Declining public income in a shrinking economy: संकुचित होती अर्थव्यवस्था में  जनता की घटती आय 

0
836
1991 में जब ग्लोबलाइजेशन और मुक्त बाजार का दौर शुरू हुआ तो देश मे अचानक समृद्धि आने लगी। परंपरागत नौकरियां जो अमूमन सरकारी नौकरी ही थी, के स्थान पर निजी क्षेत्र में नौकरियों के नए और बहुत से अवसर खुले। अर्थव्यवस्था के दौर में वह एक प्रकार के खुलेपन का काल था। गरीबी उन्मूलन की अनेक योजनाओं ने भी गति पकड़ी, और सरकारी तथा निजी क्षेत्र में एक प्रतियोगिता शुरू हुयी। निजी क्षेत्र में नौकरियों के बड़े बड़े विविधताओं भरे अवसर ने लोगो को बजाय सरकारी नौकरी के, निजी क्षेत्र की नौकरियों की ओर आकृष्ट किया और पहली बार लोगो ने सरकारी नौकरी के बजाय निजी क्षेत्र को वरीयता दी। यह कॉरपोरेट का शुरुआती काल था। 1947 से शुरू हुयी मिश्रित अर्थव्यवस्था जिसका झुकाव समाजवादी आर्थिक सोच की तरफ था, 1991 में परिवर्तित हुयी और जिस आर्थिकी की ओर हम बढ़े, वह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था थी। 1991 का साल और नरसिम्हा राव और डॉ मनमोहन सिंह का काल, अर्थव्यवस्था के इतिहास में एक टर्निंग पॉइंट का काल रहा है, जिसका देश को लाभ भी मिला।
इस दौरान दुनिया मे भी एक ज़बरदस्त और क्रांतिकारी बदलाव हुआ। सोवियत रूस का विखंडन शुरू हो गया था। कम्युनिस्ट शासन का अंत होने लगा था। 1917 के महान रूसी क्रांति से लेकर, 1991 तक, सोवियत रूस एक मजबूत देश रहा और पूरी दुनिया दो खेमों में बंटी रही, एक तो अमेरिकी लॉबी और दूसरी सोवियत लॉबी। इन दो महाशक्तियों से इतर एशिया और अफ्रीका के भारत समेत बहुत से ऐसे देश थे, जो इनमे से किसी भी गुट में शामिल नहीं थे और उन्होंने एक नया संगठन बनाया, गुट निरपेक्ष देशों का। यह गरीब और नवस्वतंत्र मुल्क थे, और साम्राज्यवादी शोषण से नए नए मुक्त हुए थे, और उनका स्वाभाविक रुझान सोवियत रूस की ओर था, साथ ही, उनकी अर्थव्यवस्था समाजवादी आर्थिकी की ओर झुकी थी। पर जब 1991 में सोवियत खेमा बिखर गया तो, अमेरिकी मॉडल की अर्थनीति उस समय लगभग विकल्पहीन बन कर उभरी। चीन तब उभर रहा था और वह कम्युनिस्ट अर्थव्यवस्था के रूप में ही प्रगति कर रहा था।
पूंजीवाद की ओर कदम बढ़ा चुकी भारतीय अर्थव्यवस्था ने 2014 में एक और नया दौर देखा। 2016 में नोटबन्दी होती है जो आज़ादी के बाद का सबसे विवादात्मक आर्थिक निर्णय है जिसने देश को आर्थिक दुर्गति की ओर ठेल दिया। आज की आर्थिक दुरवस्था के लिये भले ही हम कोरोना महामारी के सिर सारे ठीकडे फोड़ दें पर यदि 2016 के बाद की आर्थिक स्थिति की समीक्षा करें तो पाएंगे कि देश की आर्थिकी में गिरावट 2016 के नोटबन्दी के बाद से ही शुरू हो चुकी थी। बेरोजगारी इतनी बढ़ गयी कि सरकार ने आंकड़े देने बंद कर दिया, औद्योगिक उत्पादन माइनस में चला गया, बैंको का एनपीए इतना बढ़ गया कि कुछ बैंक डूबने लगे और शेष राष्ट्रीयकृत बैंकों का एक दूसरे में विलय करना पड़ा। आरबीआई से पहली बार ₹ 1,76,000 करोड़ रुपये लेने पड़े। जिसके चलते आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल और डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य को सरकार से मतभेद होने के कारण अपने अपने पदों से इस्तीफा देना पड़ा। डॉ मनमोहन सिंह जो खुद भी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के पक्षधर हैं, ने नोटबन्दी को एक संगठित लूट कहा औऱ यह भविष्यवाणी की कि, इससे देश की जीडीपी में 2 % की गिरावट आयी। कोरोना पूर्व की अर्थव्यवस्था यानी 31 मार्च 2020 के जीडीपी के आंकड़े देखें तो हम पाएंगे कि, डॉ मनमोहन सिंह की भविष्यवाणी सही साबित हुयी। जब इस महामारी ने देश मे दस्तक दी तो, उसके तीन साल पहले से ही हम आर्थिक मंदी के दौर में आ चुके थे। सरकार नोटबन्दी को अब तक का सबसे विफल आर्थिक नीतिगत निर्णय मानने को राजी आज भी नहीं है पर उसकी उपलब्धियां भी वह नहीं बताती है।
फिर तो 30 मार्च को केरल में पाए गए पहले कोरोना संक्रमित मरीज से कोरोना महामारी ने भारत मे प्रवेश कर ही लिया। अक्टूबर 2020 में विश्व बैंक ने यह चेतावनी दी थी कि, दुनियाभर में गरीबी में चिंतनीय रूप से बढोत्तरी होगी, जिसका कारण, कोरोना महामारी है। वर्ल्ड बैंक के अनुसार,
” कोरोना महामारी के कारण, साल 2021 के अंत होने तक, पूरी दुनिया मे, 88 से लेकर 115 मिलियन जनसंख्या, अतिगरीबी की सीमा के नीचे पहुंच जाएगी। चूंकि दुनियाभर में आबादी के लिहाज से चीन और भारत की जनसंख्या सबसे अधिक है तो, इस परिवर्तन का सबसे अधिक असर भी भारत और चीन पर ही पड़ेगा। “
अमेरिका की प्रतिष्ठित थिंक टैंक प्यू रिसर्च ( Pew Research ) ने हाल ही मे इस विषय पर शोध किया है और अपने शोध को उन्होंने भारत और चीन पर विशेष रूप से केंद्रित किया है। अब एक नज़र पियु के शोध पर डालते हैं। विश्व बैंक ने 2020 और 21 में, चीन और भारत की जीडीपी का संभावित अनुमान, मोटे तौर पर क्रमशः -5.8% और -5.9% लगाया है। साल 2021 की जनवरी में, कोरोना महामारी को देखते हुए विश्व बैंक ने अपने अनुमानों को संशोधित किया। चीन को तो उसने तब भी ग्रीन जोन यानी प्रगति की ओर बढ़ती अर्थव्यवस्था में रखा, और अनुमान लगाया कि चीन की जीडीपी या अर्थव्यवस्था 2% की गति से और विकसित कर सकती है। लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था -9.6% की दर पर सिकुड़ी रहेगी। हालांकि हमारे रिजर्व बैंक ने इस आंकड़े को थोड़ा सुधार कर -7.7% पर आना माना है। यह आंकड़े अनुमान हैं। इसमे घटबढ़ की गुंजाइश रहती है।
पियु की शोध रिपोर्ट का अध्ययन करने से तेजी से बढ़ती हुयी आर्थिक संकुचन, जिसे इस स्टडी रिपोर्ट में इकोनॉमिक कॉन्ट्रैक्शन कहा गया है, की स्थिति सामने आती। संकुचन की स्थिति, आर्थिकी के बेहद खराब और खतरनाक संकेतो की ओर इशारा करती है। अब यहीं यह जिज्ञासा उठती है कि आर्थिक संकुचन क्या है। आसान तरीके से समझे तो आर्थिक संकुचन, व्यापार चक्र का वह काल या फेज होता है, जिंसमे अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में गिरावट आने लगती है। अर्थव्यवस्था का आकार सिकुड़ने लगता है। उत्थान और पतन के नियमित चक्र की तरह भी इसे ले सकते हैं कि समृद्धि के शीर्ष पर पहुंच कर अर्थव्यवस्था फिर सिकुड़ने लगती है। अर्थशास्त्र के जानकारों के अनुसार, जब जीडीपी, जो किसी भी देश की आर्थिकी के मापदंड का एक स्वीकृत सूचकांक है में, लगातार दो साल तक गिरावट होने लगती है, तो फिर आर्थिकी संकुचन का खतरा बढ़ जाता है। संकुचन का एक संकेत यह भी होता है कि इससे आर्थिक क्षेत्र में तमाम तरह के संकट खड़े होने लगते हैं। संकुचन का सबसे बुरा प्रभाव, बेरोजगारी पर पड़ता है, वह बुरी तरह से बढ़ने लगती है। बढ़ती बेरोजगारी का असर सामाजिक व्यवस्था पर पड़ने लगता है। हालांकि अर्थव्यवस्था में संकुचन की यह स्थिति बराबर नहीं रहती है, बल्कि वह सुधार की ओर भी बढ़ती है। पर इसके लिये अर्थव्यवस्था में सुधारात्मक कदम उठाने की ज़रूरत भी पड़ती है। इतिहास में सबसे बुरा आर्थिक संकुचन, 1930 की अमेरिका में हुयी बड़ी आर्थिक मंदी मानी जाती है।
अब आते हैं पियु की शोध रपट पर। इंडियन पोलिटिकल ड्रामा वेबसाइट ने इस रिपोर्ट पर एक अध्ययन प्रकाशित किया है। उक्त अध्ययन के अनुसार, भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से संकुचन की ओर बढ़ रही है। इस संकुचन का सबसे अधिक दुष्परिणाम देश के मध्यवर्ग यानी मिडिल क्लास पर पड़ा है। पियु की रिपोर्ट के अनुसार, मध्यवर्ग की संख्या सिकुड़ कर कुल 32 मिलियन हो गयी है। यानी मध्यवर्ग की आबादी, अपनी आय घटने से, निम्न वर्ग की श्रेणी में आ गयी है, यानी वे और अधिक गरीब हो गए हैं। पियु की रिपोर्ट में मध्यवर्ग की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है। वह लोग जो 10.01 डॉलर से 20.0 डॉलर तक प्रतिदिन कमाते हैं वे मध्यवर्ग की श्रेणी में आते हैं। एक आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि, मध्यवर्ग के साथ ही निम्न वर्ग के लोग और भी अधिक गरीब हुये है। जिनकी आय  2.01 डॉलर से 10 डॉलर प्रति दिन की है, उन्हें निम्न वर्ग यानी लोअर इनकम क्लास में रखा गया है। 35 मिलियन लोग जो लोअर इनकम श्रेणी में थे वे इस श्रेणी में भी नहीं रहे और वे और गरीब हो गए। 75 मिलियन आबादी उन लोगों की है जिनकी प्रतिदिन की आय 2 डॉलर से भी कम है। यह आंकड़ा कोरोना महामारी के बाद गिरती हुयी अर्थव्यवस्था के अध्ययन के दौरान आया है। कहने का आशय यह है कि इस महामारी के काऱण हुए लॉक डाउन, और औद्योगिक ठहराव के काऱण देश की अच्छी खासी आबादी, और अधिक गरीब हुयी है, और अब कोरोना की जो, यह नयी लहर चली है, उससे यह स्थिति और भी बदतर होगी।
पियु ने न केवल भारत पर कोरोना काल से प्रभावित अर्थव्यवस्था का अध्ययन किया है बल्कि उसने चीन की अर्थव्यवस्था पर इसका क्या असर पड़ा है, इसका भी अध्ययन किया है। कोरोना की शुरुआत ही चीन के वुहान शहर से हुई थी और इस बात पर भी लम्बे समय तक बहस चलती रही कि, यह वायरस मनुष्य निर्मित है या स्वाभाविक उपजा हुआ वायरस है। यह भी कहा गया कि, यह चमगादड़ से आया हुआ है तो यह भी कहा गया कि यह किसी जैविक हथियार के लीकेज का परिणाम है। अभी यह दोनो ही सम्भावनाये हैं और प्रामाणिक रूप से यह नही कहा जा सकता कि सच क्या है। पर एक बात तो सच है कि इस वायरस ने दुनियाभर के क्या विकसित, क्या विकासशील सभी देशों को संकट में डाल रखा है और दुनियाभर की अर्थव्यवस्था पर इसका बेहद घातक प्रभाव पड़ रहा है। पियु के अध्ययन के अनुसार, भारत की तुलना में चीन की अर्थव्यवस्था पर इस आपदा का कम असर पड़ा है। चीन के मिडिल क्लास में 10 मिलियन आबदी संकुचित हो कर निम्न आय वर्ग में उतर गयी है। जिससे निम्न आय वर्ग की आबादी 30 मिलियन की हो गयी है। 1 मिलियन आबादी निम्न आय वर्ग से गिर कर और नीचे आ गयी है। चीन की अर्थव्यवस्था का मॉडल भी भारत की तुलना में अलग है और वहां से आर्थिकी के आंकड़े भी उतनी सुगमता से उपलब्ध नहीं है। लेकिन जो हाय तौबा दुनियाभर के अन्य देशों में कोरोना की महामारी को लेकर मची है, वैसी हाय तौबा चीन में इस महामारी को लेकर नहीं मची है। भारत मे 30 जनवरी को केरल में कोरोना के पहले मामले के मिलने से लेकर आज लगभग 16 महीने बाद भी, अब जब कोरोना की दूसरी लहर आ गयी है, तब भी देश का हर राज्य और बड़ा शहर बुरी तरह से प्रभावित है। जबकि चीन में वुहान के अतिरिक्त अन्य किसी बड़े शहर में इसका प्रकोप उतना भयंकर नहीं दिखा। हालांकि चीन में यह वायरस 2019 के अक्टूबर में ही आ गया था।
भारत मे आर्थिक दुरवस्था का एक बड़ा काऱण है लोगों की नौकरियों का जाना। जिनकी नौकरियां बची हैं, उनके वेतन भत्ते भी कम हुए हैं। डीजल और पेट्रोल की लगातार बढ़ती कीमतों का असर बाजार में महंगाई पर पड़ रहा है। आजकल चुनाव चल रहे हैं तो, पेट्रोल और डीजल की कीमतें, चुनाव के कारण बढ़ नहीं रही हैं, लेकिन चुनाव के बाद इन दो चीजों में मूल्य वृद्धि निश्चित ही होगी। एलपीजी गैस के सिलेंडर के दाम भी पेट्रोल और डीजल के साथ साथ बढ़ते रहते हैं। एक तरफ बढ़ती बेरोजगारी, और कम होते वेतन भत्ते और दूसरी तरफ, बाजार की महंगाई को प्रभावित करने वाली पेट्रोल, डीजल और गैस की कीमतों ने अर्थव्यवस्था के संकुचन के ख़तरे को और बढ़ा दिया है और इसका सीधा असर, मध्य आय वर्ग और निम्न आय वर्ग की हैसियत पर पड़ा है। उनकी क्रयशक्ति कम हुयी है। उनके रहनसहन का स्तर प्रभावित हुआ है और बाजार में मांग भी कम हुयी है। मांग कम होने से बाजार का संतुलन जो मुख्यतः मांग और आपूर्ति से बना रहता है वह प्रभावित हुआ है।
यूपीए सरकार द्वारा लायी गयी महात्मा गांधी नेशनल रूरल एम्प्लॉयमेंट गारंटी स्कीम जिसे संक्षेप में मनरेगा कहते हैं, रोजगार देने की कोई स्थायी योजना नहीं है। यह ग्रामीण क्षेत्र में कम से कम 100 दिन के लिये रोजगार की गारंटी की योजना है, जिससे लोगो को कुछ पैसा मिल जाया करे। यह रोजगार गारंटी योजना, 7 सितंबर 2005 को नोटिफाई  की गयी थी, जो प्रत्येक वित्तीय वर्ष में किसी भी ग्रामीण परिवार के उन वयस्क सदस्यों को 100 दिन का रोजगार उपलब्ध कराती है जो प्रतिदिन 220 रुपये की सांविधिक न्यूनतम मजदूरी पर सार्वजनिक कार्य-सम्बंधित अकुशल मजदूरी करने के लिए तैयार हैं। यह राशि अब बढ़ गयी है। इस अधिनियम को ग्रामीण लोगों की क्रय शक्ति को बढ़ाने के उद्देश्य से शुरू किया गया था। यह योजना, मुख्य रूप से ग्रामीण भारत में रहने वाले लोगों के लिए अर्धकौशलपूर्ण या अकौशलपूर्ण कार्य, चाहे वे गरीबी रेखा से नीचे हों या ना हों के हित मे लागू की गयी है। शुरू में इसे राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (NREGA) कहा जाता था, लेकिन 2 अक्टूबर 2009 को इसका पुनः नामकरण महात्मा गांधी के नाम पर किया गया।
इस योजना में लॉक डाउन के दौरान जब औद्योगिक और व्यावसायिक गतिविधियां लगभग ठप पड़ गयी और भारी संख्या में प्रवासी मजदूर अपने गांव लौटे तो मनरेगा का लाभ लेने की लोगो मे होड़ सी मच गयी। यह सारे प्रवासी मजदूर किसी सोशल सिक्योरिटी स्कीम से आच्छादित नहीं थे और उनकी कमाई भी इतनी अधिक नहीं थी कि वे कठिन समय के लिये कुछ बचा कर रख सकें। ऐसी स्थिति में यह योजना उनके लिये राहत बन कर आयी। पर यह राहत भी बस दो वक्त के भोजन के लिए भी किसी तरह से पर्याप्त हो पाती है। मैं बात असंगठित क्षेत्र की कर रहा हूँ जिनके लिये रोज ही कुआं खोदना औऱ पानी पीना है। एक दुःखद तथ्य यह भी है कि असंगठित क्षेत्र भले ही आकार में बहुत बड़ा हो, पर वह सरकार की योजनाओं और प्राथमिकताओं में सदैव उपेक्षित ही रहता है। असंगठित क्षेत्र पर अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन आईएलओ ने भी एक अध्ययन किया है। उक्त अध्ययन के अनुसार,
” भारत की श्रम शक्ति का लगभग 76% अंश जो जनसंख्या में 400 मिलियन होता है, भारत के इनफॉर्मल सेक्टर (असंगठित क्षेत्र) में रोजगार पाता है।”
यही 76% या 400 मिलियन का श्रम बल ही ग़रीबी का सबसे अधिक शिकार होने के लिये अभिशप्त है। इस असंगठित क्षेत्र में अकुशल और अर्धकुशल दोनो ही तरह के लोग हैं। महामारी का सबसे अधिक असर इसी संवर्ग पर पड़ा है।
सरकार द्वारा, इस वर्ग के लिये कोई नियोजित कार्ययोजना भी नही है। अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक गति भी इसी क्षेत्र की आय पर निर्भर करती है। यह वर्ग, अमूमन बचतोन्मुखी मानसिकता का नहीं होता है और न हीं बचत योजनाओं में बहुत निवेश करने की हैसियत में रहता है। इसका कारण, इसकी आय जो अमूमन रोजाना होती है, दिन भर की ज़रूरतों को पूरी कर दे वही इसके लिये चैन का काऱण  है। इस वर्ग के पास कोई सोशल सिक्योरिटी नहीं होती है और जब लॉक डाउन लगा और सारी औद्योगिक और व्यावसायिक गतिविधियां ठप पड़ी तो सबसे अधिक पीड़ित भी यही वर्ग हुआ। अब जब कोरोना की दूसरी लहर जिसे कहा जा रहा है कि वह और भी घातक लहर है, फैल रही है तो सबसे अधिक असर भी इसी क्षेत्र पर पड़ने जा रहा है। मनरेगा इस क्षेत्र का समाधान नहीं है, वह एक स्टॉप गैप व्यवस्था है। सरकार को असंगठित क्षेत्र को ध्यान में रख कर अपनी योजनाएं बनानी होंगी नहीं तो यह विशाल जनसंख्या वाला असंगठित क्षेत्र, विकास के सारे मानक और उपलब्धियों को ध्वस्त कर सकता है।
पियु का यह शोध महामारी के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़े दुष्प्रभाव के संदर्भ में है। 1 अप्रैल 2020 से 31 मार्च 2021 के कालखंड में भारत की जीडीपी माइनस -23.9 % रही है। मार्च 24, 2020 से लॉक डाउन का जो दौर चला वह कमोबेश अगस्त तक चला। फिर औद्योगिक और व्यावसायिक गतिविधियों ने करवट ली और प्रगति चक्र थोड़ा गतिशील हुआ। लेकिन महामारी पूर्व की स्थिति कभी नही आ पायी। देश के सबसे औद्योगिक प्रान्त महाराष्ट्र और गुजरात मे यह महामारी बराबर कभी कम तो कभी अधिक मात्रा में बनी रही। रेलें अब तक सामान्य रूप से नहीं चल पायी हैं। जो श्रम पहले लॉक डाउन में किसी तरह से सड़कों पर पैदल घिसटते हुए अपने घर पहुंचा था वह रेलों के सामान्य न हो पाने के काऱण, आज भी अपने अपने कारखानों यदि वे चालू हालत में हैं तो भी नहीं पहुंच पा रहा है। एक आशंका भरा माहौल हर तरफ है कि कल क्या होगा। इस आशंका का सबसे अधिक प्रभाव असंगठित क्षेत्र पर तो पड़ ही रहा है बल्कि संगठित क्षेत्र भी निर्यात में कमी, बाजार में सुस्ती, बढ़ती महंगाई औऱ गिरती हुयी अर्थव्यवस्था से पीड़ित है। इसका सीधा प्रभाव, अर्थव्यवस्था के संकुचन पर पड़ रहा है। यह एक ऐसा दुष्चक्र बन गया है कि इससे कैसे निजात मिले, यह फिलहाल सरकार तय नहीं कर पा रही है।
हालांकि कोरोना की पहली लहर के बाद जब औद्योगिक और व्यायसायिक गतिविधिया शुरू हुयी तब उसका सकारात्मक असर अर्थव्यवस्था पर पड़ना शुरू हो गया था और चीजें कुछ न कुछ पटरी पर आने लगी थीं। लेकिन जब फरवरी के बाद से ही कोरोना के एक नए स्ट्रेन ने दस्तक दी और संक्रमण पुनः तेजी से फैलने लगा तो इसके दुष्प्रभाव से औद्योगिक और व्यावसायिक गतिविधियां भी बच न सकी। अब रात का कर्फ्यू लगा हुआ है और दिन में भी लोग कम ही निकल रहे हैं। रात के कर्फ्यू का मतलब उन औद्योगिक इकाइयों में जिनमे रात दिन बराबर तीनो पालियों में काम होता है, उनमे रात की पाली का काम या तो बंद हो गया या फिर कम हो गया है। इसका असर उत्पादन पर तो पड़ा ही, साथ ही, इसका असर श्रमिकों की मजदूरी पर भी पड़ा है। अगर यही स्थिति लम्बे समय तक चलती रही तो, औद्योगिक इकाइयां छंटनी जैसे कदम उठा सकती हैं। सरकार ने हाल ही में जो नए श्रम कानून पारित किये हैं, उनके अनुसार औद्योगिक इकाइयों द्वारा छंटनी करना अब आसान भी हो गया है। यह सारी परिस्थितियां अंत मे देश को आर्थिक बदहाली की ओर ही ले जाएगी।
कोरोना महामारी निश्चय ही एक बड़ी और चुनौतीपूर्ण महामारी है, पर सरकार का रवैया इसे लेकर भी पक्षपात रहित नहीं है। एक तरफ स्कूल, कॉलेज, बंद हैं, दूसरी तरफ चुनाव की बड़ी बड़ी रैलियां और रोड शो हो रहे हैं, कुम्भ का मेला आयोजित हो रहा है और पवित्र प्रवचन के रूप में कहा जाने वाला सूत्र वाक्य मास्क पहने और सोशल डिस्टेंडिंग बनाये रखें, चुनावी रैलियों और रोड शो के आयोजनों को देखते हुए हास्यास्पद लग रहा है। यह एक महामारी है यह बात बिल्कुल सच है और यह भी सच है कि, इसका संक्रमण व्यापक है। पर जिस प्रकार से इस महामारी की आड़ में दुनियाभर के देश अपने राजनीतिक निर्णय जो मुख्यतः या तो तानाशाही को बढ़ा रहे हैं या वे फिर ऐसी नीतियों पर आधारित हैं जिनसे गरीब वर्ग, मजदूर किसान आदि का अहित अधिक हो रहा है, तो इस महामारी की आड़ में छिपे सामाजिक विषमता बढ़ाने वाले एक और घातक वायरस पर सन्देह स्वाभाविक रूप से उठ रहा है। एक तरफ तो मध्यवर्ग सिकुड़ कर निम्न आयवर्ग में जा रहा है दूसरी तरफ निम्न आयवर्ग और भी अधिक विपन्न हो रहा है, वहीं कुछ चहेते पूंजीपतियों की आय और संपत्ति में बेशुमार इजाफा हो रहा है।
इस साल 2021 की बात करें तो दुनिया भर में सबसे अधिक संपत्ति भारतीय कारोबारी गौतम अडानी की बढ़ी है। वे अपनी संपत्ति की वृद्धि के आंकड़े में, जेफ बिजोस और एलन मस्क से भी आगे निकल गए हैं। ब्लूबमबर्ग बिलेनियर इंडेक्स के मुताबिक इस साल 2021 में गौतम अडाणी की संपत्ति में 1620 करोड़ की बढ़ोतरी हुई और अब उनकी नेटवर्थ 5 हजार करोड़ डॉलर की हो गई है। अडाणी ग्रुप की एक कंपनी को छोड़कर शेष सभी कंपनियों के स्टॉक्स में इस साल 2021 में 50 फीसदी का उछाल आ चुका है।  रिलायंस प्रमुख मुकेश अंबानी की संपत्ति में 810 करोड़ डॉलर की बढ़ोतरी हुई है। ब्लूमबर्ग बिलेनियर इंडेक्स के मुताबिक अंबानी की नेटवर्थ 8480 करोड़ डॉलर की है जबकि गौतम अडाणी की संपत्ति 5 हजार करोड़ डॉलर की है। एक तरफ जब अर्थव्यवस्था संकुचन के खतरे से जूझ रही है और दूसरी तरफ जब कुछ चहेते पूंजीपतियों की सम्पदा बेतहाशा बढ़ रही है तो सरकार की आर्थिक नीतियों और सरकार की प्राथमिकता पर अनेक सवाल उठते हैं और यह भी सवाल उठता है कि यह कैसी माया है कि जब आम जन अपनी आर्थिक हैसियत में नीचे जा रहा है तो, यह चहेते पूंजीपति किस आर्थिक नुस्खे से माह दर माह तरक़्की करते जा रहे हैं ? तभी सन्देह इस महामारी पर और आपदा में अवसर जैसे बयानों पर भी उठता है।
(लेखक यूपी कैडर के पूर्व वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
( विजय शंकर सिंह )

 

SHARE