Countries’ falling economy has to be handled: देशों की गिरती अर्थव्यवस्था को संभालना होगा

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कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया को एक ऐसे मोड़ पर खड़ा कर दिया है. जहाँ से आगे का रास्ता बेहद मुश्किल है. इस संकट से उबरने के बाद देशों को गिरती अर्थव्यवस्था को संभालना होगा, साथ सरकारी तंत्र में लोगों के विश्वास को भी पुन: जागृत करना होगा, जो पिछले एक महीने में काफी हद तक टूटा है. हालांकि, भारत की स्थिति बाकी देशों की तुलना में थोड़ी बेहतर है. ‘विकासशील’ का तमगा होने के बावजूद हमने ‘विकसित’ जैसा काम किया है. शुरुआती स्तर पर लिए गए कुछ अच्छे फैसलों ने वायरस के अनियंत्रित होने की आशंका को खत्म किया, अन्यथा भारत के अमेरिका बनते देर नहीं लगती. जिस रफ़्तार से देश में कोरोना के मामले सामने आये हैं, वह रफ़्तार कई गुना ज्यादा भी हो सकती थी, यदि सही समय पर लॉकडाउन जैसे कड़े उपायों को अमल में नहीं लाया जाता. 22 मार्च को प्रधानमंत्री द्वारा एक सामयिक और साहसिक निर्णय 130 करोड़ के देश का लॉक डाउन, एक असम्भव दिखने वाला निर्णय, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी जाने जाते हैं ऐसे कठोर निणयों के लिए, एक विलक्षण प्रतिभा के धनी, जनता को तमाम राजनैतिक एवं धार्मिक गतिरोधों के बावजूद प्रेरित करने की असीमित क्षमता उन्हें भारत में ही नही बल्कि विश्व में अग्रिम पंक्ति मे खड़ा करती है. एक दिन के पूर्ण लॉक डाउन की सफलता के बाद 21-21 दिन के दो और लॉक डाउन असम्भव पहाड़ जैसी चुनौती न केवल पूरी होने जा रही है, बल्कि कई राज्य अभी इस लॉक डाउन को और बढ़ाने पर भी विचार कर रहे हैं.
भारत में नौकरशाही द्वारा क्रियान्वयन पर सदैव प्रश्नचिन्ह लगा है, लेकिन इस बार सकारात्मकता के साथ अद्भुत क्रियान्वयन प्रारम्भ हुआ, जनता का अनुशासन हो, पुलिस की एक नयी भूमिका, डंडा कम स्नेह अधिक, मार डंडे से नहीं, बल्कि तरह-तरह के प्रयोगों से. अपनी परवाह किये बिना जनता दुख दर्द के साथ, घर-घर रोटी, राशन की व्यवस्था पहली बार पुलिस के पास और कमाबेश इमानदारी के साथ जरूरतमंदों तक पहुँची. फिर भी त्राहि-त्राहि आखिर चूक कहाँ हुयी? कहते हैं जोश के साथ अक्स होश की कमी रहती है, वही हुआ. यह पहला समय नहीं है जहाँ नौकरशाही ने सरकार को खुश करने में होश खोया हो. संजय गाँधी के जनसंख्या नियंत्रण जैसे अभूतपूर्व कार्यक्रम को वीभत्स नसबन्दी के रूप में हमने देखा है. यह कहना गलत नहीं होगा कि केंद्रीय स्तर पर महामारी से कुशलतापूर्वक निपटने के लिए एक सकारात्मक माहौल तैयार किया गया. लोगों में भी यह विश्वास जागृत हुआ देश उन्हें हर खतरे से निकालने में सक्षम है. लेकिन सकारात्मक प्रयासों की यह श्रुंखला कहीं न कहीं राज्यों की कार्यप्रणाली से खंडित हुई.
कुछ वक्त पीछे जाकर देखने पर हम पाएंगे कि लोग खुद आगे बढ़कर जांच की बात कर रहे थे, ताकि वह जाने-अनजाने में संक्रमण के वाहक न बनें. मगर अब स्थिति एकदम उलट है. ऐसे लोगों को खोजकर निकालना पड़ रहा है जिनके संक्रमित होने की आशंका है. क्वारंटाइन केंद्रों से भागने के मामले हर रोज़ सामने आ रहे हैं. लक्षण होने के बावजूद लोग सरकार तक नहीं पहुँच रहे हैं, बल्कि सरकार को जबरन उन तक पहुंचना पड़ रहा है. महज छोटी से अवधि में सकारात्मक सोच का नकारात्मक बनना कई गंभीर सवाल खड़े करता है. सबसे पहला तो यही क्या सरकार के दावे खोखले थे या फिर स्थिति को संभालने में वह असफल रही? इन सवालों का जवाब तलाशने के लिए किसी शोध की ज़रूरत नहीं है. सोशल मीडिया पर सबकुछ मौजूद है. हाल ही में उत्तर प्रदेश के आगरा का एक विडियो खूब वायरल हुआ. जिसमें दिखाया गया कि कैसे जिला प्रशासन क्वारंटाइन किये गये लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार कर रहा है. अमानवीय इस लिहाज से कि लोगों को एक बड़े से कमरे में बंद कर रखा गया है और खाने-पीने का सामान उन तक पहुंचाने के बजाये जाली के दरवाजे के बाहर छोड़ दिया गया है. लोग बड़ी मुश्किल से जाली से हाथ निकालकर उसे उठा रहे हैं. ऐसे दृश्य अक्सर हमें चिड़ियाघरोंमें देखने को मिलते हैं, वहां भी शायद इससे ज्यादा बेहतर स्थिति हो. इस दृश्य ने ऐसे अनगिनत लोगों की हिम्मत तो तोड़ने का काम किया होगा, जो बीमार होने पर खुद सरकार से संपर्क साधने की सोच रखते हैं. यह केवल एक राज्य की बात नहीं है, दिल्ली, मध्यप्रदेश सहित तमाम राज्यों में स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की पोल खोलने वाले समाचार सामने आये हैं.
आज लोग जितना कोरोना से भयभीत नहीं हैं, उससे ज्यादा इलाज की प्रक्रिया को लेकर डरे हुए हैं. सरकारी अस्पताल और डॉक्टरों को लेकर पहले से ही उनके अनुभव खास अच्छे नहीं हैं, और मौजूदा व्यवस्था ने उनके विश्वास को हिलाकर रख दिया है. सरकार ने यहां निजी अस्पतालों पर भरोसा न जताकर भी भूल की है. सरकार द्वारा नियम इस तरह के बना दिये गये हैं कि अधिकांश निजी अस्पताल कोरोना काल में ताला लगाने को मजबूर हो गये हैं. किसी भी अस्पताल मे एक भी कोरोना संक्रमित हुआ तो उसे सील कर दिया गया. मरीज भी अन्दर तीमारदार भी अन्दर, डाक्टर और नर्सिंग स्टाफ भी अन्दर. मरीज़ बिना मौत मरने लगे. विडम्बना यह कि तीन-तीन चार-चार दिन तक उनका टेस्ट भी नहीं, मरीज बिना डायलाइसिस, जच्चा बच्चा बिना खुराक, हृदय रोगी बिना वेंटीलेटर, ताले के अन्दर. कोरोना के इलाज का कतई अर्थ यह नहीं था कि गम्भीर रोगियो को जीते जी मौत के घाट उतार दिया जाय.
कोरोना टेस्ट कुछ दिन पहले तक केवल सरकारी अस्पताल में हो सकते थे, टेस्टों की क्षमता नाम मात्र थी. एक शहर में एक दिन मे 50-100 भी नही, जबकि हर जिले में आम रोगी भी हजारों की संख्या मे होते हैं. निजी अस्पतालो का क्या कसूर था? कहाँ से सबका टेस्ट कराकर रोगी को दाखिल करते. अधिकांशतः निजी अस्पताल बन्द हो गये और राजकीय चिकित्सा पहले से ही पंगु है, आगरा के एस.एन. मेडीकल कॉलेज के आकस्मिक विभाग को अगर देखें तो लगेगा झोला छाप से लाख गुने अच्छे हैं, त्राहि-त्राहि स्वाभाविक थी.
 यही हश्र क्वारंटाइन सेंटर का हुया, किसी भी स्कूल, कॉलेज, शादीघर को क्वारंटाइन सेंटर बना दिया गया बिना किसी व्यवस्था के उसमे नहाने, धोने, किसी सेवा हाउस कीपिंग, डाक्टर की व्यवस्था तक नहीं है और उस पर भी बंद कर द्वार पर ताला. हश्र यह हुआ कि भोजन गेट के बाहर से फेंककर दिया जाने लगा.
कोरोना से निपटने के लिए बड़े-बड़े दावे किये गए थे, अपनी तैयारियों का बखान किया गया था, तो आखिरी वे तैयारियां हैं कहाँ? क्या तैयारियों का खेल महज कागज पर खेला गया था, जैसा कि सरकारी योजनाओं के मामले में अक्सर होता है. कई राज्यों ने यह व्यवस्था की है कि बीमारी छिपाने वाले के खिलाफ क़ानूनी कार्रवाई की जायेगी, लेकिन इलाज के नाम पर जानवरों से सलूक करने वालों पर कार्रवाई की व्यवस्था कौन करेगा? क्या संपन्न सरकारों की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर है कि वे अपनी नागरिकों को ‘नागरिक’ होने का अहसास तक उपलब्ध नहीं करा सकतीं, या फिर बीमारी ने उनकी सोच को भी बीमार कर दिया है. यदि सरकारें अत्यधिक भार का अनुभव कर रही हैं, तो फिर उन्हें ऐसी रणनीति पर काम करना चाहिए कि भार भी कम हो जाए और आवाम को अमानवीय व्यवहार से भी छुटकारा मिल जाए. उदाहरण के तौर पर साधन संपन्न लोगों को इलाज का भार स्वयं वहन करने दिया जाए और सरकार सिर्फ ज़रुरतमंदों पर ध्यान केंद्रित करे. संभव है तब शायद दरकता विश्वास पुन: कायम हो पाए. सरकार का ध्यान गरीब जनता पर होना भी चाहिये आखिर सबसे मुश्किल की घड़ी रोजमर्रा मज़दूरों की है, उन पर बिना किसी कसूर के पहाड़ टूटा है. लेकिन उनकी उपेक्षाओं को सीमित संयमित रखने के बजाय असीमित बढ़ा दी गयी, सभी कुछ मुफ्त. विडम्बना यह है क्वारंटाइन सेंटर में जिनकी खर्च की अच्छी क्षमता है उसे भी मुफ्त का नारकीय जीवन को मजबूर होना पढ़ रहा है. उत्तर प्रदेश की बात करें तो मुख्यमंत्री  योगी है संत हैं, उनके लिये मानवीय पहलू सस्ता इलाज उनकी प्राथमिकता है, अच्छी बात है. लेकिन वास्तविकता से और आज की आवश्यकता से मुँह नही मोड़ा जा सकता.
कोरोना टेस्ट निजी लेब में 4500 रूम निर्धारित किये गये, उत्तर प्रदेश सरकार ने घटाकर 2500 कर दिये, टेस्ट सुविधा बन्द हो गयी. बिना टेस्ट के अस्पताल सील होने का जोखिम, गम्भीर रोगी फिर भगवान भरासे. आखिर पुनः स्पष्टीकरण हुआ 4500 पर टेस्ट शुरू हुये. पूरी त्रासदी में सरकार की मंशा अच्छी एवं नीतियो में दूरदर्शिता की कमी कहें या जनता को अधिक राहत देने का अतिरेक.
यह लड़ाई अभी लम्बी है हमें अपनी मानसिकता एवं व्यवस्था दोनों दुरूस्त करनी होंगी. पूरी चिकित्सा व्यवस्था निजी हो या सरकारी दोनों को दुरुस्त करना होगा. निजी अस्पताल मे रोगियों की भर्ती के लिये सामान्यतः कोरोना टेस्ट होना चाहिये, जो सक्षम है निजी लैब से, जो सक्षम नही हो प्राथमिकता पर सरकारी लैब से. गम्भीर रोगी 48 घण्टे टेस्ट की प्रतीक्षा नहीं कर सकता है, उसे बिना टेस्ट के भर्ती की अनुमति होनी चाहिये. जोखिम का डर निकालना होगा, निजी -सरकारी डाक्टर एवं पैरा मेडिकल स्टाफ पूरी तरह सुरक्षित पीपीई किट में होने चाहिए. कोरोना के जोखिम को कम करने और लोगों के विश्वास को बहाल करने के लिए सरकार को कुछ कदम और उठाने होंगे. मसलन,  यदि कोई संक्रमित मिलता है तो तुरन्त सेनेटाइज कर उस वार्ड (रेड ज़ोन) को असंक्रमित तुरंत पुनः सेवा मे लाना चाहिये, कोरोना संक्रमित का इलाज हर जिले मे प्राइवेट अस्पताल मे भी होना. चाहिये सक्षम लोग प्राइवेट मे करायें, ताकि गरीबों के लिये सरकारी अस्पतालों की बेहतर व्यवस्था हो सके.   इसी तरह क्वारंटाइन सेंटर भी निजी क्षेत्र में हों, बिना लक्षण के संक्रमित घर में, अपने बजट के अनुसार होटल या अस्पताल मे क्वारंटाइन हो सकता है. सरकार को अपने ऊपर से बोझ कम करना होगा. सकारात्मक पहलू यह है अगले 40 वर्ष भारत की तपस्या के है, भारत का भविष्य उज्जवल है 2025  तक ही अर्थव्यवस्था 5 ट्रिल्यन डालर को छुएगी ऐसी उम्मीद करता हूँ।
पूरन डावर, चिंतक एवं विश्लेषक
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