Prevent Childhood from ‘Depression’ in the Corona Period: कोरोना काल में बचपन को ‘अवसाद’ से बचाइए

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Children of stranded migrant workers wait to board a special train to Bihar state from MGR central railway station after the government eased a nationwide lockdown imposed as a preventive measure against the COVID-19 coronavirus, in Chennai on June 18, 2020. - The epidemic has badly hit India's densely populated major cities and Chennai in the south has ordered a new lockdown from June 19 because of a surge in cases. (Photo by Arun SANKAR / AFP)

आजकल तनाव ग्रस्त जीवन शैली के कारण मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। लेकिन यह समस्या बड़ों के साथ बच्चों में तेजी से फैल रही है।
कोरोना संक्रमण काल में बच्चों में यह समस्या तेजी से बढ़ी है। लॉकडाउन बच्चों में अवसाद की नई बीमारी लेकर आया है। यह हमें मुश्किल में डाल सकती है। आधुनिक जीवन शैली में अवसाद यानी डिप्रेशन आम बात हो गईं है। अवसाद की बीमारी जीवन को बर्बाद कर देती है। वयस्क व्यक्ति भी अपने मानसिक स्वास्थ्य के प्रति सजगता नहीं दिखाते फिर तो बच्चों की मानसिक स्वास्थ्य के सजगता के विषय में सहजता से अनुमान लगाया जा सकता है। वर्तमान परिवेश में जब एकांकी परिवार का फैशन है और पति-पत्नी दोनों नौकरीसुदा हैं तो बच्चों में संवेगों का सही विकास न होने से उनमें अनेक मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियां खड़ी हो रही हैं। जिसकी वजह जीवन में एक बड़ी चुनौती के रूप में अवसाद उभर रहा है। अवसाद एक मनोभाव संबंधी विकार है।
अवसाद की स्थिति में व्यक्ति अपने को निराश व लाचार महसूस करता है। सभी जगह तनाव, निराशा, अशांति, हताशा एवं अरुचि महसूस करता है। 90% अवसाद ग्रस्त लोगों में नींद की समस्या देखी गई है। लोगों में यह भ्रम होता है कि बचपन में डिप्रेशन नहीं होता जबकि आंकड़े बिल्कुल इसके विपरीत है। मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय के रिपोर्ट के अनुसार भारत के 6.9% ग्रामीण तथा 13.5% शहरी बच्चे डिप्रेशन के शिकार हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन 2017 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर चौथा बच्चा अवसाद से ग्रस्त है। डॉ. मनोज कुमार तिवारी वरिष्ठ परामर्शदाता एसएस हॉस्पिटल आईएमएस,काशी हिंदू विश्विद्यालय ने बताया कि बड़ों के साथ बच्चों में अवसाद की बीमारी तेजी से बढ़ रही है। इसके लिए वह आधुनिक जीवन शैली को जिम्मेदार ठहराते हैं।
हालांकि उनके विचार में कुछ सावधानियां बरत कर इस बीमारी से बचा जा सकता है। डा.तिवारी के अनुसार बच्चों में अवसाद के लक्षण वयस्कों से भिन्न होते है। बच्चों में सही समय पर अवसाद की पहचान कर उसका निराकरण करना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।
यद्यपि अलग-अलग बच्चों में यह लक्षण अलग-अलग पाए जाते हैं। आप बच्चों की स्थिति और उनकी हरकत देख कर अवसाद के लक्षण को पहचान सकते हैं। अवसाद के शिकार बच्चों में बहुत जल्दी थकान महसूस होती है। पढ़ाई में मन नहीँ लगता है। खेल में बच्चे रुचि नहीँ दिखाते हैं। शैक्षणिक उपलब्धि में अचानक से बहुत अधिक गिरावट आ जाती है। भूख नहीँ लगती न लगना। बच्चों में सोचने विचारने की क्षमता में कमी आती है। निर्णय लेने में कठिनाई महसूस करते हैं। लोगों से बात भी नहीँ करते हैं। बच्चे आत्महत्या के बारे में विचार करते हैं।
सवाल उठता है कि बच्चों में अवसाद के मुख्य कारण क्या होते हैं। बच्चे डिप्रेशन के शिकार क्यों होते हैं। डा.मनोज के अनुसार बच्चों में बड़ों से अलग अवसाद के कारण होते हैं। घर या स्कूल का बदलना। साथियों से बिछड़ जाना। परीक्षा में फेल होना। परिवार के सदस्यों से बिछड़ जाना। स्कूल में साथियों द्वारा तंग किया जाना। पढ़ाई का बहुत अधिक तनाव।
अभिभावक या शिक्षकों का बच्चों के प्रति अतार्किक एवं अनुचित व्यवहार। रुचि के कार्य न कर पाना। बच्चों का अन्य बच्चों के साथ अतार्किक रूप से तुलना किया जाना। माता-पिता का बच्चे से उसकी क्षमता से अधिक की अपेक्षा करना। माता-पिता के बीच तनावपूर्ण संबंध। इसके अलावा जैविक एवं आनुवंशिक कारण भी होते हैं। बच्चों में अवसाद के निराकरण में अभिभावकों की भूमिका अहम है। बच्चों के साथ गुणवत्तापूर्ण समय व्यतीत करें। बच्चों से सौहार्दपूर्ण ढंग से नियमित वातार्लाप करके उनकी समस्याएं भावनाओं को समझने का प्रयास करें। बच्चों को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का समुचित अवसर प्रदान करना चाहिए। बच्चों के शिक्षकों तथा उनके साथियों से संपर्क बनाए रखिए। धनात्मक सोच विकसित करने का प्रयास करना चाहिए।
अपने विचार, निर्णय तथा अधूरी इच्छाएं बच्चों पर न थोपें और बच्चों में अवसाद के लक्षण दिखने पर नजर अंदाज न करें उन्हें तुरंत अनुभवी एवं प्रशिक्षित मनोवैज्ञानिक से परामर्श प्रदान कराएं। यदि बच्चे को अवसाद की दवा चल रही है तो सही समय पर सही खुराक लेने में सहयोग प्रदान करें और जब तक चिकित्सक दवा न बंद करें अपने मर्जी से कदापि बंद न करें। बच्चों के उम्र के अनुसार सभी विषयों पर चर्चा करें ताकि वह अपनी बात कह सकें।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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