Kuch karo na…कुछ करो ना 

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संस्कृत बड़ी पुरानी भाषा है। कहते हैं कि ये भारत में पनपी लगभग सारी भाषाओं के मूल  में है। हिंदुओं की तो ये ईश्वर से संवाद की भाषा है। विवाह की क़समें इसी में खाई जाती है। रस्में इसी में कराई जाती है। हिंदी का ज्ञान आपको कहीं ले कर नहीं जाता। अंग्रेज़ी का इंजन लगाकर ही आप अभिजात्य वर्ग में घुस सकते हैं। लेकिन अगर अंग्रेज़ी में गाय हांकते-हांकते अगर कभी-कभार आपने बीच-बीच में संस्कृत की बछिया भी छोड़ दी तो समझ लो कि आपने पूरब-पश्चिम दोनों जीत लिया। आप अमीरों-ग़रीबों में, देश-परदेश में सम्मान और श्रद्धा दोनों के पात्र गिने जाएँगे।
इस देवभाषा में एक श्लोक है:
विद्वत्वं च नृपत्वं च न एव तुल्ये कदाचन्।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥
यानि राजा तो अपने देश वालों से ही जी-हुज़ूरी करवा सकता है, लेकिन घोषित विद्वान किसी का भी दिमाग़ घुमा सकता है। पहले तो मुझे ये बात ऐसे ही उड़ी-उड़ाई लगती थी। लेकिन जबसे कोरोना वाइरस का चौतरफ़ा हमला  हुआ है, मुझे हांकने वालों के बहकाने की क्षमता पर शत-प्रतिशत भरोसा हो गया है।
इस आत्मबोध के पीछे विद्वान-विशेष ईसरायली लेखक युवल हरारी हैं। बराक ओबामा और बिल गेट्स जैसे चमकदार लोगों ने इनके किताब की तारीफ़ में क़सीदे गढ़े। बाक़ी कब पीछे रहने वाले थे। रातों-रात शोहरत पाई। मालामाल हो गए। बड़ी मासूमियत से बोले कि ये किताब तो मैंने अपने देश के बच्चों को इतिहास का ज्ञान देने की गरज से लिख मारा था। अंग्रेज़ी वेश धरते ही ये इतना धमाल मचाएगा, मुझे अंदाज़ा भी नहीं था।
मुझे विश्लेषकों की किताबें पढ़ने का ज़्यादा शौक़ नहीं है। वे किसी ज्वलंत मुद्दे पर एकतरफ़ा गोलीबारी करते हैं। ऐतिहासिक वृतांत को अपने पक्ष में तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं। आँकड़ों की बौछार भीगो देते हैं। पढ़ने वालों को लगता है कि इतनी मेहनत से बीज़ी फसल काटी है। ज्ञान का गट्ठर थोड़ा सिर पर लेकर नहीं फिरे तो क्या फ़ायदा?
मुझे हरारी की ये बात बहुत जँची थी कि इक्कीसवीं सदी में दुनियाँ के सामने तीन बड़ी चुनौतियाँ है – क्लाइमेट चेंज, नूक्लीअर वार और टेक्नलॉजिकल उथल-पुथल। कई जगह इसका ज़िक्र भी किया। सुनने वाले बड़े प्रभावित भी हुए। लेकिन जब से चीन के वुहान शहर से चलकर करोना वाइरस ने दुनियाँ को अपने निशाने पर लिया है, समझ में आ गया है कि भविष्य के बारे में सिर्फ़ क़यास लगाए जा सकते हैं। तीन महीने भी नहीं बीते कि दो सौ से ऊपर देश इस अदृश्य और चालाक क़िस्म के वाइरस से त्राही-माम कर रहे हैं। ट्रेसिंग-टेस्टिंग-टेस्टिंग के ज़रिए जर्मनी ने मृत्यु-दर को अब तक  0.5% पर रोक रखा है। चीन लाक्डाउन और इलाज के ज़रिए स्थिति पर नियंत्रण का दावा कर रहा है। यूरोप और यूएस चित्त हैं।
कोरोना थूक और छींक के ज़रिए फैलता है। आदमी-आदमी में तीन फ़ीट की दूरी रहे, इसके लिए सोशल डिसटेंसिंग रखने का कहा जा रहा है। कहा क्या जा रहा है, इसके लिए पॉज़ का बटन दबा दिया गया है। जो जहाँ हैं, 14 अप्रैल तक वहीं ठहर जाओ। कोरोना का लक्षण चौदह दिन में दिख जाता है। बीमारी को पहचान कर ठीक कर दिया जाएगा। बाक़ी बच जाएँगे। उम्मीद की जा रही है कि लाक्डाउन से संक्रमण का चक्र टूट जाएगा।
ये एक अदृश्य और ताकतवर दुश्मन से लड़ाई जैसी स्थिति है जिसने आदमी से आदमी को ख़तरा उत्पन्न कर दिया है। डाक्टर, नर्स, पुलिस एवं ज़रूरी सेवाओं में लगे लोग मोर्चा सम्भाले हुए हैं। ऐसे में लोग उनमें एक और प्रसिद्ध लेखक नसीम निकलस तलेब की किताब ‘एंटी-फ़्रेजाएल’ का चरित्र ढूँढ रहे हैं। उनसे विपरीत और प्रवर्तनशील परिस्थितियों में और भी प्रभावी साबित होने की अपेक्षा कर रहे हैं। बीमारी के अलावा अन्य मानवीय समस्याएँ भी उत्पन्न हो रही है। रोज़ खाने-कमाने वालों ने अपने घर का रास्ता पकड़ लिया है। आशंका जतायी जा रही है कि इससे संक्रमण को और गति और विस्तार मिलेगा। किसी को ठीक-ठीक अंदाजा नहीं है कि आने वाले समय में ऊँट किस करवट बैठेगा। कोशिश होती रहनी चाहिए कि संक्रमण सीमित रहे, गम्भीर रूप से बीमार को इलाज मिलता रहे, जो नोन-कोविद19 समस्याएँ उत्पन्न हो रही है उसका समाधान होता रहे। सरकार इस काम में दिन-रात एक कर रही है। हरियाणा में पुलिस का मानवीय चेहरा देखने को मिला है। लोगों के प्रति इसका रवैया संवेदना भरा रहा है। हेल्पलाइन सम्भाल रही है। अन्य विभागों से मिलकर कोई भूखा ना सोए और लाइलाज ना रहे इस मुहिम में जुटी है।
इस असाधारण स्थिति में सबको अपनी क्षमता के हिसाब से सहयोग करना चाहिए।
एक तो भय का माहौल ना बनाएँ। अब तक के अनुभव से यही पता चला है कि ये सर्दी-जुकाम-बुख़ार की बीमारी है। सौ में अस्सी को तो पता भी नहीं चलता कि कुछ हुआ भी है। चौदह को हो सकता है डाक्टर के पास जाना पड़े। पाँच हो सकता है आईसीयू में जाएँ। दो को वेंटिलेटर की ज़रूरत पड़े। एक से दो जो बूढ़े हैं या पहले से ही जानलेवा बीमारी से ग्रसित हैं, जान गँवा सकते हैं। स्टैन्फ़र्ड यूनिवर्सिटी के विश्लेषकों का कहना है कि मरने वाले की संख्या दस गुना बढ़ी-चढ़ी है क्योंकि जो संक्रमित अस्पताल नहीं आए उनका तो कोई हिसाब ही नहीं है। इसकी तुलना में साल 2003 में फैली SARS, जो कि एक कोरोनावाइरस ही था, कई गुना ज़्यादा जानलेवा था। इसमें मरने वालों की संख्या सौ में दस थी। ये भी समझने वाली बात है 2017 के आँकड़ों के मुताबिक़ दुनियाँ में 32% लोग हृदय रोग से मरे, कैन्सर से 17%, फेफड़े की बीमारी से 7% और फेफड़े में संक्रमण से 4.8%। सो घबराने के बजाय घर बैठें। एक शोध के मुताबिक़ एक संक्रमित आदमी अगर खुला घूमेगा तो पाँच दिन ढाई अन्य को तीस दिन में 406 को संक्रमित करेगा, अगर घर बैठ गया तो तीस दिन में ढाई को ही। दूसरे, वटस-एप, वट्स-एप खेलने के बजाय ये देखें कि कैसे इस विपत्ति की घड़ी में आप ज़रूरतमंदों के काम आ सकते हैं। एक अन्य शोध के मुताबिक़ देने से रोग-प्रतिरोधी क्षमता बढ़ती है, मूड अच्छा रहता है, उम्र की रफ़्तार धीमी पड़ती है, तनाव घटता है। फिर देर किस बात की?
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