In this society of men, ‘Chhappak!’ पुरुषों के इस समाज में ‘छपाक!’

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दीपिका पादुकोणे की बेहतरीन फिल्म ‘छपाक’ बॉक्स ऑफिस पर उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। यह फिल्म एक ऐसे सामाजिक विषय को उजागर करती है, जिस पर बात करने में भी लोग सहम जाते हैं। एक गोरे-सुंदर, मासूम मुखड़े को पल भर में नष्ट कर देना, यह सोचने मात्र से दिल दहल जाता है। कितने क्रूर और निर्दयी होते हैं, वे लोग जो प्रकृति की एक सुंदर कृति को यूं खाक कर देते हैं। आप जिसे प्रेम करते हैं, जिसको पाने के लिए दिन-रात एक किए रहते हैं, उसके चेहरे को बस इसलिए बिगाड़ देते हैं, कि अगर इस पर मेरा अधिकार नहीं होगा तो कोई और भी इसे पा नहीं सकता। अपनी ‘मर्दानगी’ को जताने का कितना अश्लील और फूहड़ है, यह तरीका। दरअसल यह एक हवश है, जो एक पुरुष को सब कुछ पा लेने के लिए बढ़ावा देती है, इसमें वह भूल जाता है, कि किसी को पाने के लिए अपने समर्पण से उसका दिल जीता जाता है। उस पर शारीरिक हमला नहीं किया जाता। ऐसे में एक पशु और सभ्य मनुष्य में फर्क कहाँ रहा।

‘छपाक’ फिल्म लक्ष्मी अग्रवाल नाम की एक ऐसी लड़की के जीवन पर बनी है, जिसने तेज़ाब हमले के बाद विकृत हुए अपने चेहरे को लेकर संघर्ष किया। 2005 में जब उसकी उम्र सिर्फ 15 साल की थी, नमेद नईम खान नाम के 32 वर्षीय एक अधेड़ और पशु आचरण वाले एक आदमी ने दिल्ली की खान मार्केट में उसके चेहरे पर तेज़ाब फेंका था। वह बच तो गई, लेकिन उसका चेहरा बुरी तरह जल गया। लक्ष्मी ने अपनी जिजीविषा से आगे की ज़िंदगी शुरू की। और तमाम पीड़ित महिलाओं के लिए वह एक ‘आईकॉन’ बनी। तेज़ाब के फेके जाने की इसी वीभत्सता को लेकर मेघना गुलजार द्वारा बनाई गई यह फिल्म लक्ष्मी अग्रवाल की संघर्षगाथा है। फिल्म में लक्ष्मी का रोल दीपिका पादुकोणे ने निभाया है।

एक संघर्षरत महिला के जीवन पर बनी यह फिल्म मार्केट में नहीं चल पाने की एक वजह तो हमारे समाज की पुरुष ग्रंथि है, जिसमे सिर्फ हवश है। इसके पीछे पुरुष की यह मानसिकता छिपी है, कि ‘तूने अपना समर्पण मेरे समक्ष नहीं किया, तो किसी और की भी नहीं हो सकती!’ जिस समाज में स्त्री-पुरुष के बीच समानता, बराबरी और न्याय के मूल्य नहीं होते, वहाँ यही होता जाता है। हम स्त्री को हीन समझते हैं, उसे दोयम दर्जे का समझते हैं। इसलिए उसके प्रति दया का भाव तो हमारे अंदर हो सकता है, लेकिन बराबरी का नहीं। जब किसी के साथ बराबरी का भाव नहीं होगा, तो हम उससे प्रेम नहीं कर सकते। सिर्फ उसको अपने उपभोग की वस्तु ही बना सकते हैं। ऐसे में या तो ‘यूज़ एंड थ्रो’ का भाव विकसित होगा, यानि मतलब निकाल गया तो पहचानते नहीं। अथवा अगर पुरुष उसे नहीं पा सका, तो उसका सब कुछ बिगाड़ देने का भाव पैदा होता है, जैसा कि इस तरह से तेजाबी हमले की शिकार लड़कियों के साथ होता है।

समाज से प्रेम, ममता, परस्पर आदर-सम्मान के नष्ट होने से ऐसा ही होता है। हम पा रहे हैं, कि इस तरह के भाव निरंतर क्षीण हो रहे हैं। यही कारण है, कि स्त्री के प्रति हम अधिक क्रूर हुए हैं। और जिस किसी क्षेत्र में स्त्री की प्रधानता होती है, उससे हम कन्नी काट जाते हैं। स्त्री की सुप्रीमेसी दिखाने वाली फिल्मों का भी यही हश्र हुआ है। यहाँ तक कि ‘मणिकर्णिका’ जैसी फिल्में भी पिट गईं। जिसमें मनोरंजन था, ग्लैमर से भरपूर दृश्य थे और एक ऐसी नायिका के बलिदान की कहानी थी, जिसकी वीरता का लोहा उस समय के अंग्रेज़ शासकों ने भी माना था। ‘मणिकर्णिका’ उर्फ रानी लक्ष्मीबाई से तो अंग्रेज़ इतने भयभीत हो गए थे, कि उन्होंने हुक्मनामा जारी किया था, कि कोई भी अपनी बेटी का नाम लक्ष्मी नहीं रख सकता था। यह उस रानी की कहानी थी, जिसे भारतीय समाज आदर्श मानता है, लेकिन फिल्म नहीं चली। यह फिल्म जनवरी 2019 में आई थी। जबकि कोई 67 साल पहले 1953 में सोहराब मोदी ने इसी विषय पर ‘झाँसी की रानी’ बनाई थी, जो खूब हिट हुई थी। इससे ज़ाहिर है, कि समाज के मूल्यों और सोच में गिरावट आई है।

सत्य तो यह है, कि आज के समाज में सुंदर स्त्री को पाना पुरुष समाज अपना अधिकार मानता है। वह स्त्री में सिर्फ शारीरिक सुंदरता देखता है। कोई स्त्री बहुत बुद्धिमती है, बहुत विद्वान है, पढ़ी-लिखी है, लेकिन पुरुष समाज को दिलचस्पी उस स्त्री में होती है, जो खूब गोरी हो और अति-सुंदर हो। वह वैसी ही फिल्मों में दिलचस्पी लेता है, जिसमें स्त्री सिर्फ मनोरंजन की वस्तु हो और पुरुष मनोरंजन का उपभोक्ता या कर्ता। इसीलिए फिल्मों में हीरोइन अपने शरीर का प्रदर्शन दर्शकों के मनोरंजन के लिए करती है और हीरो अपने शारीरिक सौष्ठव को दिखाने के लिए। सलमान शर्ट उतारते हैं अपनी बलिष्ठ और पुष्ट मांसपेशियाँ दिखाने के लिए जबकि मलाइका अरोड़ा मुन्नी को बदनाम करने के लिए।

तब ऐसे समाज में भला कहाँ से स्त्री के संघर्ष में पुरुषों को रुचि होगी। वे दिन हवा हुए जब स्मिता पाटील और शबाना आज़मी की ‘अर्थ’ चला करती थी। अब तो फिल्म का मतलब है विशुद्ध मनोरंजन। स्त्री पात्र मनोरंजन करेगी और पुरुष पात्र उस मनोरंजन का सुख लेगा। ऐसे विकृत समाज में पुरुष को लगता है, कि बस ‘छपाक’ से लड़की के चेहरे पर तेज़ाब फेक कर उसका गुरूर निकाल दिया। अपने को ‘हूर की परी’ समझती थी, अब जीवन भर भुगतेगी। मेघना गुलजार ने बड़ी हिम्मत से इतना बेहतरीन सामाजिक मुद्दा उठाया था और दीपिका ने अपनी पूरी संजीदगी के साथ इसमें अभिनय किया, लेकिन मर्दानगी के ‘थोथे’ अहंकार में डूबे समाज को पौरुष के प्रतीक ‘ताना जी’ पर आधारित गल्प फिल्में ही पसंद आती हैं, ‘छपाक’ नहीं।

ताना जी मालसुरे निश्चित ही 17 वीं सदी के एक अत्यंत वीर योद्धा थे। शिवाजी की अधिकांश युद्धों में वे लड़े। जीते भी। सिंहगढ़ किला जीतने की कोशिश में उनकी मृत्यु हो गई। किला उन्होंने जीत लिया, जान की बाज़ी लगा कर। तब शिवाजी ने दुखी होकर कहा था, कि “गढ़ आईला, सिंह गैला! यानि गढ़ तो आया, किन्तु सिंह गया। इसीलिए उस किले का नाम सिंहगढ़ पड़ा। इतिहास पर आधारित इस फिल्म में एक वीर योद्धा को ग्लैमर और मनोरंजन के साथ दिखाया गया है। ऊपर से भाजपा शासित सरकारों ने इसे टैक्स फ्री भी कर दिया, इसलिए फिल्म ने आशातीत सफलता पा ली।

किन्तु यह विचित्र है, कि ताना जी मालसुरे जैसे मराठे योद्धा की फिल्म को भाजपा पसंद कर रही है, और टैक्स से छूट दे रही है। दूसरी तरफ ‘छपाक’ को मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने टैक्स फ्री कर दिया है। यह एक तरह से पाले खींचना है। ताना जी को भाजपा शासित उत्तर प्रदेश की सरकार ने इसलिए टैक्स फ्री किया है, क्योंकि यह एक हिन्दू योद्धा की कहानी है, जिसने मुगलों से किला जीता। यानि मुसलमानों पर हिंदुओं की जीत। लेकिन वे यह भूल जाते हैं, कि किले की लड़ाई में मुगल बादशाह औरंगजेब की तरफ से जो सेनापति लड़ा था, वह भी एक हिन्दू राजपूत उदय भान राठौड़ था। इसलिए इसे हिन्दू-मुस्लिम पाले में रखना शिवाजी की परंपरा का उपहास उड़ाना है। उधर कांग्रेस ने छपाक की विषयवस्तु से प्रेरित होकर उसे टैक्स फ्री नहीं किया, बल्कि उसके पीछे मानसिकता यह थी, कि चूंकि दीपिका पादुकोणे फिल्म के प्रदर्शन के पूर्व जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में आंदोलन कर रहे और हिंसा के शिकार छात्रों से मिलने गई थीं, इसलिए वे परोक्ष रूप से केंद्र की भाजपा सरकार की विरोधी प्रतीत हुईं। इसलिए उसे टैक्स फ्री किया। मगर किसी ने भी यह समझने की कोशिश नहीं की, कि पिछले तीस वर्षों से निरंतर हमारा समाज जिस तरह से महिलाओं, दलितों, गरीबों के प्रति हमलावर हुआ है, उसी का नतीजा है, कि छपाक डूब जाती है और ताना जी उड़ने लगती है।

-शंभूनाथ शुक्ल

(लेखक वरिष्ठ संपादक हैं।)

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