Gandhi’s Dandi March was the foundation of democracy: लोकतंत्र की नींव था गांधी का दांडी मार्च

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साबरमती आश्रम से महात्मा गांधी के दांडी मार्च के 91 साल पूरे होने पर अमृत महोत्सव की शुरूआत की। उन्होंने रानी लक्ष्मी बाई, मंगल पांडे, तात्या टोपे, महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस पंडित जवाहर लाल नेहरू, भीमराव अंबेडकर और खान अब्दुल गफ्फार खान को याद करते कहा कि किसी भी राष्ट्र का भविष्य तभी उज्जवल होता है, जब वह अपने अतीत के अनुभवों और विरासत के गर्व से हर पल जुड़ा रहता है। हम उम्मीद करेंगे कि प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार देश को आजादी दिलवाने वाले और फिर उसका नवनिर्माण करने वालों का सही व्याख्यान करेंगे। उन नीतियों की खुलकर प्रशंसा करेंगे, जिनके कारण एक कंगाल खस्ताहाल देश समृद्ध और सशक्त होकर खड़ा हो सका है। यह आयोजन भले ही सियासी रणनीति का हिस्सा हो मगर आजादी की 75वीं वर्षगांठ की ओर बढ़ते भारत के युवाओं को राष्ट्र, राष्ट्रवाद, भारत माता और उसके संवैधानिक लोकतंत्र को समझने का एक अवसर भी देगा। जब देश का अन्नदाता अपने हक की लड़ाई के लिए सड़कों पर मर रहा है। सत्ता हठधर्मी का शिकार हो, तब दांडी यात्रा के मायने समझ आते हैं। जलियांवाला बाग गोलीकांड हमारे दिल से दिमाग तक उसको नये रूप में सोचने को मजबूर करता है। उस वक्त आप चुप्पी कैसे साध सकते हैं।

पंडित जवाहर लाल नेहरू के कांग्रेस अध्यक्ष रहते, उनके राजनीतिक गुरु महात्मा गांधी ने दांडी मार्च करके एक बड़ा मुकाम पाया। सविनय अवज्ञा के जरिए लोक शक्ति को दर्शित करने वाले इस आंदोलन ने स्वराज की लड़ाई को गति दी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष का पद अपने पिता पंडित मोती लाल नेहरू से ग्रहण करते ही, उनके ब्रिटिश राज में स्वराज की नीति के उलट, जवाहर लाल ने पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पास किया। उन्होंने नरम और गरम गुटों को एक करते हुए इसे गांधी की शांति-अहिंसा की नीति पर चलकर हासिल करने का फैसला लिया। यही काम उन्होंने 1919 में जलियांवाला बाग कांड के दौरान किया था, जब वह कांग्रेस के महासचिव की हैसियत से जांच कमेटी के सदस्य बनकर वहां गये थे। जनशक्ति और उसकी आवाज बुलंद करने को उन्होंने मौलिक अधिकार माना था। यह अधिकार उन्होंने देश की आजादी के बाद बने संविधान में प्रमुखता से शामिल कराया। नेहरू, राष्ट्रवाद की आवाज बुलंद करते थे मगर उनके राष्ट्रवाद में किसी दूसरे का अहित शामिल नहीं था। वजह, वह लोकतंत्र को सबसे पहले रखते थे। शायद यही कारण है कि पंडित नेहरू कुछ को बहुत पसंद हैं, तो कुछ उनसे बहुत नफरत भी करते हैं। नेहरू ने किसी एक गुट में शामिल होकर, देश का नुकसान नहीं कराया बल्कि निर्गुट बन न सिर्फ विश्व में अगुआ बने, साथ ही सभी गुट के देशों से भारत को लाभ और सम्मान दिलाया।

हम जब आजादी के जश्न का महोत्सव मना रहे हैं, तभी स्वीडन के एक शोध संस्थान ने भारी भरकम डाटा के साथ अपनी रिपोर्ट पेश की है। उसमें कहा गया है कि भारत में अब चुनावी लोकतंत्र नहीं रह गया है। यह चुनावी तानाशाही में बदल गया है। भारत तानाशाही की तीसरी लहर के अगुआ देशों में शुमार है। देश में धीरे-धीरे संवैधानिक संस्थाओं, मीडिया, अकादमिक और सिविल सोसाइटी की आजादी छीनी जा रही है। रिपोर्ट में लिखा है कि सियासी एकाधिकार के लिए राष्ट्रवाद के नाम पर हिंदू राष्ट्रवादी नीति को क्रूरता से लागू किया जा रहा है। विरोधी आवाज को दबाने के लिए 7 हजार से अधिक नागरिकों पर देशद्रोह के मुकदमें दर्ज किये गये हैं। कुछ वर्षों के दौरान लोकतांत्रिक आवाज को दबाने की नीति के कारण ही भारत उदारवादी लोकतंत्र सूचकांक में 23 फीसदी नीचे गिरा है। पंडित नेहरू भले ही गांधी की तरह धार्मिक न रहे हों, मगर उनकी तरह मानवतावादी जरूर थे। वह गांधी के सत्य अहिंसा के पालक थे, मगर इस बात से सहमत नहीं थे कि सभी जगह अहिंसा ही सही मार्ग है। नेहरू का मानना था कि विशेष परिस्थितियों में राज्य को हिंसा का प्रयोग करना पड़ता है। दूसरी तरफ वह सच्चे लोकतंत्र के पोषक थे। वह लिखते हैं कि नागरिक स्वतंत्रता के बिना स्वस्थ लोकतंत्र नहीं बन सकता है। अगर कोई सरकार मनमाने तरीके से नागरिकों की आजादी पर पाबंदी लगाती है या उसे जेल में डालती है, तो ऐसी सरकार को उखाड़ फेकना चाहिए। यही कारण था कि नेहरू विपक्षी नेताओं को ध्यान से सुनते और उन्हें बोलने का अधिक अवसर देते थे। अब हालात उससे बिल्कुल उलट देखने को मिल रहे हैं।

हम आजादी के 75वें वर्ष का उत्सव मना रहे हैं, तब हमें राष्ट्रवाद और लोकतंत्र को वास्तविक अर्थों में समझना होगा। आज हमारी सरकार सब कुछ बेच देना चाहती है। वह समाज में घृणा पैदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही। प्रधानमंत्री कहते हैं कि व्यवसाय करना सरकार का काम नहीं है। सच यह है कि आज जब हम 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने की बात करते हैं, तब नेहरू की सोशयो इकोनॉमी ही आधार बनती है। जो देश को विश्व में विशिष्ट बनाती है। इसके लिए पंडित जवाहर लाल नेहरू की कार्यशैली और विचारों को समझना पड़ेगा। उऩकी सामूहिक नेतृत्व की नीति ने देश को मजबूत किया। नेहरू का मानना था कि राजनीति में लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है, जब आर्थिक और सामाजिक समस्याओं का समुचित समाधान हो। उनकी सोच जाति-धर्म विहीन समाज को सामाजिक आर्थिक नीतियों के आधार पर खड़ा करने की थी। गांधी भले रामनाम का गुणगान करते थे, मगर वह धर्मांध नहीं थे। उनका मानना था कि जब तक हम खुद को शुद्ध नहीं करेंगे, दुनिया को कैसे बदलेंगे। उनके सानिध्य का ही प्रभाव था कि पंडित नेहरू ने खुद को तो बदलने के साथ ही, अपने पूरे परिवार को भी बदला। एक धनाड्य परिवार का लाड़ला, जब आजादी के आंदोलन में कूदा तो अपनी कुलीनता त्याग दी। उन्होंने अपने पिता पंडित मोतीलाल नेहरू की 1928 में ब्रिटिश सरकार को मौलिक अधिकारों के लिए दी गई सिफारिशों को भारत के संविधान में भी शामिल किया। दूसरे विश्व युद्ध के बाद देश ख़स्ताहाल और विभाजित था, उसका नवनिर्माण आसान नहीं था मगर उन्होंने अपनी दूरदृष्टि और समझ से वे नीतियां-योजनाएँ बनाईं, जिससे देश एक दशक के भीतर ही मजबूत लोकतांत्रिक गणराज्य बन सका।

इस वक्त हमें गांधी नेहरू से भारत माता और राष्ट्रवाद का वास्तविक अर्थ समझना होगा क्योंकि उन्होंने ही आजादी के दौर में इनकी संकल्पना प्रस्तुत की थी। नेहरू के राष्ट्रवाद की परिभाषा संकुचित नहीं थी। उन्होंने लिखा था कि राष्ट्र सिर्फ भौगोलिक सीमाएं नहीं होता है। राष्ट्र में वहां के वाशिंदे, जल, जमीन, जंगल, संस्कृति, सभ्यता और इतिहास शामिल होता है। यह सभी मिलकर राष्ट्र बनते हैं, जिसमें हम पलते हैं। हमारा पालन करने वाला राष्ट्र ही हमारी भारत माता है। गांधी ने भी अपने सभी आंदोलनों में यही समझाने की कोशिश की है। नेहरू ने अपनी किताबों में पांच हजार साल का इतिहास समाहित करके तमाम मिथ तोड़े हैं। उन्होंने उस सच को बताया कि महमूद ग़ज़नवी ने सोमनाथ मंदिर पर हमला इस्लामी विचारधारा के कारण नहीं बल्कि विशुद्ध लुटेरा होने के कारण किया था। उसकी फ़ौज का सेनापति एक हिंदू तिलक था। ग़ज़नवी ने जब मध्य एशिया के मुस्लिम देशों को लूटा तो उसकी सेना में हजारों हिंदू शामिल थे। प्रधानमंत्री मोदी ने जब देश की आजादी की लड़ाई में अपना सबकुछ त्यागने वालों को सम्मान देने के लिए महोत्सव की शुरुआत की है, तो उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वह उन विरासती लोगों से कुछ सीखेंगे। लाखों आहूतियां देकर बने लोकतांत्रिक राष्ट्र को बनाने वालों का सम्मान करते हुए वास्तविक अर्थों में लोकतंत्र स्थापित करेंगे। देश को चेतन भगत, व्हाट्सएप्प यूनीवर्सिटी और गोदी मीडिया के प्रपंच से बचाकर सत्य को सामने लाएंगे। जब ऐसा होगा तब सच में महोत्सव में अमृत बरसेगा।     

जय हिंद!

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(लेखक प्रधान संपादक हैं)  

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