Let’s pay tribute to the soul of Indian politics!: चलिए भारतीय राजनीति की आत्मा को श्रद्धांजलि दें!

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हमारे बाबा और नाना दोनों ही टोपी लगाया करते थे। खादी पहनकर अपने मूल्यों, संस्कृति और संस्कारों को सहेजने की बात करते थे। वे हमको भारत के उन नेताओं की कहानियां सुनाते जिन्होंने देश को अंग्रेजी दासता से मुक्ति दिलाई। वे बताते थे कि कैसे पंडित जवाहर लाल नेहरू आदर्शों और नैतिक मूल्यों को लेकर संजीदा रहते थे। उन्होंने बताया था कि कैसे सरदार बल्लभ भाई पटेल और अबुल कलाम आजाद इस बात को लेकर चिंतित थे कि मुल्क की आजादी को बचाए रखा जाए। इसके लिए नैतिक मूल्यों और अंतरात्मा की आवाज को सुनने की जरूरत है। भारतीय राजनीति उच्चतम मूल्यों पर आधारित थी। उस वक्त के नेता अपने निजी स्वार्थों और हितों को त्यागने की राजनीति करते थे। उनके लिए न पद मायने रखता था और न ही अपना घर-परिवार। वे लोग देश और देशवासियों के हितों को लेकर इतने व्यथित रहते थे कि पंडित नेहरू सहित तमाम नेताओं ने शाही तामझाम छोड़कर खादी अपना ली थी। भारत गणराज्य कैसे अमन चैन से अपनी प्राकृतिक-सांस्कृतिक विरासत को संभालते हुए आगे बढ़ सके। अपने नाना और बाबा से सुने किस्सों पर अब जब गौर करता हूं तो लगता है कि हम भी उस उच्च मूल्यों वाली भारतीय राजनीति की श्रद्धांजलि सभा में शामिल हैं।
हम विश्व के सबसे बड़े संवैधानिक लोकतांत्रिक देश में रहते हैं। यह बात हमारे लिए गर्व का विषय है। हम उस देश में रहते हैं जो वेदों की रचना करता है। हम एक वैज्ञानिक धर्म के जरिए विश्वगुरु होने की बात करते हैं। हम नैतिक मूल्यों और संस्कारों को लेकर संजीदा रहने वाले देश के वासी हैं। हमारी अंतरात्मा हमें कोई भी गलत या अनैतिक कदम उठाने से रोकती है। आप पूछेंगे कि इतना सब होने के बाद भी आखिर ऐसा क्या हो गया कि हम आपसे भारतीय राजनीति की श्रद्धांजलि सभा में सम्मिलित होने की बात कर रहे हैं? वजह 70 के दशक में शुरू हुई बीमारी है, जो अब इतनी विकराल हो गई है कि भारतीय राजनीति की शक्ल बदरंग हो गई है। सियासत का वह वक्त खत्म हो गया, जब त्याग, बलिदान, संस्कार और नैतिकता की बात की जाती थी। हालांकि 23 मई को भाजपा नीत एनडीए सरकार बनने के साथ ही आशंका व्यक्त की जाने लगी थी कि अब कर्नाटक, मध्य प्रदेश और राजस्थान में जल्द ही भाजपा सरकार बनाने का काम होगा। गोवा में अधर में लटकी सरकार को मजबूत बनाने के लिए तोड़फोड़ की जाएगी।
एनडीए के नेता राजीव चंद्रशेखर के चार्टर्ड प्लेन से विधायकों को आलू-टमाटर की तरह ढोया जा रहा है। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री यदुरप्पा सरेआम कांग्रेसी विधायकों को खरीदने की बात करते हैं। विधायक अंतरात्मा की आवाज बोलकर साफ तौर पर खुद को राजनीति के बाजार में बेचते नजर आते हैं। देश की सर्वोच्च अदालत में एनडीए के वकील इन विधायकों को भाजपा में शामिल कराने के लिए कानूनी खेल खेलते दिखते हैं। गोवा में भी इसी तरह 10 विधायकों की खरीद पूरी हो गई। हमें याद आता है कि इसी तरह अरुणाचल प्रदेश में भी तीन साल पहले हुआ था। इस खेल को पूरा विश्व देख रहा है मगर इन कथित माननीयों का तुर्रा यह है कि वे जो भी कर रहे हैं वह अंतरात्मा की आवाज पर है। जब हम इन विधायकों की अंतरात्मा और कर्मों को देखते हैं तो दुख के सिवाय कुछ नजर नहीं आता। वजह साफ है कि इन विधायकों की अंतरात्मा उन्हें सिर्फ सत्ता में रहने और उसके लिए कुछ भी करने का दिशा निर्देश देती है। उनकी अंतरात्मा उस मतदाता के बारे में सोचने से मना करती है जिसने उसे मत दिया है। उन्हें किसी भी हद तक मूल्यों से अपने सुविधानुसार खेलने की इजाजत देती है।
किसी राजनीतिक दल में शामिल होने में कोई बुराई नहीं है। न ही इस बात में कोई दिक्कत होनी चाहिए कि कौन किस दल के प्रत्याशी के रूप में जीतकर किसी सदन का सदस्य बना है। लोकतंत्र में जनता को अपना प्रतिनिधि चुनने और हर प्रत्याशी को अपनी प्रत्याशा का पूर्ण अधिकार है। जनता जिसे जिस काम के लिए चुने, उसे उसी काम को करना चाहिए। इसका एक उदाहरण 1989 के लोकसभा के आम चुनाव का है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 197 सीटें हासिल कीं। कुछ दल कांग्रेस को सरकार बनाने में मदद करने को तैयार थे। राष्ट्रपति ने भी सबसे बड़े दल होने के कारण कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया मगर राजीव गांधी ने स्पष्ट किया कि जनता ने उन्हें विपक्ष में बैठने का जनादेश दिया है। वे किसी भी स्थिति में सरकार नहीं बनाएंगे। मजबूरन, राष्ट्रपति को 143 सीटें हासिल करने वाले जनता दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया। उस वक्त अपने मूल्यों को तिलांजलि देकर वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों दलों ने वीपी सिंह की जनता दल सरकार बनवाई। उस सरकार के तमाम गलत फैसलों के कारण सैकड़ों युवाओं ने आत्महत्या कर ली थी। देश अब तक उन विसंगतियों से जूझ रहा है। देश को संभलने में ही कई साल लग गए।
नैतिक और मूल्यों की राजनीति पर चर्चा में अगर हम सरदार पटेल का जिक्र नहीं करेंगे तो अन्याय होगा। उन्होंने 3 अगस्त 1947 को पंडित जवाहर लाल नेहरू को उनकी चिट्ठी के जवाब में लिखा था कि एक दूसरे के प्रति हमारा जो अनुराग और प्रेम रहा है तथा लगभग 30 वर्ष की हमारी जो अखंड मित्रता है उसे देखते हुए औपचारिकता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता। आशा है कि मेरी सेवाएं बाकी के जीवन के लिए आपके अधीन रहेंगी। आपको ध्येय की सिद्धि के लिए मेरी शुद्ध, सम्पूर्ण वफादारी और निष्ठा प्राप्त होगी, जिसके लिए आपके जैसा त्याग और बलिदान भारत के अन्य किसी पुरुष ने नहीं किया है। पटेल के इस पत्र से यह स्पष्ट होता है कि देश और देशवासियों के हितों को तब के नेता सर्वोपरि मानते थे। वे अपने पद या सुख के लिए नहीं बल्कि जनता के लिए सत्ता में आते थे। अब हालात बिल्कुल उलट हैं। सत्ता प्रतिष्ठान बनिया की दुकान की तरह हो गए हैं, जैसे क्या दोगे, बदले में क्या और कितना मिलेगा?  जो राजनीति देखने को मिल रही है, वो न तो राजनीतिक विचारधाराओं की दिख रही है और न ही नैतिक मूल्यों की।
संसद में एक मंत्री रामदास अठावले ने कहा कि उन्हें हवा भाजपा की लगी तो वह उधर आ गए। अगर उन्हें हवा कांग्रेस की दिखती तो वह उधर आ जाते। केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान भी उसी तरह के नेता हैं जो हर किसी की सरकार में मंत्री बनने को उतावले रहते हैं। न कोई सिद्धांत, न कोई नैतिक मूल्य और न ही अंतरात्मा की आवाज, सिर्फ सत्ता सुख की दोस्ती। इसी तरह देश के तमाम हिस्सों में तमाम नेता सत्ता को देखकर उधर भागते और तलवे चाटते नजर आते हैं।
अपने क्षेत्र की जनता के हितों के लिए संघर्ष करने तथा अंतरात्मा की आवाज सुनकर उनके विकास के लिए काम करने की भावना ही नहीं है। विपक्ष में बैठकर जनता की लड़ाई लड़ना उन्हें नहीं भाता, क्योंकि उनकी अंतरात्मा अब सिर्फ वातानूकूलित शाही कमरों में बसती है। उनकी अंतरात्मा मरते किसानों, रोटी और पानी के लिए तड़पते लोगों के दर्द को उनकी नियति बता देती है। अगर नेताओं की यही अंतरात्मा है तो निश्चित रूप से उसकी श्रद्धांजलि सभा में सम्मिलित होने जरूर जाऊंगा।

जय हिंद!
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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं )

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