Maan k hare haar hai Maan k jite jeet: मन के हारे हार है मन के जीते जीत!

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श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं- सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज। अब इसकी धार्मिक व्याख्या यही हो सकती है कि सभी धर्मों का परित्याग कर मेरी शरण में आओ। पर कभी गंभीरता पूर्वक सोचिए तो लगेगा कि कृष्ण जैसा युगान्तरकारी व्यक्ति ऐसी दर्पपूर्ण भरी बात कैसे कह सकता है। कृष्ण यहां कहना चाह रहे हैं कि शंकाओं का परित्याग करो और दृढ़ता के साथ एक मार्ग का अनुशरण करो। एक ऐसे मार्ग का जिसे तुम सही समझते हो, जो समाजोपयोगी हो और लोक कल्याणकारी हो। अपनी बात में इतनी दृढ़ता और विश्वास वही ला सकता है जो युगदृष्टा हो जिसे मानव मन की कमियां और खूबियां पता हों। इसीलिए कृष्ण ने आगे बढ़कर यह आह्वान किया। हम समाज में दृढ़ निश्चयी लोगों को देखते हैं तो पता चलता है कि वे जो ठान लेते हैं उसे पूरा कर के ही मानते हैं। हम यहां गणेश शंकर विद्यार्थी जी के जीवन के कुछ अंशों पर नजर डालते हैं। गणेश शंकर विद्यार्थी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अनूठे लड़ाके थे। वे न सिर्फ राजनीति के क्षेत्र में बल्कि सामाजिक क्षेत्र में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्घ भी संघर्ष करते रहे। वे गांधी जी के अनुयायी थे लेकिन भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद को अपने यहां शरण भी देते थे। वे एक सफल पत्रकार थे और उन्होंने अपने अखबार प्रताप को आजादी की लड़ाई से जोड़ दिया था। मालूम हो कि उनके प्रताप अखबार में अमर शहीद भगत सिंह ने भी काम किया था जब वे काकोरी कांड के बाद कानपुर जाकर भूमिगत हो गए थे।

यह सर्वविदित है कि आखिर में अगर आप ठान लें तो क्या नहीं कर सकते। पर फिर आपको दृढ़ता, ईमानदारी और निष्ठा दिखानी होगी। जिन लोगों ने समय के रथ का मार्ग प्रशस्त किया है उनमें ये सारे गुण स्वाभाविक रूप से थे। एक उदाहरण मैं देना चाहूंगा। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान खूब सक्रिय और कानपुर से प्रताप सरीखा अखबार निकालने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी को अन्याय से लडऩे की प्रेरणा बचपन से ही मिली हुई थी। एक बार जब वे ठान लेते तो उसे पूरा कर के ही मानते। उन दिनों जब पोस्ट  कार्ड का स्टांप आप कहीं नहीं इस्तेमाल कर सकते थे तब अगर आपने यह स्टांप किसी और सादे कागज पर लगा दिया तो आपका पत्र बैरंग मान लिया जाता था। विद्यार्थी जी को यह गलत लगा और एक बार उन्होंने अपने नाम एक ऐसा ही सरकारी स्टांप डाक टिकट सादे कागज में लगाकर खुद को ही पोस्ट किया। पत्र उनके पास पहुंचा पर बैरंग और उनसे पैसा लिया गया। उन्होंने पैसा चुकता कर दिया और उसके बाद कानपुर के पोस्ट मास्टर से लिखापढ़ी शुरू की। मामला अदालत में गया और अंतत विद्यार्थी जी की जीत हुई तथा डाक विभाग को अपना वह कानून बदलना पड़ा। पर इसके लिए उन्होंने अपने धीरज और अपनी दृढ़ता का परिचय दिया। महान आदमी के पीछे कोई न कोई अलग बात तो होती ही है। विद्यार्थी जी ने जब भी जो ठाना उसे पूरा किया। चाहे वह प्रताप अखबार निकालने का काम हो अथवा अपने शहर की जनता के नागरिक अधिकारों से लडऩे का।

विद्यार्थी जी की यह दृढ़ता उस समय भी देखने को मिली जब वे इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला इंटर कालेज से मैट्रिक की पढ़ाई के बाद कानपुर आ गए और यहां उन्होंने कानपुर टेजरी में नौकरी कर ली। एक दिन उन्हें फटे-पुराने नोट जलाने का काम दिया गया पर विद्यार्थी जी एक किताब पढऩे में ऐसे तल्लीन हो गए कि उन्हें याद ही नहीं रहा कि नोट भी जलाने हैं और उसी समय कलेक्टर आ गया। वह अंग्रेज अफसर एक काले आदमी को इस तरह किताब पढ़ते देखकर आग बबूला हो गया और बोला- तुमने अपना काम नहीं किया? विद्यार्थी जी ने कहा कि जनाब मैं अपना काम पूरा कर के ही जाऊँगा। अंग्रेज अफसर धमकाने के अंदाज में बोला- ध्यान रखना वर्ना मैं कामचोरों को बहुत दंड देता हूं। इतना सुनते ही विद्यार्थी जी ने कहा कि मैं कामचोर नहीं हूं लेकिन आपको भी ज्यादा नहीं बोलना चाहिए। इससे वह अंग्रेज भड़क गया और बोला तुमने ऐसी सिविल नाफरमानी कहां से सीखी? विद्यार्थी जी ने उसे अपनी पुस्तक दिखाते हुए कहा कि यहां से। वह पत्रिका कर्मयुग थी। जिसे आजादी की चाह वाले कुछ लोग निकालते थे। अफसर चीखा- वेल तुम कांग्रेसी है। मैं अभी तुमको नौकरी से निकालता हूं। विद्यार्थी जी ने कहा कि तुम क्या निकालोगे, मैं खुद ही तुम्हारी नौकरी छोड़ता हूं। वहा 1913 का साल था। विद्यार्थी जी ने नौकरी छोड़ दी और अपने कुछ मित्रों की सदाशयता और दोस्ती के सहारे प्रताप के नाम से एक साप्ताहिक रिसाला निकाला। घनघोर आर्थिक तंगी के दिन थे वे। लेकिन पंडित शिवनारायण मिश्र व तत्कालीन कानपुर कांग्रेस अध्यक्ष नारायण प्रसाद अरोड़ा की मदद से वे प्रताप निकालने में सफल रहे। विद्यार्थी जी दृढ़ निश्चयी थे और उन्होंने यह कठिन काम पूरा कर ही डाला। प्रताप बाद में दैनिक बना और भारतीय स्वाधीनता संग्राम का एक बड़ा अधिकार बना।

विद्यार्थी जी ने कुल 41 साल की जिंदगी पाई पर इतनी अल्प आयु में ही उन्होंने जो मापदंड स्थापित किए वे दुर्लभ हैं। साल 1913 में देवोत्थान एकादशी के दिन उन्होंने प्रताप अखबार निकाला तब उनकी उम्र महज 23 साल की थी और इसके 18 साल बाद वे शहीद हो गए मगर इतने कम दिनों में ही उन्होंने चंपारण के किसानों के दुखों के निवारण हेतु इतना लिखा कि गांधी जी उससे बहुत प्रभावित हुए थे और वे चंपारण गए। इसके अलावा मेवाड़ और पटियाला सरीखे देसी राज्यों की प्रजा के दुखों के निवारण हेतु विद्यार्थी जी ने उनके पक्ष में खड़े हुए। कई देसी राज्यों में तो प्रताप पर प्रतिबंध लगा दिया गया था मगर इससे प्रताप का सफर नहीं रुका और न ही विद्यार्थी जी का अपने सामाजिक कार्यों का भी। 14 मार्च 1931 को जब वे कानपुर के चौबेगोला मोहल्ले से एक हिंदू परिवार को निकाल कर ला रहे थे तो उन पर कुछ गुंडों ने हमला कर दिया और उनकी मृत्यु हो गई। हालांकि इसके पहले वे एक मुस्लिम परिवार को एक हिंदू बहुल मोहल्ले से सुरक्षित निकाल कर ले गए थे। कहते हैं कि जब उनकी शवयात्रा निकली तो अंग्रेजों के न चाहने के बावजूद लाखों हिंदू मुसलमानों ने उनकी शवयात्रा में भाग लिया और कसम खाई कि अब कानपुर में सांप्रदायिक दंगे नहीं होंगे। बटवारे के वक्त 1947 में कानपुर शांत रहा था। आखिर एक आदमी ने अपनी दृढ़ता का परिचय देते हुए अपने को कुर्बान तो कर दिया पर समाज को तो बचा लिया। यही है दृढ़ता और निष्ठा की निशानी।

शंभूनाथ शुक्ल

(लेखक वरिष्ठ संपादक रहें हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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