Conduct contrary to questions will make you humiliate! सवालों के विपरीत आचरण अपमानित कराएगा!

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हमने अपनी पत्रकारिता के 25 सालों में पहली बार गोदी मीडिया जैसे शब्द सुने हैं। तमाम मंचों पर मीडिया दलाल है, मीडिया बिकाऊ है, जैसे विश्लेषण हमें शर्मसार कर रहे हैं। कई प्रदर्शनों के दौरान तमाम मीडिया संस्थानों के संवाददाताओं का विरोध किया गया। उनको अपमानित करते हुए कहा गया कि आप हमारी कवरेज न करें, आपकी जरूरत नहीं है। कई चैनलों के संपादकों को आंदोलनकारियों ने दौड़ा लिया, हमले भी किये। सत्ता और सियासी झुकाव में कोई फांसीवादी हरकतों का भी समर्थन करता है। आखिर क्यों, इतना सब होने के बाद भी मीडिया जगत आत्ममंथन को तैयार नहीं है। वह अपनी गलतियां सुधारने के बजाय कांग्रेसियों की माफिक उन्हें बार-बार दोहरा रहा है। शायद गलतियां करते रहना नियति बन गई है। सेल्फी पत्रकारिता के दौर में हम जन मन की समझ भूल गये हैं। नतीजतन मीडिया की विश्वसनीयता खतरे में फंसती जा रही है। सीएए और एनआरसी के विरोध में जब देशव्यापी प्रदर्शन हुए तो सत्ता संभाल रहे जनप्रतिनिधियों ने बदला लेने जैसे शब्दों का प्रयोग किया। पुलिस ने उनके अनुरूप प्रदर्शनकारियों से बर्बरतापूर्ण आचरण किया। मेरठ में एक एसपी शांति से खड़े मुस्लिम समुदाय के लोगों से पाकिस्तान चले जाने की बात कहता है। मीडिया का एक बड़ा वर्ग कवरेज में निष्पक्ष और नैसार्गिक न्याय के सिद्धांतों का पालन नहीं करता, जिससे वह सवालों में है।
दिल्ली के जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के भीतर घुसकर जिस तरह पुलिस ने विद्यार्थियों से बर्बरता की, उससे कहीं अधिक बुरे हालात यूपी में हुए। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पुलिसकर्मी वर्दीवाले गुंडे बन गये। उन्होंने छात्र-छात्राओं को ऐसे पीटा, जैसे वो दुश्मन देश के हों। एएमयू और छात्रों की संपत्ति को पुलिस ने ही नुकसान पहुचाया। एएमयू में स्टन ग्रेनेड तक का इस्तेमाल किया गया जबकि इनका प्रयोग सिर्फ युद्ध जैसी स्थितियों में होता है। पुलिसवाले धार्मिक नारे लगाते हुए हमलावर दिखे। मगर, इसके उलट उन्होंने दस हजार छात्रों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया। पुलिस ने 21 आंदोलनकारियों को मार डाला। दमनकारी पुलिस का चेहरा कई जगह दिखा। मुजफ्फरनगर में की एक घटना नजीर है, जहां पिछले 31 सालों से शिमला में रहने वाला इशरार अपने बीमार जीजा को छोड़ने गया था। पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर इतना पीटा कि उसका हाथ टूट गया। वहीं एक अन्य घर में घुसकर पुलिस ने बुजुर्गों और महिलाओं को पीटा और अभद्रता की। कई जगह पुलिस ने खुद तोड़फोड़ और आगजनी भी की। मेरठ, लखनऊ, कानपुर, बिजनौर, बुलंदशहर, गोरखपुर आदि शहरों में पुलिस ने खुद बलवा कराया। प्रतिरोध होने पर गोलियां चलाईं। इसमें हजारों लोग घायल हुए और सैकड़ों लोग मनोवैज्ञामिक बीमारियों का शिकार। कई योग्य अफसरों को नजरांदाज करके सेनाध्यक्ष बनाये गये विपिन रावत कुर्सी बचाने के लिए सियासी बयानबाजी करके कुर्सी सुरक्षित करते हैं। मीडिया फिर भी एकपक्षीय दिखा।
संविधान की शपथ लेकर मंत्री पद का सुख भोगने वाले सार्वजनिक रूप से संविधान का मखौल उड़ाते दिखे। बिजनौर में मंत्री कपिलदेव अग्रवाल घायल हिंदू युवक के घर गये मगर मारे गये मुस्लिम युवकों के परिवारों का हाल जानना तो दूर उनके बारे में अभद्र टिप्पणी करके दिल जरूर दुखाया। वाराणसी में पर्यावरण और स्वच्छता अभियान चलाने वाले एक हिंदू दंपत्ति को पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। उन पर गंभीर धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया जबकि वह प्रदर्शन के दौरान सिर्फ विचार व्यक्त कर रहे थे। वहां कोई उपद्रव भी नहीं हुआ। उनकी सवा साल की बेटी ठंड में मातृत्व के लिए तरस रही है। लखनऊ में एक युवती को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर पीटा गया क्योंकि वह फेसबुक लाइव से सच दिखा रही थी। फिरोजाबाद में प्रदर्शनकारी मोहम्मद शफीक के सिर को टारगेट करके पुलिस ने गोली मारी। कानपुर में भी ऐसा ही हुआ। हमें अपने कुछ मित्रों से यह भी पता चला कि गिरफ्तार किये गये युवकों के हाथ में कट्टे पकड़ाकर फोटो खींचे जा रहे हैं। आखिर यह अत्याचार हुआ क्यों? वजह साफ है यूपी के सीएम अजय सिंह विष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ ने अपने संबोधन में कहा कि उन्होंने पुलिस प्रशासन से सख्ती से बदला लेने की कार्रवाई के निर्देश दिये हैं। यह वही सीएम हैं, उन्होंने भाजपा सरकार आने पर अपने लोगों के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान दर्ज सभी आपराधिक मुकदमें वापस ले लिये। यूपी पुलिस ने जो किया वह किसी नागरिक पुलिस का कर्तव्य था? क्या मीडिया ने इस पर सवाल उठाया? शायद नहीं।
संसद की कार्यवाहियों पर हम नजर डालें तो पता चलता है कि 2014 से अब तक 9 बार एनआरसी पर चर्चा हुई है। गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में सीएबी पर चर्चा के दौरान प्रक्रिया स्पष्ट की थी कि वह पूरे देश में एनआरसी लाएंगे, सीएबी उसी का पहला चरण है। राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण में इसका संकल्प दोहराया। भाजपा के तमाम मुख्यमंत्रियों ने एनआरसी की बात कही। भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में भी इसका जिक्र है। इसके बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्यों कहते हैं कि अब तक एनआरसी का नाम तक नहीं लिया गया? डिटेंशन सेंटर नहीं बन रहे? सीएए के विरोध और एनआरसी की आशंका की आग ठंडी भी नहीं हुई थी कि एनपीआर (राष्ट्रीय जनगणना रजिस्टर) शुरू करने की घोषणा कर दी गई। गृह मंत्री एक न्यूज एजेंसी से इंटरव्यू में कहते हैं कि एनपीआर और एनआरसी का कोई लिंक नहीं है जबकि उनके ही मंत्रालय ने जो सर्कुलर जारी किया है, उसमें स्पष्ट है कि एनआरसी की प्रक्रिया मे पहला चरण एनपीआर से सूचनायें लेना है। 2011 की जनगणना में 15 सूचनाएं एकत्र की गई थीं, जबकि इस बार 21 सूचनाएं ली जाएंगी, जो एनआरसी के लिए जरूरी हैं। एनआरसी को नागरिकता अधिनियम 1955 के तहत एनपीआर के आधार पर 2003 के नागरिकता नियमों में शामिल किया गया है। एनपीआर उन्हीं नियमों का हिस्सा है। कर्नाटक में डिटेंशन सेंटर बनकर तैयार है और कई अन्य राज्यों में बन रहे हैं।
समस्या न तो सीएए है और न ही एनआरसी-एनपीआर। समस्या उसका सांप्रदायिक चेहरा और झूठ है, जो जन मन के अनुकूल नहीं है। यह संविधान की मूल भावना की हत्या करने वाला है। समस्या प्रधानमंत्री मोदी सहित जिम्मेदार मंत्रियों का भ्रामक संबोधन है, जो आशंकाएं उत्पन्न करता है। समस्या मंत्रियों, कुछ मुख्यमंत्रियों और नेताओं की सांप्रदायिक बातें हैं। संघ से भाजपा में आये एक बड़े नेता से हमारी बात हुई, तो उन्होंने कहा कि बवाल, हिंसा और सांप्रदायिकता के आरोपों से हम क्यों डरें? यह जितना बढ़ेगा, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होगा। हमारा वोटबैंक संगठित होगा। उनकी बात सुनकर हम हैरान थे क्योंकि उन्होंने हमसे भी आग्रह किया कि आप क्यों भटक रहे हैं, आप तो घर के हैं, घर में रहिये, विरोध करने वालों को करने दीजिए। कमोबेश यही बातें दूसरे मीडियाकर्मियों से भी की जाती होंगी, तभी शायद वह ‘नैसार्गिक न्याय के सिद्धांत’ पर आधारित पत्रकारिता को छोड़कर सत्ता चारण करते हैं। ऐसे लोग पुलिस फायरिंग और मॉब लिंचिंग को भी जायज ठहराते हैं। उसे विधिक साबित करने में पुलिस-प्रशासन के अनुयायी बन जाते हैं। यही कारण है कि नेताओं को गालियां देने वाली जनता अब मीडिया को भी जगह जगह अपमानित कर रही है।
देश गंभीर आर्थिक, औद्योगिक, शैक्षिक एवं बेरोजगारी के संकट से गुजर रहा है। कश्मीर करीब पांच माह से जल रहा है। हम नववर्ष का उत्सव अपने सैकड़ों युवा भाइयों की लाशों पर मनाने की तैयारी में हैं! क्या यही भारतीय संस्कृति-सभ्यता और धर्म है? हमने जितना पढ़ा है, उसमें तो वसुधैव कुटुंबकम की बात कही गई है। पुलिस-सेना का काम देश के नागरिकों की हत्या नहीं बल्कि उनको अपराध से रोकना और सुरक्षा देना है। सभी को आत्ममंथन करना चाहिए। सरकार और मीडिया के जिम्मेदार लोगों को खुद और अपने सहयोगियों को जनहित और न्याय के लिए प्रेरित करना चाहिए न कि विघटन और विद्वेष के लिए। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो भले ही डरावना सम्मान पा लें, मगर दिल से सिर्फ अपमान मिलेगा।

जयहिंद

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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)

 

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