How strong is the foundation of the Indian economy? भारतीय अर्थव्यवस्था की नींव कितनी मजबूत?

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पिछले लेख में हमने वित्त वर्ष 2021 के आंकड़ों पर चर्चा की थी, लेकिन इस बात में शायद ही कोई शंका है कि हालिया आंकड़े प्रत्यक्ष रूप से कोविड की देन हैं। हमें भारतीय अर्थव्यवस्था की असल स्थिति जानने के कोविड पूर्व के आंकड़ों पर ध्यान देना होगा। पिछले एक दशक में भारत की अर्थव्यवस्था ने तेजी से आकाश की बुलंदियां छुईं और फिर उतनी तेजी से वह अर्श से फर्श पर आ गई। पिछले एक दशक में भारत की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर काफी हद तक एक उल्टे वी (Ʌ) आकार की रही है। हम अक्सर नेताओं को यह आश्वासन देते हुए सुनते हैं कि “अर्थव्यवस्था की नींव मजबूत है”, दरअसल अर्थव्यवस्था में बढ़त या नुक्सान को देखने का सबसे अच्छा तरीका शायद तथाकथित “अर्थव्यवस्था के मूल सिद्धांत” ही हैं। चलिए हम अर्थव्यवस्था की कुछ नींवों पर नजर डालते हैं और परखते हैं कि वो मौजूदा प्रधानमंत्री के कार्यकाल में कितनी मजबूत रही हैं। इस क्रम में पहली नींव जीडीपी है जिसकी वृद्धि दर प्रधानमंत्री मोदी के इन सातवर्षों के कार्यकाल में से पिछले पांचवर्षों से लगातार गिरती जा रही है। आरबीआई की वित्त वर्ष 2021 की वार्षिक रिपोर्ट भारत की विकास कहानी में महत्वपूर्ण मोड़ को दर्शाती है। इसमें दो बातें गौर करने वाली हैं। पहली कि वैश्विक वित्तीय संकट के कारण आई गिरावट के बाद, भारतीय अर्थव्यवस्था ने मार्च 2013 से फिर से उछाल मारना शुरू किया।लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह रिकवरी 2016-17 की तीसरी तिमाही (अक्टूबर से दिसंबर) के बाद से मंदी में बदल गई। सनद रहे कि इसी समय 8 नवंबर, 2016 को रात भर में भारत की 86 प्रतिशत मुद्रा को बंद करने के सरकार के फैसले को कई विशेषज्ञ ट्रिगर के रूप में देखते हैं जिसने भारत की वृद्धि को मंदी में बदल दिया। नोटबंदी की तबाही और खराब तरीके से डिजाइन और जल्दबाजी में लागू किया गया जीएसटी एक ऐसी अर्थव्यवस्था में फैल गया जो पहले से ही बैंकिंग प्रणाली में बड़े पैमाने पर खराब ऋणों से जूझ रही थी। इसका नतीजा यह हुआ कि जो जीडीपी विकास दर वित्त वर्ष 2017 में 8 प्रतिशत थीवह वित्त वर्ष 2020 तक आधी होकर मात्र 4 प्रतिशत रह गई, यह कोविड-19 के देश में आने से ठीक पहले का समय था। इसके अलावा प्रति व्यक्ति जीडीपी भी एक महत्वपूर्ण कारक है। कागजों पर प्रति व्यक्ति जीडीपी हमें अर्थव्यवस्था में एक औसत व्यक्ति की आय के बारे में बताता है। मैं व्यक्तिगत तौर पर प्रति व्यक्ति जीडीपी के पक्ष में नहीं। मेरा निजी तौर पर मानना है कि प्रति व्यक्ति जीडीपी हमें बस इतना बताता है कि मुकेश अंबानी और एक मनरेगा मजदूर की आय एक बराबर है। यह एक ऐसा समय है जब भारतीय अर्थव्यवस्था में असमानताएं अपने चरम पर हैं।

भारत का प्रति व्यक्ति जीडीपी मात्र 99,700 रुपये रह गया है, जो 2016-17 के स्तर पर है। प्रति व्यक्ति-जीडीपी के मामले में बांग्लादेश ने भी भारत को पीछे छोड़ दिया है।सवाल बड़ा जटिल है कि अगर अमीरों की कमाई बढ़ रही थी (डी-स्ट्रीट इस बात की गवाह है), तो किसकी आय में कमी आने की वजह से भारत का प्रति व्यक्ति जीडीपी इतना गिर गया?यह सवाल जितना जटिल है, इसका जवाब उतना ही सरल। वास्तव में गरीबों और मध्यम वर्ग की कमाई गिरने की वजह से भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी इतनी कम हो गई है। किसी भी अर्थव्यवस्था में ऐसे क्षण बहुत कम ही आते हैं जब साल बीतते हुए वहां के लोग गरीब हो जाते हैं। 

इसके अलावा बेरोजगारी भारतीय अर्थव्यवस्था की वो नींव है जिसने संभवत: सबसे खराब प्रदर्शन किया है। 2017-18 में सरकार के अपने सर्वेक्षणों के हवाले से यह खबर आई कि भारत की बेरोजगारी दर अपने 45 साल के सर्वोच्च स्तर पर है। इसके बाद 2019 में इससे भी ज्यादा चिंताजनक खबर आई कि 2012 और 2018 के बीचनियोजित लोगों की कुल संख्या में 90 लाख की गिरावट आई। यह आजाद भारत के इतिहास में कुल रोजगार में गिरावट का ऐसा पहला उदाहरण था। 2-3 प्रतिशतकी बेरोज़गारी दर की परम्परा के विपरीत, भारत ने नियमित रूप से 67 प्रतिशत के करीब बेरोज़गारी दर देखना शुरू कर दिया। यह बात तो तय है कि कमजोर विकास संभावनाओं के साथ, बेरोजगारी सरकार के लिए अपने मौजूदा कार्यकाल में सबसे बड़ा सिरदर्द है। 

बेरोजगारी और उसके बढ़ती महंगाई लोगों को कहा लिए जा रही है? अर्थविद मिल्टन फ्रीडमैन कहते थे कि महंगाई कानून के बिना लगाया जाने वाला टैक्स है। अपने पहले तीन वर्षों मेंसरकार को कच्चे तेल की बहुत कम कीमतों से बहुत लाभ हुआ। 2011 से 2014 के दौरान 110 डॉलर प्रति बैरल के करीब रहने के बाद, तेल की कीमतें2015 में तेजी से गिरकर सिर्फ 85 डॉलर प्रति बैरल और 2017 और 2018 में और कम होकर 50 डॉलर प्रति बैरल हो गईं।तेल की कीमतों में अचानक आई तेज गिरावट ने सरकार को देश में उच्च खुदरा मुद्रास्फीति को पूरी तरह से नियंत्रित करने में मदद की। साथ हीइसने सरकार को ईंधन पर अतिरिक्त कर एकत्र करने की छूट भी दी। लेकिन 2019 की अंतिम तिमाही के बाद से, भारत लगातार उच्च खुदरा मुद्रास्फीति का सामना कर रहा है। यहां तक ​​​​कि 2020 में लॉकडाउन के कारण मांग में गिरावट भी मुद्रास्फीति की वृद्धि को नहीं घटा सकी। भारत उन कुछ उन्नत और उभरती अर्थव्यवस्थाओं में से एक था जिसने 2019 के अंत से लगातार मुद्रास्फीति को आरबीआई की सीमा से ऊपर या उसके नजदीक ही देखा है। इन सबके अलावा राजकोषीय घाटा (फिस्कल डेफिसिट) भी अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण नींव है, इससे हमें सरकारी वित्त के स्वास्थ्य की जानकारी और उस राशि का पता चलता है जिसे सरकार को अपने खर्चों को पूरा करने के लिए बाजार से उधार लेना पड़ा। उच्च राजकोषीय घाटे के दो नुकसान होते हैं। पहला कि सरकारी उधारी निजी व्यवसायों को उधार देने के लिए उपलब्ध राशि को कम करती है; और इससे ऐसे ऋणों की ब्याज दर भी बढ़ जाती है। और दूसरा किअतिरिक्त उधारी उस समग्र ऋण को बढ़ाती है जिसे सरकार को चुकाना होता है। उच्च ऋण स्तर सरकारी करों को अक्सर बढ़ा देता है। कागज पर, भारत के राजकोषीय घाटे का स्तर निर्धारित मानदंडों से थोड़ा ही अधिक था।लेकिन, वास्तव मेंयह सरकार द्वारा सार्वजनिक रूप से बताए गए आंकड़ों से काफी ज्यादा अधिक था। इस साल केंद्रीय बजट में, सरकार ने माना कि वह भारत के जीडीपी के लगभग दो प्रतिशतराजकोषीय घाटे को अंडररिपोर्ट कर रही थी।

जहां एक तरफ ये सब हो रहा वहीं दूसरी तरफ रुपया नीचे गिर रहा था। अमरीकी डॉलर के साथ घरेलू मुद्रा की विनिमय दर अर्थव्यवस्था की शक्ति जानने के लिए एक मजबूत कारक है। 2014 में जब नई सरकार ने कार्यभार संभाला था तब एक अमेरिकी डॉलर की कीमत 59 रुपये थी। आज सात साल बाद, यह 73 रुपये के करीब है। आंकड़ों को देखने के बाद आप खुद तय करें कि भारतीय अर्थव्यवस्था की ऊपर दी गईं प्रमुख नींवें कोविड से पहले से ही कैसा प्रदर्शन कर रहीं थीं। हालिया आंकड़ों से शायद ही उस अर्थव्यवस्था को ख़ुशी मिलेगी जिसकी अगले साल की संभावनाओं को प्रमुख एजेंसियों द्वारा कम किया जा रहा है।

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