PK is a side effect of Delhi election result: दिल्ली चुनाव परिणाम के साइड इफेक्ट हैं पीके!

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प्रशांत किशोर उर्फ पीके देश की राजनीति के लिए अब कोई नया नाम नहीं है। करीब 10 वर्षों से खुद को राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में स्थापित कर चुके प्रशांत किशोर पिछले 2 वर्षों से कुछ और करने की ठान चुके हैं, और शायद इसी छटपटाहट का परिणाम था 18 फरवरी को उनके द्वारा पटना में आहुत संवाददाता सम्मेलन। मजे की बात है कि वह इस बात की घोषणा जदयू से निकाले जाने के बाद ही कर दी थी, लेकिन कहा था कि दिल्ली चुनाव परिणाम के बाद ही वो कुछ खास घोषणा करेंगे। दिल्ली चुनाव परिणाम ने पीके को निराश नहीं किया। जाहिर है, इससे उत्साहित होकर पीके ने अपनी राजनीतिक रणनीति को पब्लिक डोमेन में पब्लिस कर दिया। देश की राजनीति को पीके बहुत पहले से परोक्ष रूप से समझते रहे हैं और जदयू में बतौर उपाध्यक्ष शामिल होकर प्रत्यक्ष रूप से भी बिहार की राजनीति को समझने में कामयाब रहे, ऐसा उनका दावा है। पुत्रभाव में नीतीश कुमार से प्यार और कायदे की राजनीतिक गुर सीखने के बाद उन्हें लगा कि बिहार में भी केजरीवाल टाइप प्रयोग किया जा सकता है। केजरीवाल ने आम लोगों को अपने लिए खास बनाया तो पीके ने इसके लिए बिहार के युवाओं पर अपना टारगेट किया। युवाओं को स्वस्थ राजनीति करने और इसके लिए सीधे तौर पर भागीदार बनने के लिए उनको प्रेरित करना पीके का शगल रहा है। यह काम पीके ने जदयू में रहते हुए भी किया था। इसी का नतीजा है कि पीके ने यह दावा किया कि अभी बिहार के करीब पौने तीन लाख युवा उनके सम्पर्क में है जिसे 20 मार्च तक 10 लाख करने का लक्ष्य है। पीके अपने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपने नेतृत्व में बिहार के 8800 पंचायतों से जुड़े 1000 युवकों की बकायदा एक समर्पित टीम तैयार करने में जुट गए हैं।
अपने संवाददाता सम्मेलन में पीके एक रणनीतिकार के साथ-साथ एक सधे राजनीतिककार के रूप में स्थापित करने में सफल रहे। उन्होंने सलीके से नीतीश कुमार के साथ-साथ बिहार के तमाम नेताओं की बधिया उधेड़ी। नीतीश के साथ अपने संबंधों को बड़े ही आत्मीय तरीके से पेश तो किया लेकिन लगे हाथ उनके 15 साल के शासन का पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी सामने रख दिया। पीके अपने तर्कों और आधिकारिक रिपोर्ट्स के आधार पर यह बताने में सफल रहे कि 15 साल पहले जहां बिहार था, आज भी वहीं खड़ा है। शिक्षा, स्वास्थ्य या रोजगार की बात हो, हर क्षेत्र में बिहार की सरकार फेल है क्योंकि आने वाले 10 वर्षों में बिहार कहां होगा, इसकी प्लानिंग किसी के पास नहीं है। सामाजिक विज्ञान की भाषा में कहें तो सरकार के पास भविष्य की कोई योजना नहीं है। पीके एक सधे नेता के तर्ज पर बड़े ही आत्मविश्वास के साथ कई झूठ एक साथ बोल गए।
बिहार सरकार की योजनाओं के लिए कभी विश्वकर्मा की भूमिका में रह चुके पीके यह बताना मुनासिब नहीं समझा कि आखिर वो कहां तक इसके लिए जिम्मेदार हैं। उन्होंने नीतीश कुमार को लपेटते हुए गांधी और गोडसे की चर्चा की लेकिन यह बताना भूल गए कि जिस गोडसे को लेकर वह नीतीश को घेर रहे हैं, उसी गोडसे का कथित रूप से समर्थक पार्टी के लम्बे समय तक वो रणनीतिकार रहे हैं। अपनी सफलता की बखान करते हुए यह कहना भूल गए कि आखिर वो उत्तर प्रदेश में किस तरह असफल रहे और किस कारण से उन्हें पंजाब से रूखसत होना पड़ा था। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जनता की नब्ज को पीके अच्छी तरह समझते हैं। जनता की भावनाओं को वोट में कैसे बदला जाए और आधुनिक मीडिया के हथकंडों का इस्तेमाल किस तरीके से की जाए, पीके इसके मास्टर माने जा सकते हैं। शायद यही वजह है कि पीके बिहार में वर्तमान सरकार की लोकप्रियता को वैज्ञानिक तरीकों से परखते हुए एक नए विकल्प के तौर पर खुद को पेश करने में जुट जाना ही बेहतर समझा। बेशक, इसके लिए उन्हें मुक्कमल खाद-पानी दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम से मिला है।
‘आप’ का रणनीतिकार रहते हुए पीके की घनिष्ठता दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल से बनी हुई है। सम्भव है कि आने वाले समय में बिहार में ‘आप’ के चेहरे के रूप में पीके स्थापित हों और जनता का मूड भांपने के लिए पूरे बिहार का दौरा करना पीके की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा माना जाना चाहिए। मगर एक पेंच है जो बिहार की राजनीति समझने वाले लोगों को परेशान कर सकती है। पीके का सीधे तौर पर राजनीति में कूदने का यह समय सूबे के दूसरे फायर ब्रांड युवा वामपंथी नेता कन्हैया कुमार के साथ-साथ माना जा रहा है। इसका संकेत भी पीके दे चुके हैं। पीके ने अपने बयान में कहा है कि कन्हैया बिहार का भविष्य हैं। जाहिर है, आने वाले समय में दोनों एक-दूसरे के पूरक बन सकते हैं या फिर यूं कहें कि दोनों मिलकर एक बड़े वोट बैंक को प्रभावित कर सकते हैं। बिहार की राजनीति में जाति एक बहुत बड़ा कारक रहा है। हर पार्टी चुनाव में जातीय धर्म का पालन करना अपना नैतिक जिम्मेदारी मानती है। कन्हैया और पीके, दोनो सवर्ण हैं और नीतीश कुमार को लेकर बिहार के सवर्णों में एक नाराजगी है। पीके इस सच्चाई को बेहतर जानते-समझते हैं। संभव है कि पीके इस सच को अपने हित के लिए वोट में बदलना चाहते हों और इसके लिए उन्हें अरविन्द केजरीवाल का साथ मिल सकता है। अरविन्द केजरीवाल को भी दिल्ली से बाहर हिन्दी पट्टी इलाकों में फैलने की अकुलाहट है जिसे पीके के जरिए अंजाम दिया जा सकता है। फिलवक्त प्रतीक्षा करना बेहतर होगा क्योंकि जनता भी काफी हद तक समझदार हो चुकी है और उसे नफे-नुकसान की बेहतर समझ है। संभव है, बिहार एकबार फिर से नई राजनीति का प्रयोगशाला बने जहां जाति-धर्म से ऊपर उठकर नई सोच-समझ से लवरेज नया और आदर्श चुनावी परिणाम मिले।

सुनील पांडेय
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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