Martyrdom day special – Udham Singh’s martyrdom in freedom fight is unmatched: शहीदी दिवस विशेष-आजादी की लड़ाई में बेमिसाल है उधम सिंह की शहादत

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जीएं तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
शहीद उधम सिंह को याद करता हूँ तो दुष्यंत कुमार की एक $गज़ल का यह शेर मेरे जेहन में गूँज उठता है। लगता है दुष्यंत ने यह शेर शहीद उधम सिंह की शहादत से प्रेरणा प्राप्त कर लिखा होगा। उधम सिंह ने जलियांवाला बाग के नृशंस हत्याकांड का बदला लेने के लिए दुश्मन के देश में पहुँच कर अपना संकल्प पूरा किया। इसके लिए उन्होंने ने उचित समय के लिए सालों तक इंतजार किया। जलियांवाला हत्याकांड के 21 साल बाद साम्राज्यवादी देश ब्रिटेन की राजधानी लंदन में रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी के काक्सटन हॉल में 13 मार्च, 1940 को आयोजित एक समारोह में माईकल ओडवायर, जो हत्याकांड के समय पंजाब का गवर्नर था, पर गोलियां दाग दी। ओडवायर की मौके पर ही मौत हो गई। उधम सिंह ने यहां से भागने की कोशिश नहीं की और गिरफ्तारी दे दी। मुकदमें में उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई, 1940 को उसे पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई।
भारत का स्वतंत्रता आंदोलन अनेक क्रांतिकारियों की वीरगाथाओं से भरा हुआ है, जिन्होंने देश को आजाद करवाने वाले के लिए अदम्य साहस का परिचय दिया। लेकिन शहीद उधम सिंह की देशप्रेम की भावना, साहस और शहादत बेमिसाल है। उन्होंने दुष्यंत के शेर- मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए के अनुकूल साम्राज्यवादी देश में अपना संकल्प पूरा करने के बाद शहादत देकर एक मिसाल कायम कर दी। हालांकि उनके व्यक्तित्व को बदले की भावना से समझा नहीं जा सकता। वे साम्राज्यवादी लूट, शोषण, क्रूरता के प्रति आक्रोश से भरे हुए थे और सामाजिक बदलाव के लिए सम्राज्यवादी शासन को समाप्त कर देना चाहते थे।
उधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर, 1889 में पंजाब के संगरूर जि़ला के गांव सुनाम में हुआ था। मां-बाप ने उसका नाम शेर सिंह रखा था। उधम सिंह का बचपन दु:खों में बीता। उधम सिंह अभी तीन साल का भी  नहीं हुआ था कि मां का देहांत हो गया। 1907 में पिता भी चल बसे। इसके उधम सिंह व उसके भाई मुक्ता सिंह को अमृतसर के एक अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। 24 अक्तूबर, 1907 को सरदार छांगा सिंह और किशन सिंह रागी ने उन्हें वहां दाखिल करवाया। अनाथालय के दाखिला-खारिज रजिस्टर में उधम सिंह का  नाम शेर सिंह व भाई का नाम साधु सिंह दर्ज है। 1917 में उसके बड़े भाई का भी निधन हो गया, जिससे जि़ंदगी के थपेड़े सहने के लिए उधम सिंह बिल्कुल अकेला हो गया। इतिहासकारों की मानें तो इन सभी दु:खद घटनाओं ने भी उधम सिंह को मजबूत बनाया और उनमें संघर्ष की क्षमता बढ़ गई।
13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में इक_े हुए हजारों निहत्थे लोगों पर अंग्रेजों ने गोलियां बरसा कर नृशंसता की सारे हदें पार कर दी। उधम सिंह ने यह सारा मंजर देखा, तो उनका दिल दहल गया। उन्होंने खून से सनी मिट्टी को मस्तक से लगाकर संकल्प किया कि इस हत्याकांड के दोषियों को सबक सिखाएगा। अपने इस संकल्प को उसने मन में धारण कर लिया और उसे पूरा करने के लिए हरसंभव कोशिश की। हत्याकांड के लिए जिम्मेदार पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माईकल ओडवायर को मारने के लिए विदेश यात्रा की योजना बनाई। अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमरीका होते हुए ब्रिटेन पहुंचे।
पढ़ाई के दौरान वह चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू सहित क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आ गया था। अमरीका में कैलिफोर्निया, न्यूयार्क व शिकागो में रहते हुए गदरियों के सम्पर्क में रहा। क्रांतिकारियों के पास अंग्रेजी शासन से मुक्ति के लिए बलिदान देने का जज़्बा भी था और आज़ादी के बाद बराबरी और न्याय पर आधारित शासन की तस्वीर भी थी। उन्होंने अंग्रेजी शासन की आलोचना करने के साथ-साथ भारतीय समाज की विसंगतियों की भी तार्किक आलोचना की। सामंतशाही और जाति विभाजन को कठघरे में खड़ा किया। समाज में महिलाओं के लिए निर्धारित दोयम दर्जे को गुलाम मानसिकता का प्रतीक बताया। उधम सिंह के पास औपचारिक शिक्षा की कोई डिग्री तो नहीं थी, लेकिन किताबों के अध्ययन में विशेष रूचि थी। जिसके माध्यम से उन्होंने पूरी दुनिया के परिवर्तनों की जानकारी हासिल की।
उधम सिंह ने जीवन भर घुमंतु जीवन जीया। इसके साथ ही उनके नामों की दास्तान भी बड़ी दिलचस्प है। जिस नाम से उन्हें हम सब याद करते हैं, वह नाम उन्होंने 34 साल की अवस्था में तब रखा, जब 20मार्च, 1933 को उन्होंने पासपोर्ट बनवाया। कारण यह था कि 1927 में गदरी साहित्य व गैर-कानूनी हथियार रखने के जुर्म में उन पर मुकदमा बना और उनके बचपन के नाम-शेर सिंह, उधे सिंह, उदय सिंह, फ्रेंक ब्राजील आदि नाम पुलिस के रिकॉर्ड में आ चुके थे। उनका सबसे पसंदीदा नाम था-मोहम्मद सिंह आजाद। कैक्सटन हाल में ओडवायर को गोली मारने के बाद इसी नाम से उधम सिंह ने पुलिस को बयान दिया था। इस नाम का उन्होंने बाजू पर टैटू भी बनवाया था।
उधम सिंह के पसंदीदा नाम में आज़ादी के लिए सभी धर्म-संप्रदायों की एकता का उनका दर्शन स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। लेकिन विडंबना यह है कि आज शहीदों को ही जातियों की जंजीरों में बांधने में लगे हुए हैं। जिन्होंने साम्राज्यवादी शासन व मानसिक गुलामी सहित जाति, धर्म-सम्प्रदाय की जंजीरों को काटने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी, आज उन्हीं के द्वारा आजाद करवाए देश के लोग उन्हीं की विरासत के नाम पर उन्हें जातियों में जकडऩे में लगे हुए हैं।  शहीदी दिवस पर उन्हें याद करने का मतलब यह है कि उनके जीवन और विचारों को याद किया जाए। आज न्यायसंगत व समतामूलक समाज बनाने के रास्ते में जो चुनौतियां है, उन पर चर्चा करते हुए योजना बनाई जाए। उन्हें याद करने का मतलब जातीय मोर्चाबंदी व शक्ति-प्रदर्शन हरगिज नहीं होना चाहिए।
हिन्दी में उधम सिंह के जीवन व दस्तावेजों पर प्रामाणिक जानकारी के लिए किताबों का अभाव दिखाई देता है। इसे पूरा करने के लिए कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर डॉ. सुभाष चन्द्र ने महत्वपूर्ण किताब- शहीद उधम सिंह की आत्मकथा और चुनिंदा दस्तावेज लिखी, जिसे देस हरियाणा द्वारा प्रकाशित किया गया है। इस किताब की खूबी यह है कि किताब में आत्मकथात्मक शैली में उधम सिंह के जीवन को कथारस के साथ प्रस्तुत किया गया है। इस रचना का नाटकीय अंदाज पाठकों को अपनी तरफ खींचता है। इसके बावजूद एतिहासिक तथ्यों के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है। रंगकर्मी राजीव सान्याल ने तो इस रचना कईं बार मंचन किया है। किताब में उधम सिंह व उनसे जुड़ी चीजों के दुर्लभ चित्र, उनके पत्र, डॉ. सुभाष चन्द्र ने 30 अगस्त, 1927 में अमृतसर में पुलिस द्वारा दर्ज एफआईआर, गदर डायरेक्टरी में उधम सिंह का नाम,  उधम सिंह पर मुकद्दमा व अदालत के दस्तावेजों को संकलित किया है, जोकि आम पाठकों ही नहीं शोधकर्ताओं के लिए भी महत्वपूर्ण हैं।
उधम सिंह अपनी जेब में अपने मानस मित्र भगत सिंह का फोटो हमेशा रखते थे। इसके अलावा वे करतार सिंह सराभा के गीत की जो पंक्तियां हमेशा अपने पास रखते थे, आओ उन्हें समझें-
सेवा देश दी जिंदडि़ए बड़ी ओखी,
गल्लां करणियां ढ़ेर सुखल्लियां ने।
जिन्ना देश सेवा विच पैर पाइया
उन्नां लख मुसीबतां झल्लियां ने।


अरुण कुमार कैहरबा

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