How much ‘social’ is social media? कितना ‘सोशल’ बचा सोशल मीडिया?

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बात सोलह साल पहले की है। इंटरनेट के साथ लोगों को संवाद व संपर्क का चस्का लगना शुरू ही हुआ था कि ऑर्कुट के रूप में एक ऐसा प्लेटफार्म मिला जिससे लोग एक दूसरे से जुड़ने लगे। 2004 में ऑर्कुट की शुरुआत के चार साल के भीतर यानी 2008 तक पहुंचते-पहुंचते ऑर्कुट की सर्वाधिक लोकप्रियता भारत में पांव पसार चुकी थी। लोग आर्कुट प्रोफाइल के वैशिष्ट्य की चर्चा में डूबे थे कि फेसबुक का धमाकेदार प्रवेश हुआ। 2014 आते-आते गूगल ने ऑर्कुट की बंदी का एलान कर दिया, किन्तु तब तक समाज से जुड़ाव वाले मीडिया के रूप में सोशल मीडिया तेजी से अपना रूप ले चुका था। फेसबुक धीरे-धीरे छा रहा था और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स अपनी जगह बना रहे थे। तब से आज तक भारत इक्कीसवीं सदी की इस मीडिया क्रांति के साथ मजबूती से आगे बढ़ रहा है। यह मजबूती इस कदर है कि भारत में सोशल मीडिया राय बनाने-बिगाड़ने की स्थिति में है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सोशल मीडिया से दूरी बनाने की संभावना मात्र से देश में व्यापक चर्चा हो रही है। इन सबके साथ सवाल भी उठ रहे हैं कि सोशल मीडिया कितना ‘सोशल’ बचा है?

अब चलते हैं सोमवार शाम की ओर। सारे खबरिया चैनल दिल्ली दंगे के बाद की स्थितियों और निर्भया के बलात्कारियों की फांसी एक बार और टलने की स्थितियों पर चर्चा कर रहे थे। इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक ट्वीट आया कि वे सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स से दूरी बनाने पर विचार कर रहे हैं और कुछ देर के लिए तो पूरे देश का विमर्श ही बदल सा गया। सारे खबरिया चैनल प्रधानमंत्री के सोशल मीडिया से दूरी बनाने की स्थितियों पर चर्चा करने लगे। दरअसल पिछले कुछ वर्षों में सोशल मीडिया भारतीय जनमानस के लिए आत्मिक स्तर पर जुड़ाव का मजबूत माध्यम बन चुका है। सोशल मीडिया के तमाम लाभों का विश्लेषण करने के साथ उस कारण हो रहे नुकसान भी खुलकर सामने आ रहे हैं। जिस तरह दिल्ली में हुए दंगों के पीछे सोशल मीडिया की अराजकता बड़ा कारण बन कर उभरी है, उससे स्पष्ट है कि सोशल मीडिया वास्तविक संदर्भों में ‘सोशल’ नहीं रह गया है। सोशल मीडिया का मूल प्रादुर्भाव समाज को जोड़ने के लिए माना जा सकता है किन्तु पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह समाजिक विघटन के मूल कारणों में सोशल मीडिया एक बड़ा कारण बन कर उभरा है, उससे स्पष्ट है कि सोशल मीडिया की स्वीकार्यता के स्तर पर विधायी विचार भी जरूरी है।

सोशल मीडिया को लेकर ये चिंताएं सिर्फ भारत के संदर्भ में ही प्रभावी नहीं हैं। पूरी दुनिया में सोशल मीडिया समाधान के साथ समस्या के रूप में भी उभर कर सामने आया है। डेटा सस्ता होने के बाद सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों की संख्या तेजी से बढ़ी है। सोशल मीडिया पर सक्रियता के मामले में भारत शेष दुनिया से पीछे नहीं है। आंकड़े गवाह हैं कि भारत के लोग अपना 70 प्रतिशत तक समय तमाम सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स पर बिताते हैं। भारत के सोशल मीडिया प्रयोक्ता रोज औसतन ढाई घंटे का समय सोशल मीडिया को देते हैं। इस मामले में भारत पूरी दुनिया में तेरहवें स्थान पर है। पिछले कुछ चुनावों से भारत में सोशल मीडिया की उपयोगिता को गंभीरता से समझा जा रहा है। सोशल मीडिया पर चुनावी अभियान तो चले ही हैं, माहौल बनाने में भी इसका उपयोग बहुत किया गया है। भारत में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ भी अभिव्यक्त कर देने की शिकायतें आम हो गयी हैं और सरकार भी इस बाबत नया कानून बनाने की तैयारी कर रही है। इस कानून के लिए सरकार ने जनता से राय भी मांगी थी। माना जा रहा है कि जल्द ही कानून बनाकर सोशल मीडिया को अफवाहों का प्लेटफार्म बनने से रोकने की प्रभावी कोशिश की जाएगी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सोशल मीडिया से दूरी बनाए जाने संबंधी विचार को भी भारत में सोशल मीडिया के दुरुपयोग से जोड़कर देखा जा रहा है। जिस तरह प्रधानमंत्री स्वयं सोशल मीडिया से जुड़ाव के पक्षधर रहे हैं, उसके बाद उनका यह विचार सोशल मीडिया के वैचारिक ह्रास और इसे लेकर प्रधानमंत्री की चिंताओं की अभिव्यक्ति भी है। भारत इस समय सर्वाधिक युवा आबादी के साथ हर हाथ में मोबाइल लेकर दुनिया के साथ कदमताल कर रहा है। ऐसे में सोशल मीडिया का अराजक होना निश्चित रूप से देश व समाज के लिए खतरनाक है। ऐसे में समाज के सभी वर्गों को सोशल मीडिया के बारे में सकारात्मक वातावरण बनाने के साथ इसके दुरुपयोग रोकने की मशक्कत करनी होगी। इन्हीं स्थितियों में सोशल मीडिया, वास्तविक रूप से ‘सोशल’ बन सकेगा।

डॉ.संजीव मिश्र

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, यह इनके निजी विचार हैं।)

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