Don’t play with our pain, sir! हमारे दर्द से मत खेलिये साहब!

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रात के पौने तीन बजे थे। उसके सिर पर एक प्लास्टिक की बोरी लदी थी, जिसमें उसकी पूरी गृहस्थी थी। एक हाथ में झोला और दूसरे हाथ में पानी की बाल्टी थी। पेट फूला हुआ था। हम दिल्ली से चंडीगढ़ के रास्ते पर थे। इस दंपत्ति को देखा तो गाड़ी रोकी। उनसे पूछा कहां जा रहे हो, पहले सहम गये। विश्वास दिलाने पर बोले अपने गांव बनारस (मिर्जामुराद) जा रहे हैं। हमने पूछा पेट में क्या बंधा है?, महिला बोल पड़ी कुछ नहीं भइया, सात महीने से पेट से हैं। हमने पूछा कैसे जाओगे, तो बोली पैदल जाएंगे। पानीपत में काम करते थे, फैक्ट्री में छंटनी हो गई। कोई ट्रेन बस तो मिल नहीं रही। अब खाने को भी नहीं मिल रहा। कोरोना से मरें या भूख से तड़प कर, इससे अच्छा गांव है। यह कोई एक वाकया नहीं है। हमने कोरोना काल में उत्तर भारत के करीब चार हजार किमी सड़कों का सफर तय किया। हर हाईवे पर हमें मजदूर दिहाड़ीदार परिवारों के साथ भटकते-चलते मिले। अपने घरों को जाते सैकड़ों मजदूर सड़कों पर ही दम तोड़ चुके हैं। 24 घंटे के भीतर मजूदरों के हादसों में मरने की एक दर्जन घटनायें सामने आ गई हैं। हमें याद आता है कि जब हमारी पत्नी छह माह की गर्भवती थीं, तो अधिक चलने-चढ़ने उतरने से डाक्टर ने मना किया था। एक खबर आई कि एक गर्भवती महिला का प्रसव ही सड़क के किनारे हो गया। प्रसव के तीन घंटे बाद वह फिर पैदल चलने को विवश थी। यह चंद उदाहरण हमारे सरकारी दावों और पैकेजों का सच बयां करते हैं।

नीतियों के क्रियान्वयन कराने वाले राज्यों से चर्चा किये बगैर और पूर्व तैयारियों के बिना अचानक लॊकडाउन लागू होने से देश संकट में फंस गया। लोगों ने 21 दिनों तक पूरी ताकत से इसका पालन किया। सभी ने ताली, थाली भी बजाई और दीपोत्सव भी मनाया। सिविल सोसाइटी और संवेदनशील लोगों ने भूखे दिहाड़ीदारों को खाना भी खिलाया और रहने में भी मदद की। धीरे-धीरे सभी का सब्र टूटने लगा क्योंकि लॊकडाउन 02 शुरू हो चुका था। तीसरा लॊकडाउन आते-आते लोग टूट गये। भगदड़ मचने लगी क्योंकि अब न मजदूरों के खाने की व्यवस्था हो पा रही थी और न ही रहने की। मकान मालिक भी किराया मांगने लगा। उसकी भी अपनी दिक्कतें हैं, क्योंकि सरकार ने उसे भी किसी तरह की मदद नहीं दी। न टैक्स में छूट, न कर्ज में राहत। ऊपर से तमाम टैक्स और सेस बढ़ा दिये गये। सरकार ने वक्त रहते, उद्योग धंधों के शुरू होने को लेकर कोई स्पष्ट संवाद नहीं किया। इससे उद्योग व्यापार संचालकों ने भी छंटनी शुरू कर दी। न नौकरी, न काम, न खाना और न छत, फिर क्यों रहें, किसी दूसरे प्रदेश में? प्रवासी मजदूरों के पास कोई रास्ता नहीं बचा। सिर्फ अपना गांव ही सहारा दिख रहा है। उन्हें पता है कि अगर गांव में वह रोटी खाने की हालत में होते तो शायद दूसरे राज्यों में काम करने ही न आते। जहां भविष्य तलाशने आये थे, वहां भी अंधकार है। गर्भवती पत्नी और मासूम बच्चों के साथ सड़क नापना उनकी मजबूरी है।

प्रधानमंत्री ने 20 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की बात कही। वित्तमंत्री ने उसे किश्तों में विस्तार से बताया। यह राहत भी तत्काल नहीं है, दूर की कौड़ी है। यह असल में कर्ज अधिक है। वह भी तब घोषित हो रहा है, जब 52 दिन गुजर चुके हैं। देश भर में कोरोना फैल चुका है। आर्थिक विशेषज्ञों ने पिछली सरकारी योजनाओं के साथ इस पैकेज की समीक्षा करते हुए माना कि इसमें राहत जैसा तो कुछ है ही नहीं। सिर्फ कर्ज का संबल मिल रहा है, जो ब्याज सहित चुकाना होगा। मदद के लिए कोई नकद राशि देने की व्यवस्था नहीं है। दो महीने तक बगैर राशन कार्ड पांच किलो अनाज देने की छूट है मगर उससे भी असंगठित क्षेत्रों के दिहाड़ीदारों को कोई लाभ नहीं होने वाला। ईपीएफ की छूट भी दिखावा अधिक है। लघु एवं मध्यम उद्योगों को भी बगैर गारंटी जिस कर्ज पैकेज का ऐलान किया गया, उससे भी कोई राहत नहीं मिलने वाली क्योंकि बाजार बेहद कमजोर है। इन हालात में वो कर्ज लेकर उसे अदा कैसे करेंगे? ब्याज तो अपनी गति से बढ़ेगा, उसमें कोई छूट नहीं है। सरकार की घोषणाओं के लागू होने में वक्त लगेगा, त्वरित लाभ न होने से वह निर्थक हो जाता है। कठिन वक्त में न जाने कितने लोग सड़क से लेकर घर तक दम तोड़ देंगे। सैकड़ों लोग आत्महत्या और हत्या कर लेंगे। रोजाना आत्महत्या और हत्या की खबरें आने लगी हैं। हमारे एक मित्र हाफिज अनवारूल हक, रोजाना अपनी दो गाड़ियों में फल और पानी की बोतलें लेकर शाम को निकलते हैं, तमाम राजमार्गों पर पैदल चलते प्रवासियों को बांटते रात घर पहुंचकर रोजा खोलते हैं। इस दौरान वह जब लोगों से पूछते हैं कि कुछ खाया है, तो अधिकतर जवाब न में मिलता है। इससे आप सरकारी मदद का सच समझ सकते हैं।

हमारे धर्म में कहा गया है कि शासक को भोजन का हक तब है, जब उसकी प्रजा भूखी न सोए। हम आज के दौर में ऐसी कोई उम्मीद नहीं करते मगर यह जरूर चाहते हैं कि कम से कम मजदूरों को मुफ्त और सुरक्षित उनके घर पहुंचाने की व्यवस्था हो। यथोचित काम मिले। दुख होता है, जब यह भी होता नहीं दिखता। पंजाब सहित कई राज्यों में कांग्रेस ने मजदूरों के टिकट और खाने-पानी का इंतजाम करके सरकार को आईना दिखाया है। गुजरात से आये कुछ मजदूरों ने बताया कि वहां उनसे सियासी लोगों ने रुपये वसूले। अगर लॊकडाउन से पहले प्रवासियों को पहुंचाने की व्यवस्था हो जाती तो शायद यह मजदूर अपने साथ कोरोना को भी गांव नहीं ले जाते। कुछ लोग और सरकारें जहां खाने के पैकेट बांट रही हैं, वहीं खाने के लिए झपटमारी और मारपीट भी हो रही है। सीधे मदद न मिलने से कोई बैल की जगह गाड़ी खीच रहा है, तो कोई जुगाड़ू ट्राली बनाकर पत्नी-बच्चों को ले जा रहा है। कोई साइकिल, तो कोई पैदल अपना जीवन ढो रहा है। कर्जदार किसान खेतों में रो रहा है। भाजपा सांसद डॉ सत्यपाल सिंह ने वित्तमंत्री को चिट्ठी लिख किसानों को कर्ज और ब्याज में छूट की मांग की थी मगर पैकेज में ऐसा नहीं मिल सका। राज्य लोगों की मदद के लिए धन और अपने राजस्व का हिस्सा मांग रहे हैं। दुखद है कि केंद्र सरकार का राहत पैकेज, कारपोरेट के पैकेज की तरह शोपीस अधिक है, वास्तविक मददगार कम।

हमें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नरेंद्र मोदी की शिमला रैली याद आती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि हवाई जहाज का सफर सिर्फ बड़ों के लिए नहीं, बगैर चप्पल वालों के लिए भी हो, यह हमारा सपना है। ऐसा हो तो नहीं सका मगर प्रधानमंत्री के लिए यह राष्ट्र नायक बनने का मौका है। देश में यह बुरे हालात अव्यवस्थित लॊकडाउन के फैसले से हुए हैं। उन्हें चाहिए कि वह ऐसी मदद दें जो हर व्यक्ति को सीधे मिले, न कि किसी के आगे भीख मांगने की तरह। कनाडा सरकार ने हर किसी के खाते में दो हजार डॊलर डाले, तब लॊकडाउन किया। आवश्यक सामान की आपूर्ति सुनिश्चित करने की व्यवस्था की। हमारी सरकार को भी गरीबों के दर्द से खेलने के बजाय उनके दर्द को कम करना चाहिए। इन गरीबों को उनके घरों तक पहुंचने की पर्याप्त त्वरित व्यवस्था रेल और बसों से मुफ्त करानी चाहिए थी। बहराल, जो गलतियां हुईं हैं, उन्हें सुधारकर कुछ ऐसा करें कि पीड़ितों के घाव पर मरहम लग सके।

जयहिंद!

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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)

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