूर सीख देनी चाहिए कि आप चाहे किसी विचारधारा से प्रेरित हों, किसी व्यक्ति को मानते हैं पर कम से कम सार्वजनिक जीवन में इसके प्रदर्शन करते वक्त थोड़ा संयमित रहने की जरूरत है। जब आप सार्वजनिक जीवन में होते हैं और हजारों लोगों की निगाह आपके द्वारा दिए जाने वाले बयानों पर होती है तो आपको आपका संयम ही प्यार और सम्मान दिला सकता है।

कुणाल वर्मा
(लेखक आज समाज के संपादक हैं)