Not just blame repair system: सिर्फ दोषारोपण ठीक नहीं सिस्टम को सुधारें

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यद्यपि केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार का गृह मंत्रालय दिल्ली पुलिस को निष्पक्ष रहने और सबकी सुरक्षा का ख्याल रखने की नसीहत देता रहता है, बावजूद इसके दिल्ली पुलिस तटस्थ नहीं रह पा रही है। इसके लिए विपक्षी दलों द्वारा केन्द्रीय गृह मंत्रालय को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की जाती है। खामी कहां है, उस पर नजर रखे बगैर सिर्फ मोदी सरकार को कोसना, समस्या का समाधान नहीं है। खासकर दिल्ली पुलिस की कार्यशैली से सरकार की अक्सर किरकिरी हो जा रही है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि दिल्ली पुलिस अपनी कार्यशैली में सुधार लाए और सबको समान भाव से देखे। पुलिस के लिए सभी बराबर हैं। चाहें वह पक्ष के समर्थक हों अथवा विपक्ष के। इस बात पर लगातार जोर दिया जाता है कि दिल्ली पुलिस अपने कामकाज में बहुत ही प्रोफेशनल है। लेकिन हाल की कुछ घटनाएं दिल्ली पुलिस और उसके साथ तैनात अर्धसैनिक बलों के कामकाज पर गंभीर सवाल उठाती हैं। उसकी क्रूरता लोकतांत्रिक देश को शर्मसार करने वाली है।
आपको बता दें कि करीब दो महीने के आरोप-प्रत्यारोपों के बाद देश की राजधानी दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया की लाइब्रेरी के कई विडियो सामने आए हैं, जो पुलिस की क्रूरता की कहानी कहते हैं। ये विडियो 15 दिसंबर, 2019 की शाम के हैं जब पुलिस ने छात्रों पर यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में बिना इजाजत घुसकर लाठीचार्ज किया था। हालांकि, शुरू में दिल्ली पुलिस लाइब्रेरी में घुसने की बात से ही इनकार करती रही थी, लेकिन इन विडियो से सच्चाई सामने है। विश्लेषक हरवीर सिंह बताते हैं कि जामिया के छात्रों के संगठन की ओर से जारी इन विडियो की पड़ताल फैक्ट चेक करने वाली एक वेबसाइट ने की है। असल में पहला विडियो आने के बाद कुछ टीवी चैनलों ने एक दूसरा विडियो दिखाकर छात्रों को ही कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की गई। इन मीडिया संस्थानों के रिपोर्टरों ने यह भी बताया कि उनको यह विडियो मामले की जांच कर रही दिल्ली पुलिस की एसआइटी के वरिष्ठ अधिकारियों से मिला है। यानी पुलिस ज्यादती पर परदा डालने के लिए दूसरा विडियो जारी किया गया। दूसरे विडियो में न्यूज चैनलों ने एक छात्र के हाथ में पत्थर तक होने की बात कही जबकि उसके एक हाथ में पर्स था और दूसरे में मोबाइल फोन। इन विडियो में पुलिस केवल छात्रों को ही नहीं पीटती बल्कि छात्राओं को भी निशाना बनाया जाता है। यह भी दिखता है कि पुलिस दरवाजा तोड़कर अंदर घुसती है। वहां कोई प्रदर्शन और पत्थरबाजी भी नहीं होती दिखती है कि पुलिस को मजबूरी में इस सब की जरूरत पड़ी।
फिर, यह सवाल खड़ा हो सकता है कि कई पुलिसवालों के मुंह पर बंधा कपड़ा क्या पहचान छुपाने के लिए था। एक पुलिसवाला लाइब्रेरी के रीडिंग हाल में लगे कैमरे को तोड़ता दिखता है। जिस दौर में पुलिस की ज्यादती और दुर्व्यवहार पर अंकुश के लिए बॉडी कैमरा लगाने की वकालत हो रही है और दुनिया के कई देशों में इसकी व्यवस्था भी है, उस दौर में हमारे देश की पुलिस सबूत नष्ट करने की कोशिश करती दिखती है। इससे क्या संकेत मिलते हैं? सवाल इस बात का नहीं कि कौन कितना दोषी है, क्योंकि यह तो जांच का विषय है लेकिन क्या इस तरह की घटना को अंजाम देने वाली पुलिस की जांच को निष्पक्ष माना जा सकता है। फिर, पुलिस ज्यादती के इतने सबूत होने के बावजूद अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। पुलिस यह भी कह रही है कि जामिया इलाके में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरोध प्रदर्शनों में हुई हिंसा और तोड़फोड़ के मामले में जो चार्जशीट दायर की गई है उसमें किसी छात्र का नाम नहीं है। तो, सवाल है कि छात्र पुलिसिया ज्यादती के शिकार क्यों हुए। एक बड़ा सवाल मीडिया की साख का भी है, जो बिना पड़ताल किए आधे-अधूरे तथ्यों के आधार पर न्यूज चलाता है। इसका असर जन धारणा पर पड़ता है। यूं कहें कि जरूरत इस बात की है कि सिस्टम को सुधारा जाए। सिर्फ दोषारोपण से काम चलने वाला नहीं है।
असल में दिल्ली, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में पुलिस की कार्रवाई के मामलों को देखते हुए लगता है कि वह सीएए का विरोध करने वालों को प्रदर्शन और विरोध के लोकतांत्रिक हक का इस्तेमाल नहीं करने देना चाहती है। इसके लिए धारा 144 के गलत इस्तेमाल पर कोर्ट के फैसले और तीखी टिप्पणियां आ चुकी हैं। उत्तर प्रदेश में सीएए के विरोध प्रदर्शनों के बाद पुलिस की सख्त कार्रवाई पर सवाल उठ रहे हैं। सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान की प्रदर्शनकारियों से भरपाई के प्रशासन के फैसले पर न्यायालय रोक लगा चुका है। खुद सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ अहमदाबाद में एक कार्यक्रम में कह चुके हैं कि लोकतंत्र में विरोध का हक एक सेफ्टी वॉल्व की तरह है। दिल्ली में शाहीन बाग में दो माह से चल रहे सीएए विरोधी धरने पर सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि विरोध करना नागरिकों का मूल अधिकार है। पुलिस तंत्र की निरंकुशता से सरकार और प्रशासकों पर भी सवाल खड़े होते हैं। पुलिस पर राजनैतिक आकाओं के इशारे पर काम करने के आरोप दशकों से लगते रहे हैं। दिल्ली चुनाव के दौरान दिल्ली पुलिस के दो अफसरों पर चुनाव आयोग को कार्रवाई करनी पड़ी। पुलिस ज्यादतियों के खिलाफ राजनीतिक दलों को क्या खड़ा नहीं होना चाहिए?
मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद अरविंद केजरीवाल ने कहा कि वे दिल्ली के हर आदमी के मुख्यमंत्री हैं, लेकिन जामिया के छात्रों के साथ ज्यादती पर वे उनके साथ नहीं दिखे। पुलिस केंद्र के पास है, लेकिन वे जांच और कार्रवाई के लिए तो बात कर ही सकते हैं। इसी तरह 5 जनवरी को जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) में हुई हिंसा पर अभी तक पुलिस ने ठोस कार्रवाई नहीं की है। इन प्रकरणों में सरकार और पुलिस दोषियों पर कार्रवाई नहीं करती, तो न्यायालय को संज्ञान लेना चाहिए। पुलिस लोगों की सुरक्षा के लिए है, न कि भय पैदा करने और ज्यादती के लिए। बहरहाल, यह कह सकते हैं कि हर तरह की दिक्कतों के लिए सिर्फ केन्द्र सरकार को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। सिस्टम की समस्या से बेशक सरकार भी जूझ रही होगी। शायद यही वजह है कि हालात कभी-कभी नियंत्रण से बाहर से हो जा रहे हैं। वैसे व्यवस्था को दुरुस्त करने की कोशिशें चल रही हैं, पर कामयाबी कितनी मिलेगी, यह बड़ा सवाल है। खैर, देखना यह है कि आगे होता क्या है?

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(लेखक आज समाज के समाचार संपादक हैं)

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