Election, commission, real issues and religion: चुनाव, आयोग, असल मुद्दे और धर्म 

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जब यह लेख आप पढ़ रहे होंगे, तब तक दिल्ली विधानसभा के चुनावों के असल नतीजे आना शुरू हो चुके होंगे और 11 फरवरी को देर शाम तक यह तय हो जाएगा कि दिल्ली मे किसकी सरकार बनने जा रही है। 8 फरवरी को जब मतदान के बाद एक्जिट पोल आने शुरू हुये तो लगभग सभी सेफ़ॉलोजिस्ट कंपनियों ने आम आदमो पार्टी के जीत और उसे आसानी से सरकार बना लेने की बात कही। भाजपा दूसरे नम्बर पर लेकिन कम सीटों को लेकर और कांग्रेस को शून्य से चार सीटें मिलने की बात कही गयी। एक्जिट पोल एक अनुमान होता है जो मार्केटिंग की ट्रिक के साथ कुछ लोगों से बातचीत कर के जो वोट दे चुके हैं से, उनके बताये निष्कर्ष के आधार पर गणना करके निकाला जाता है। यह एक संकेत होता है इसके अतिरिक्त इसकी अन्य कोई प्रमाणिकता नहीं होती है। लेकिन अंतिम परिणाम आने तक लोगों को वाद विवाद में उलझाए रहता है। सेफ़ॉलोजी के बारे में मुझे बहुत अधिक जानकारी नहीं है, अतः मैं इसे भी ज्योतिष के प्रेडिक्शन की तरह ही सुनता और लेता हूँ। एक्जिट पोल, आम आदमी पार्टी को जीतने की बात बता रहे हैं उनके अनुसार, 70 सीटों में यह आंकड़ा 42 से लेकर 68 तक जाता है। बहरहाल इससे तो एक बात बिल्कुल साफ दिख रही है कि नतीजे आप के पक्ष में आने जा रहे हैं। और एक बार फिर अरविंद केजरीवाल सरकार बनाने जा रहे हैं।
2017 के चुनाव के बाद निर्वाचन के क्षेत्र में एक बुरी बात यह हुयी है कि निर्वाचन आयोग की क्षवि चुनाव दर चुनाव विवादित और धूमिल होती गयी। उसके क्रियाकलापों पर सवाल दर सवाल उठने शुरू हो गए । आज आयोग को सरकार और सत्तारूढ़ दल के एक विस्तार के रूप में देखा जाने लगा है। हमारे संविधान के अनुसार, निर्वाचन आयोग एक स्वायत्त संस्था है और संविधान ने उसे अनुच्छेद 324 में निष्पक्ष और विवादरहित चुनाव कराने की असीमित शक्तियां प्रदान की हैं । फिर भी यह एक दुःखद तथ्य है कि आयोग ने ही अपने कुछ ऐसे फैसले लिये जिससे उसकी सत्यनिष्ठा पर संदेह हुआ और विवाद उठ खड़ा हो गया। किसी भी संस्था के लिये निर्णय की प्रक्रिया पारदर्शी होना आवश्यक है। आयोग सरकार के आधीन नहीं है बल्कि यह सरकारें बनाता और बिगाड़ता है। इसका साबका राजनीतिक दलों से पड़ता है और अगर आयोग का एक भी निर्णय स्थापित नियमों के आलोक में पारदर्शी नहीं रहा तो उस पर अनावश्यक संदेह खड़ा हो जाता है और वह निर्णय कितनी भी सदाशयता से लिया गया हो, लोगों का संदेह बना ही रहता है। संदेह पर ही किसी संस्था की साख निर्भर करती है।
अब दिल्ली चुनाव का ही उदाहरण लीजिए। 8 तारीख को शाम 6 बजे तक कितने मत पड़े इसका विवरण आयोग 9 फरवरी तक की अपराह्न तक नहीं दे पाया। आयोग पर तुरंत अंगुली उठने लगी। राजनीतिक दल प्रेस कॉन्फ्रेंस करने लगे । अंत मे 9 फरवरी की शाम तक आयोग ने मतदान प्रतिशत की सूचना दी। आयोग के अनुसार कुल मतदान 62.59 % रहा। लेकिन इसे लेकर अनुमान और अटकलबाजी दिनभर चलती रही और विवाद के केंद्र में आयोग बना रहा। इसके अतिरिक्त, भाजपा के मंत्रियों और नेताओं द्वारा बेहद भड़काऊ भाषण, और आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग दिल्ली के चुनाव प्रचार में किया गया लेकिन आयोग ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे आयोग की सख्ती और उसकी निष्पक्षता का पता चल सके। यही नहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में जब चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने प्रधानमंत्री द्वारा आचार संहिता के उल्लंघन पर अन्य साथी आयुक्तों से विपरीत राय दी तो सरकार की नाराजगी उन्हें झेलनी पड़ी। जिन लोगों ने टीएन शेषन और लिंगदोह के कार्यकाल देखे हैं उन्हें आयोग तुलनात्मक रूप से अपारदर्शी और कहीं न कहीं दबाव में आया हुआ ही दिखेगा। इसका एक बड़ा कारण यह है कि आयोग का सरकारी या सत्तारूढ़ दल के पक्ष में नरम रवैया अपनाना। किसी भी संस्था के प्रमुख का यह दायित्व होता है कि वह अपने संस्था की साख बनाये रखे। पर वर्तमान सीईसी अपनी संस्था की साख बनाये रखने में सफल नहीं हो रहे है। जिससे उनका मज़ाक़ उड़ रहा है और विवाद तो बना हुआ है ही।
लोकतंत्र में चुनाव की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। निष्पक्ष और विवाद रहित चुनाव के बिना, स्वस्थ और प्रगतिशील लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती है। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार न तो देश का पर्याय होती है और न ही सरकार का मुखिया देश का प्रतीक। वह बस संविधान और अन्य नियम कानूनों के अनुसार सरकार चलाने के लिये चुने जाते हैं। हमने पाश्यात्य उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था का जो मॉडल अंगीकृत किया है उसमें सरकार की यही स्थिति है। इस व्यवस्था में सरकार अपने वादों पर जो राजनीतिक दल अपना घोषणापत्र जारी करते हैं के आधार पर जनता द्वारा चुनी जाती है। हर पांच साल बाद सत्तारूढ़ दल और अन्य दल जनता के बीच पुनः अपनी उपलब्धियों के साथ जाते हैं और जनता उसी के अनुसार अपना प्रतिनिधि चुनती है। यह किसी भी लोकशाही में सरकार के चयन की एक सामान्य प्रक्रिया है जो हमारे यहां भी लागू है।
2014 के लोकसभा चुनाव में मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार था। यूपीए 2 के अंतिम तीन सालों में उक्त सरकार के ऊपर भ्रष्टाचार के अनेक गंभीर आरोप लगे हालांकि उनमे से अधिकतर साबित नहीं हो पाए। लेकिन, अन्ना आंदोलन से उत्पन्न
जनाक्रोश का परिणाम यह हुआ कि यूपीए की सत्ता गयी और एनडीए या यूं कहें भाजपा की सत्ता आयी। लेकिन, 2014 के वे मुद्दे जिनपर चढ़ कर भाजपा सत्ता में आयी थी, वह तुरन्त ही भुला दिए जाने लगे और उनके स्थान पर वे मुद्दे सामने आ गए जिनकी कोई ज़रूरत ही नहीं थी। हर राजनीतिक दल की अपनी विचारधारा होती है और उसकी नीतियां उन्ही विचारधारा से नियंत्रित होती है। यह विचारधारा समाज, अर्थनीति, और अन्य सभी मुद्दों के आधार पर होती है। 2014 का संकल्पपत्र में दिए गये अनेक विकास और जीवन से जुड़े मुद्दे ख़ुद भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष द्वारा ही जुमले करार दिए गए और उन्हें धीरे धीरे नेपथ्य में धकेल दिया गया। अब उन पर कोई बात ही नहीं करता है। जो बात करता भी है तो वह लांछित और देशद्रोही कहा जाता है।
2014 के बाद 2019 में राष्ट्रीय चुनाव हुए और साथ ही सभी राज्यो के विधानसभा के चुनाव भी हुये। पर भाजपा ने हर चुनाव में अपने 2014 के संकल्पपत्र में दिए गए वादों और आर्थिक नीतियों की दुबारा न तो चर्चा की और न ही ऐसी चर्चा पर बहस के लिये सामने आयी। उदाहरण के रूप में अभी 8 फरवरी को ही हुये दिल्ली विधानसभा के चुनाव की आप समीक्षा कर सकते हैं। आम आदमी पार्टी और उसके नेता अरविंद केजरीवाल 2015 से दिल्ली सरकार में हैं। 2015 में उन्हें 70 में 67 सीटें मिली थीं जो एक रिकॉर्ड है। केजरीवाल का दावा है कि उन्होंने जनहित के कई काम किये। वे अपने किये काम गिनाते भी हैं। सरकारी स्कूलों की स्थिति, चिकित्सा में मुहल्ला क्लिनिक के प्रयोग, सरकारी दस्तावेजों की सुलभ उपलब्धि आदि कुछ उनकी उपलब्धियां हैं भी। महिलाओं को दिल्ली की बसों में मुफ्त यात्रा सुविधा, 200 यूनिट तक की मुफ्त बिजली आदि कुछ फ्रीबी कही जाने वाली योजनाओं की भी सराहना होती है। केजरीवाल ने अपने प्रचार में इन सब बातों को कहा और इन्हें और बेहतर करने के लिये जनादेश की मांग की।
लेकिन भाजपा ने इन मुद्दों पर या इसे कैसे बढाया जाय इसपर कोई बात न कर के अपने चिर परिचित विभाजनकारी मुद्दे जो हिंदू मुस्लिम भेदभाव, पाकिस्तान, बालाकोट, सर्जिकल स्ट्राइक और अंध राष्ट्रवाद के मुद्दों को उठाया। छह साल सरकार चलाने के बाद अगर आज भी भाजपा को दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीतने के लिए पाकिस्तान की दया पर निर्भर औऱ दंगों के षड़यंत्र का सहारा लेना पड़े तो यह इस सरकार के निकम्मेपन का सबसे बड़ा प्रमाण है । क्या आर्थिक क्षेत्र में कुछ भी इनकी उपलब्धि नहीं है ? अगर आर्थिक उपलब्धियां हैं तो उन्हें क्यों नहीं सरकार सामने रखती है ? लेकिन सच तो यह है कि जब भी आर्थिक मुद्दों पर बात होती है तो भाजपा उनसे तुरंत किनारा करने लगती है। आखिर युवाओं की बेरोजगारी, शिक्षा संस्थानों में हो रहे छात्र असंतोष, नए नागरिकता कानून और देशभर मे आसन्न एनआरसी के खिलाफ हो रहे जनआंदोलन और बढ़ रहे जनाक्रोश पर सरकार कुछ कहती क्यों नहीं। केजरीवाल ने जो काम किये वे उस पर जनता के बीच गए और भाजपा जानबूझकर उन मुद्दों से खुद को दूर करती रही।
2014 से लेकर 2016 तक आर्थिक स्थिति में कोई बहुत परिवर्तन नहीं आया था। कारण, कांग्रेस हो या भाजपा, दोनो की मूल आर्थिक नीति पूंजीवादी मॉडल, जो निजी क्षेत्र को प्राथमिकता देने के सिद्धांत पर आधारित है, पर टिकी है। अर्थव्यवस्था का जो मॉडल 1991 में कांग्रेस सरकार ने शुरू किया था वही मॉडल भाजपा का आज भी है। भाजपा कभी भी आर्थिक नीति पर नहीं बोलती। भाजपा की मातृ संस्था आरएसएस का एक अनुषांगिक संगठन स्वदेशी जागरण मंच, ज़रूर स्वदेशी की बात करता है पर वह खुद ही भ्रम में रहता है कि इसे लागू कैसे किया जाय। सरकार भी संघ के विभाजनकारी मुद्दे तो लपक लेती है पर स्वदेशी के मुद्दे को नजरअंदाज कर जाती है। इसी बीच अचानक 2016 में सरकार नोटबन्दी की घोषणा कर देती है और तब से अर्थव्यवस्था का जो सत्यानाश शुरू हुआ है वह अब तक होता जा रहा है। नोटबंदी अपना एक भी घोषित लक्ष्य पूरी नहीं कर पायी। नोटबंदी के मूर्खतापूर्ण क्रियान्वयन और उसके तुरंत बाद लागू की गई जीएसटी के कारण न केवल बाजार में सुस्ती आयी, बल्कि देश की आर्थिकी को हर क्षेत्र मे नुकसान झेलना पड़ा। विदेशी निवेश घटने लगा। सरकारी कंपनियां बिकने लगीं। जीडीपी, मैन्युफैक्चरिंग इंडेक्स, मुद्रा की कीमत गिरने लगीं। अब स्थिति यह है कि, बड़ी सरकारी कंपनियों के बेचने के बाद, रिज़र्व बैंक से हर साल रिज़र्व धन लेने के बाद, एलआईसी और आईडीबीआई में अपनी, यानी हमारी आप की हिस्सेदारी बेचने की योजना के बाद, सड़क, रेल, जहाज सब कुछ ठेके पर बेच देने के बाद, हर जिले के बड़े अस्पताल को निजी स्वास्थ्य कम्पनियों को धीरे धीरे सौंपने के इरादे के बाद, अब यह क्या करेंगे यह इन्हें भी नहीं मालूम।
लोकतंत्र का उद्देश्य ही है लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना। राज्य की मौलिक अवधारणा में लोककल्याण की बात सदैव निहित होती है। हमारे संविधान का नीति निर्देशक सम्बन्धी अनुच्छेद इसी उद्देश्य को लेकर चलते हैं। आज भी पुराने राजतंत्र में जो राजा लोककल्याण की बातें अपने शासन में समाविष्ट करता था उसे ही आदर्श राजा माना जाता है। युद्ध जीत कर सीमाएं बढाने वाला राजा या सम्राट के अलग स्थान इतिहास में नियत होते हैं पर लोकहित को अपने राज्य में प्रमुखता से स्थान देने वाले राजा भले ही कम क्षेत्रफल के राजा हों, पर उन योद्धा राजाओं से अधिक याद किये जाते हैं। लोकतंत्र में तो राज्य का यही मुख्य दायित्व है ही कि वह जनहित के मुद्दों पर काम करे। इसीलिए, अर्थव्यवस्था, कानून, और शासन का मूल उद्देश्य ही लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना रखा गया है। लेकिन 2014 के बाद सरकार ने इस मुद्दे को धीरे धीरे दरकिनार करना शुरू कर दिया और लोककल्याण का एजेंडा कुछ चहेते पूंजीपतियों के कल्याण और सरकार, उन्हें लाभ पहुंचाने का एक तन्त्र मात्र बन कर रह गयी। विकास और जनहित तो अब भाजपा के मुद्दे ही नहीं रहे। बल्कि अब तो मुद्दे केवल पाकिस्तान की बिगड़ती आर्थिक स्थिति और हिंदू मुस्लिम ध्रुवीकरण ही रह गए। इसीलिए जब केजरीवाल अपनी उपलब्धियों को गिनाते हैं तो उनका मज़ाक़ ही उड़ाया जाता है।
अक्सर कहा जाता है कि फ्री फंड में देना एक मुफ्तखोरी है। लेकिन फ्री फंड में किसे कुछ देना गलत है यह भी तो देखा जाना चाहिए। जनता का वह हिस्सा जो विपन्नता की सीमा के नीचे या ज़रा सा ऊपर हो, उसके सुगम जीवन के लिये अगर कुछ मुफ्त या सब्सिडी के रूप में दिया जा रहा है तो क्या बुरा है ? जनता का जीवन स्तर ऊपर उठे औऱ हर व्यक्ति को रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य की मूलभूत सुविधाएं मिलें यह तो राज्य का कर्तव्य है न कि कोई उपकार। अगर सरकार यह भी नही कर सकती है तो फिर उसकी जरूरत ही क्या है ? भारत मे जहां एक अच्छी खासी आबादी विपन्नता रेखा के नीचे हैं, बेरोजगारी चिंताजनक स्थिति पर पहुंच गयी हो, वहां हम पूंजीवाद के मॉडल के अनुसार, सब कुछ निजी क्षेत्रों को सौंप कर देश की जनता का जीवन स्तर उठाने या सुधारने की बात नहीं सोच सकते हैं। खलिहर बैठे गांव के बिगड़ैल उत्तराधिकारी की तरह, यह सरकार धीरे धीरे गैर जिम्मेदार और अतीत के मिथ्या पिनक में डूबती जा रही है। सरकार में बैठे लोग, या तो पूरी तरह से अक्षम हैं, या किसी साज़िश के हिस्से बन चुके हैं और देश की आर्थिक स्थिति को जानबूझकर कर बर्बादी की ओर ले जा रहे है। लोगों का ध्यान उस बर्बादी की ओर न जाये इसी लिये यह हिन्दू मुस्लिम, और पाकिस्तान केंद्रित बातें करते हैं। आज इनके पास उपलब्धि के नाम पर बताने को कुछ भी नहीं है। यह सरकार उपलब्धि के दारिद्र्य से बुरी तरह पीड़ित है।
किसी भी सरकार और राजनीतिक दल का काम धर्म का उत्थान या प्रचार करना नहीं है। यह कार्य धार्मिक संस्थाओं का है और धर्माचार्यों का है। राजनीतिक दल संविधान के अंतर्गत बनते हैं और सरकार संविधान के अनुसार कार्य करने के लिये शपथबद्ध होती है। पर वर्तमान सरकार ने 2014 के बाद केवल साम्प्रदायिक और धार्मिक मुद्दों और तदजन्य कानून व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति पर खामोशी बनाये रखने के अतिरिक्त ऐसा कुछ नहीं किया जिससे लोगों का जीवनस्तर उठे और समाज विकसित हो। विकास की बातें, पहले तो चुनावी सभाओं में कुछ कुछ सुनी भी जाती थी, पर 2014 के बाद होने वाले विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनाव मे तो इस शब्द से ही परहेज किया जाने लगा। क्योंकि सरकार और सत्तारूढ़ दल खुद ही इतनी भयभीत हो गयी कि विकास कहने पर ही लोग 2014 के संकल्पपत्र के बारे में पूछने लगेंगे। तभी, शाहीनबाग में करेंट लगे, गोली मारों, घर में घुसकर बलात्कार कर देंगे, आतंकवादी, पाकिस्तानी आदि आदि बातें कही गयी। जनता को भयमुक्त करने के बजाय भय का ही एक वातावरण बनाया गया, पर रोजी, रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि पर एक शब्द भी भाजपा द्वारा नहीं बोला गया। यह इस बात का संकेत है कि सरकार बिल्कुल नहीं चाहती कि कोई भी आर्थिक मुद्दे पर उससे जवाबतलब करे औऱ जीवन के असल मुद्दों पर बहस। बहस के केंद्र मे केवल भावनात्मक मुद्दे ही बने रहें । यह प्रवित्ति स्वस्थ लोकतंत्र के लिये घातक है।
दिल्ली के चुनाव के बाद आगे बिहार, पश्चिम बंगाल, असम और तमिलनाडु के चुनाव होंगे। भले ही इन सब राज्यो में अलग अलग दल चुनाव लड़ेंगे पर जनता के सामने तो साझी समस्या एक ही है, जो उनकी रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य से जुड़ी है। धर्म किसी का भी खतरे में नहीं है चाहे वह कोई भी धर्म मानता हो। लेकिन रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य सभी के दांव पर लगे हैं। जनता को इन मूल मुद्दों पर केंद्रित करना चाहिए। जनता को संविधान पर केंद्रित रहना चाहिए। धर्म और ईश्वर के विमर्श भरे पेट और खाये अघाये लोगों के शगल है। हम भारत के लोगों को चाहिए कि, हम राजनीतिक दलों और नेताओं से इन्ही असल समस्याओं के समाधान की बात करें। उनकी जवाबदेही तय करें और उन्हें बार बार यह एहसास दिलायें जाने कि, वे हमारी बेहतरी और प्रगति और रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य से जुड़ी असल समस्याओं के समाधान के लिये हैं न कि उन्माद फैला कर जनता को धर्म, सम्प्रदाय और जाति में बांटने के लिये।
( विजय शंकर सिंह )
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