No healthy economy without recovering from frivolous thinking: तुच्छ सोच से उबरे बिना तंदरुस्त अर्थव्यवस्था नहीं

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हम बीते माह श्रीलंका की यात्रा पर थे। हमारे पास कुछ भारतीय मुद्रा थी, सोचा उसे बदलवा लेते हैं। मुद्रा आदान-प्रदान करने वाले एक दर्जन केंद्रों पर गया मगर वहां कहा गया कि वो डॉलर, यूआन, यूरो सहित तमाम मुद्राओं को बदलते हैं, मगर भारतीय मुद्रा को नहीं। हमें हैरानी हुई, हमने कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि पहले श्रीलंका में भारतीय रुपये से भी लेनदेन कर लिया जाता था मगर नोटबंदी के बाद हमारा भरोसा कम हो गया है। अब हम न उससे लेनदेन करते हैं और न ही बदलते हैं। उन्होंने भारतीय मुद्रा की खराब हालत का भी हवाला दिया। उनके बाजार में भारतीय उत्पादों की भरमार दिखी, तो हमने पूछा कि जब सामान लेते हो तो मुद्रा में क्या समस्या है? उन्होंने कहा कि हमें भारत या भारतियों से कोई दिक्कत नहीं मगर उनकी अर्थव्यवस्था और बदलती सरकारी नीतियों ने हमारा विश्वास डिगा दिया है। निश्चित रूप से एक छोटे और बहुत हद तक हम पर आश्रित देश के व्यवसायियों की यह सोच हमारे लिए चिंताजनक है। हम वैश्विक अर्थव्यवस्था के दौर में जब छोटी और स्वार्थी सोच का शिकार होते हैं, तो देश को विभिन्न तरह से अपमान का सामना करना पड़ता है।
राष्ट्रीय सांख्यिकी मंत्रालय ने शुक्रवार को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़े जारी किये तो विकास दर वही सामने आई जो पिछले तीन महीने से पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह और भाजपा के राज्यसभा सदस्य डा. सुब्रमणियम स्वामी कह रहे थे। यह विकास दर तुलनात्मक रूप से पिछले छह सालों में सबसे कम 4.5 फीसदी रही। जब यह आंकड़ा आया, उस वक्त हम संसद भवन में ही थे। इस बारे में हमारी कुछ अर्थशास्त्रियों से चर्चा हुई तो उन्होंने बताया कि जीडीपी का आंकलन करने का पैमाना 2015 में नरेंद्र मोदी सरकार ने बदल दिया था, जिससे विकास दर करीब दो फीसदी बढ़ी दिखती है। अगर हम 2014 तक के आंकलन मानदंडों पर इसे परखेंगे तो जीडीपी सिर्फ ढाई फीसदी रह जाएगी। डा. सुब्रमणियम स्वामी से बात हुई तो उन्होंने कहा कि हमने तो यह पहले ही चेता दिया था कि आंकड़ों को मापने के तरीकों से खेल करके आप कुछ वक्त तो वाहवाही बटोर सकते हैं मगर यह स्थायी नहीं है। जरूरत अर्थव्यवस्था की नीतियों में सुधार की है। देश की अर्थव्यवस्था लगातार बरबादी के कगार पर है। हालात यह हैं कि इस वक्त हम 1950 के दशक में पहुंच रहे हैं। हमें अपनी अर्थनीतियों को नौकरशाही के भरोसे नहीं छोड़ना चाहिए।
हमने जब आंकड़ों को बारीकी से देखा और विशेषज्ञों से चर्चा की कि कहां चूक गये, तो सबसे बड़ी गिरावट उत्पादन क्षेत्र में दिखी। कृषि को समृद्ध बनाने की हमारी सरकार दावे करती है मगर वह भी बुरी हालत में है। बुनियादी क्षेत्र के आठ उद्योगों में 5.1 फीसदी गिरावट आई है, जो पिछले एक दशक में सबसे खराब है। निश्चित रूप से इसका असर भविष्य में और भी डरावना होने वाला है। इन हालात के कारण ही उद्योग जगत फूंक फूंक के कदम बढ़ा रहा है। वह सरकारी सहूलियतों का इस्तेमाल अपने हित में तो कर रहा है मगर उद्योग में निवेश रोक रहा है। डा. मनमोहन सिंह ने जीडीपी की वृद्धि दर को चिंताजनक बताते हुए स्पष्ट किया कि जीडीपी के आंकड़े 4.5 फीसदी के निचले पायदान पर है। यह अस्वीकार्य है, देश को 8-9 फीसदी वृद्धि दर की आकांक्षा है। आर्थिक नीतियों में कुछ बदलाव करने मात्र से अर्थव्यवस्था पुनर्जीवित नहीं होगी। डा. सिंह ने जब भी बतौर अर्थशास्त्री आंकलन किया, वह सही निकला है। इस विषय पर उन्होंने जब भी टिप्पणी की है, वही नतीजे उनके बताये अनुकूल ही रहे हैं। मोदी-1 सरकार के शुरुआती कार्यकाल में जीडीपी बेहतरीन होने का कारण भी मनमोहन सिंह सरकार के उठाये गये कदम और नीतियां थीं। नोटबंदी के फैसले ने देश की अर्थव्यवस्था को बरबादी की राह पर धकेल दिया था। जिसने कई संकटों को जन्म दिया। यह बात नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी ने भी कही थी। आपको याद होगा कि नवंबर में ही मूडीज इन्वेस्टर्स सर्विस ने भारत की अर्थव्यवस्था की रेटिंग पर अपना नजरिया बदलते हुए इसे ‘स्थिर’ से ‘नकारात्मक’ की श्रेणी में रख दिया था। एजेंसी ने यह भी कहा था कि पहले के मुकाबले भारत की आर्थिक वृद्धि दर बेहद खराब होने वाली है। उसने भारत की जीडीपी का आंकलन 3.6 फीसदी रह जाने की बात भी कही थी। वही हुआ, वास्तव में भारत की जीडीपी के जो आंकड़े आये हैं, अर्थशास्त्री उससे काफी कम आंक रहे हैं। यही वजह है कि मूडीज ने भारत को निम्नतम स्तर पर रख दिया है।
अब तो विश्व बैंक ने भी अपनी रेटिंग में भारत को कम कर दिया है। यह सामान्य हालात के संकेत नहीं हैं। इस वक्त जमीनी हकीकत यह है कि लोग बैंकों पर भी बहुत भरोसा नहीं कर पा रहे। लोगों ने निवेश से हाथ रोक रखे हैं। सामान्य वर्ग खर्च पर अंकुश लगा रहा है क्योंकि वह भविष्य के खतरे से आशंकित है। यही कारण है कि तमाम सेक्टरों में खरीदी गिर रही है। जब लगातार आबादी बढ़े मगर खरीदी कम हो तो समझा जा सकता है कि उद्योग व्यापार बुरे दौर में जा रहे हैं। हमारे सियासी लोग ध्यान भटकाने के लिए सांप्रदायिक कार्ड खेलने में लगे हैं। यह मानना गलत है कि विश्व मंदी की चपेट में है। मंदी सिर्फ कुछ देशों तक सिमटी हुई है, जिनमें भारत अव्वल है। भारत सरकार के सांख्यकी मंत्रालय के आंकड़ों से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि बेरोजगारी इस वक्त पिछले 50 सालों के आंकड़ों को मात दे रही है। यह तब है, जबकि सरकार ने अनियोजित क्षेत्र के मजदूरों तक की गणना रोजगार में करना शुरू कर दिया है। तमाम उद्योगों ने अपना उत्पादन आधा या चौथाई कर दिया है।
हर उद्योग-व्यवसाय में मानव संसाधन पर खर्च कम करने का दबाव है। इन सब के बाद भी न तो उद्योगों की हालत सुधर रही और न ही रोजगार का कोई अन्य अवसर उपलब्ध हो रहा। केंद्र और राज्य सरकारों के करीब 25 लाख पद या तो खाली पड़े हैं या फिर उनमें से काफी कुछ को खत्म करने की प्रक्रिया चल रही है। चर्चा के दौरान नीति आयोग में जिम्मेदार पद पर तैनात हमारे एक मित्र अफसर ने व्यंगात्मक ढंग से सवाल उठाया कि योजनाएं सिर्फ प्रचार से तो फलित नहीं होती हैं! पेट्रोल पंपों पर लगे होर्डिंग न रोजगार बढ़ाते हैं और न ही पीएसयू को बेचने से रोक पाते हैं। इसके लिए एक प्रभावी कार्ययोजना और बड़े दिल से काम करने की जरूरत है। छोटी और स्वार्थी सोच आपका तो भला कर सकती है मगर देश, संस्थाओं और समाज का नहीं। हम उनकी बात से पूरी तरह इत्तफाक रखते हैं। जरूरत हमारे पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की अर्थनीतियों को डा. मनमोहन सिंह की कसौटी पर कसकर लागू करने की है, न कि उन्हें उपेक्षित करने की। बड़े दिल से सरकार को उन लोगों से सीखना समझना चाहिए, न कि तुच्छ सोच का परिचय देकर इतिहास को कलंकित करना चाहिए।

जय हिंद

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  (लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं।)

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