India is so clean! भारत कितना स्वच्छ है!

0
224

2 अक्टूबर को बीते अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है। 2014 की इसी तारिख को देश में स्वच्छ भारत मिशन शुरू किया गया था। तब से लेकर अब तक हर साल 2 अक्टूबर के पास आते ही देश में स्वच्छता का नारा बुलंदियां पकड़ने लगता है। फिर किसी साफ रोड पर झाडू चलाई जाती है और देश को स्वच्छ बनाने के खोखले दावे किए जाते हैं। ऐसे दावे अपने प्रकार के एकलौते दावे नहीं हैं। लेकिन सवाल यह है- कि क्या भारत सच में इतना स्वच्छ हो गया है? लेकिन अगर भारत उतना स्वच्छ नहीं है जितना दावा किया जा रहा है तो इससे दो सवाल जन्म लेते हैं। पहला यह कि आखिर हम दूसरे देशों की तुलना में कितने गंदे हैं? और दूसरा यह कि इस गंदगी का प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है या नहीं? आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की वेबसाइट अवर वर्ल्ड इन डेटा के अनुसार अनुमानित 775000 लोग 2017 में खराब स्वच्छता के परिणामस्वरूप समय से पहले मर गए थे। यह वैश्विक मौतों का 1.4 प्रतिशत था। कम आय वाले देशों में यह दर 5 प्रतिशत तक है।
भारत में वायु प्रदूषण (घर के अंदर और बाहर दोनों) के साथ-साथ खराब स्वच्छता, असुरक्षित पानी के स्रोत और हाथ धोने की सुविधाओं का ना होने के कारण हुई मौतें उच्च रक्तचाप, उच्च रक्त मधुमय और धूम्रपान के कारण हुईं मौतों के जोखिमों के बराबर है। इतना ही नहीं, असुरक्षित स्वच्छता के कारण मौतों का हिस्सा पिछले कुछ वर्षों में लगातार बढ़ रहा है। भारत में मौतों का यह हिस्सा बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे देशों से अधिक है। हालांकि भारत में यह आंकड़ा लगातार गिर रहा था, लेकिन 2015 के बाद से इसकी गिरावट की गति धीमी हो गई है। सनद रहे कि ये आंकड़े केवल 2017 तक के ही हैं जो स्वास्थ्य मैट्रिक्स और मूल्यांकन संस्थान (आईएचएमई) के ग्लोबल डिसीज बर्डन अध्ययन के पास नवीनतम उपलब्ध हैं।
यह अध्ययन लैंसेट में प्रकाशित किया गया था। भारत में असुरक्षित स्वच्छता से इतने लोग इसीलिए मर जाते हैं क्योंकि यहां एक बड़ी आबादी के पास बेहतर स्वच्छता की पहुंच नहीं है। बेहतर स्वच्छता से मेरा मतलब है- मानव संपर्क से मानव उत्सर्जन का स्वच्छ अलगाव, बेहतर फ्लश सुविधाएं (पाइप से सीवर सिस्टम, सेप्टिक टैंक, पिट लैट्रीन) और कम्पोस्टिंग शौचालय जैसी सुविधाएं। 2015 तक पूरी दुनिया की 68 प्रतिशत आबादी के पास बेहतर स्वच्छता सुविधाएं थीं। तब भी लगभग एक-तिहाई लोगों की पहुंच में बेहतर स्वच्छता सुविधाएं नहीं थीं। बात करें भारत की तो यहां केवल 40 प्रतिशत ही आबादी के पास बेहतर स्वच्छता सुविधाएं हैं। यह श्रीलंका के 95 प्रतिशत और यहां तक की पाकिस्तान और बांग्लादेश के 60 प्रतिशत से अधिक के सामने बहुत कम है। यहां भारत काफी नीचे जिम्बाब्वे और केन्या जैसे देशों के साथ खड़ा है और जाम्बिया और सेनेगल जैसे देशों से नीचे है। आम तौर पर बेहतर स्वच्छता की पहुंच आय के उच्च स्तर के साथ बढ़ती है, लेकिन पाकिस्तान, बांग्लादेश, रवांडा और नेपाल ने प्रति व्यक्ति जीडीपी कम होने के बावजूद बेहतर काम किया है। भारत के प्रति व्यक्ति जीडीपी के पास उज्बेकिस्तान में 100 प्रतिशत आबादी को बेहतर स्वच्छता की पहुंच है, जबकि वियतनाम और म्यांमार में यह स्तर भारत से दोगुना है।
खराब स्वच्छता और प्रदूषण का सार्वजनिक स्वास्थ्य मानकों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बाल स्टंटिंग (उम्र के अनुसार कम ऊंचाई होना) कुपोषण का संकेत है और आंकड़े बताते हैं कि स्टंटिंग उन देशों (जैसे भारत) में अधिक है जहां बेहतर स्वच्छता तक पहुंच कम है। इन सबके बाद कौन कहेगा कि भारत स्वच्छता के सभी मानकों में अव्वल है? और अब दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न- कि क्या स्वच्छता ना होने का प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है? निश्चित ही पड़ता है। विश्व बैंक के अनुसार स्वच्छता की कमी आर्थिक विकास को भी पीछे करती है। 2006 में किया गया विश्व बैंक का एक अध्ययन बताता है कि भारत को इसकी $53.8 बिलियन या वार्षिक जीडीपी का 6.4 प्रतिशत हिस्सा चुकाना पड़ा था। यहां तक कि अगर यह प्रतिशत (जीडीपी के) समान भी रहा है, तो इस समय यह नुकसान 12 लाख करोड़ करीब का होगा।
डब्ल्यूएचओ के अनुसार- स्वच्छता पर खर्च किए गए प्रत्येक डॉलर से उपचार, स्वास्थ्य देखभाल की लागत और अधिक उत्पादक दिनों से लाभ पर $9 की बचत होती है। निश्चित तौर पर सरकारों को दिखावे से ज्यादा करावे की तरफ झुकाव रखना चाहिए। स्वच्छता पर सबका हक है और इससे अर्थव्यवस्था को भी बचत होती है। नारों से कभी किसा का भला नहीं हुआ, ना हो रहा है और ना होगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

SHARE