Come with farmers to save democracy: लोकतंत्र बचाने के लिए किसानों के साथ आइये

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तुम से पहले वो जो इक शख्स यहां तख्त नशीं था, उस को भी अपने खुदा होने पे इतना ही यकीं था। पाकिस्तानी शायर हबीब जालिब का यह शेर आज भी उतना ही मौजूं है, जितना लिखते वक्त में वहां था। अपने नाम के बदलाव के साथ ही अपनी नीतियां कारपोरेट स्टाइल में बदलने वाले नीति आयोग में तैनात सिविल सर्वेंट (सीईओ) अमिताभ कांत ने किसान आंदोलन पर टिप्पणी की कि भारत में लोकतंत्र कुछ ज़्यादा ही है, लेकिन मोदी सरकार सभी सेक्टरों में सुधार को लेकर साहस और प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ रही है। सरकार ने कोयला, श्रम और कृषि क्षेत्र में सुधार को लेकर साहस दिखाया है। हकीकत यह है कि इन तीनों क्षेत्रों में सरकार की नीतियां विवादों में हैं क्योंकि उसमें लोकहित से अधिक कारपोरेट हित को साधा गया है। कोयला सुधार के नाम पर आदिवासियों और जल, जमीन, जंगल पर कुदाल चलाई गई है मगर वो दिल्ली आकर प्रदर्शन करने की क्षमता नहीं रखते। श्रम सुधार के नाम पर श्रमिकों के हक पर डाका डाला गया है मगर सर्वहारा वर्ग के कमजोर होने से उनकी आवाज भी दब चुकी है। मजदूर अपने हक की लड़ाई लड़ने में सक्षम नहीं है। कृषि सुधार के नाम पर जिस तरह से किसानों को कारपोरेट के हाथ सौंप दिया गया, उस पर किसान भी लाचार बैठा था मगर यह तो पंजाब-हरियाणा का सबल किसान ही है, जो इस साजिश के खिलाफ खड़ा हो गया। वह देश के किसानों की आवाज बना और जब सरकार ने उसकी नहीं सुनी तो दिल्ली कूच कर गया। एक दर्जन से अधिक किसान आपके हक की लड़ाई में अबतक शहीद हो चुके हैं।

आपको याद होगा, जब देश अंग्रेजी हुकूमत से आजाद हुआ, तो देशवासी भुखमरी की कगार पर थे। पेट भरने को हम अमेरिका से आने वाले लाल गेहूं पर आश्रित थे। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देश की जरूरत को समझा। उन्होंने सबसे पहले भाखड़ा डैम और एनएफएल की नीव रखी, जिससे किसानी के लिए पानी, खाद और बिजली उपलब्ध हो सके। पंजाब (तब हरियाणा और हिमाचल भी उसका हिस्सा थे) को देश का पेट भरने की जिम्मेदारी उठाने को कहा गया। पंजाब के अलावा देश के तमाम राज्यों में 18 डैम की नीव रखी गई। पंजाब ने कड़ी मेहनत के साथ उन्नत खेती करके देश का पेट भरने का जिम्मा बखूबी निभाया। हरित क्रांति में महान योगदान दिया। आज इस क्षेत्र में ही नहीं बल्कि विश्व के तमाम देशों की उन्नत खेती में पंजाब का किसान अहम भूमिका निभा रहा है। यूपी-उत्तराखंड के बड़े इलाके में पंजाब के किसानों ने बेहतरीन काम कर इन राज्यों का कृषि उत्पादन भी बढ़ाया है। इस साल भी केंद्र सरकार के मंत्री जब एफसीआई के अनाज खरीद का जिक्र करके किसानों के आंदोलन पर निशाना साध रहे हैं, तब पता चलता है कि देश भर के राज्यों की तुलना में पंजाब ने दूसरे नंबर पर योगदान दिया है। सरकार ने करीब 73,500 करोड़ रुपये का गेहूं करीब 43 लाख किसानों से खरीदा। इसमें मध्य प्रदेश से 129 लाख मैट्रिक टन, पंजाब से 127 लाख मैट्रिक टन, हरियाणा से 74 लाख मैट्रिक टन, यूपी से 32 लाख मैट्रिक टन और राजस्थन से 19 लाख मैट्रिक टन गेहूं खरीदा गया। सितंबर माह में ही तेलंगाना से 64 लाख मैट्रिक टन, आंध्र प्रदेश से 31 लाख मैट्रिक टन, उड़ीसा से 14 लाख मैट्रिक टन और तमिलनाडु से 4 लाख मैट्रिक टन धान की खरीद की गई। एफसीआई के गोदामों में यही अनाज था जिसके बूते सरकार ने कोरोना काल में अनाज देने की योजना को चलाये रखा और सरकार की लाज बची।

पिछले एक दशक में एफसीआई ने देश में कोई नया गोदाम नहीं बनाया है। इसी दौरान कारपोरेट क्षेत्र के बड़े गोदाम तेजी से बने और लगातार बन रहे हैं। आज देश भर में सरकारी गोदामों की भंडारण क्षमता 410 लाख मैट्रिक टन की है जबकि निजी क्षेत्र के गोदामों की क्षमता करीब 490 लाख मैट्रिक टन की। आपको पता है कि रिलायंस समूह जैसे कारपोरेट 12 हजार अरब रुपये का रिटेल में अनाज का कारोबोर कर रहे हैं। देश में कृषि का कारोबार 20 लाख करोड़ रुपये से अधिक का है। किसान की मेहनत को कारपोरेट के मुनाफे में बदलने के लिए सरकार ने 2022 में अनाज निर्यात 60 बिलियन करने का लक्ष्य बनाया है। यही कारण है कि मोदी सरकार सहित लोकतंत्र को कुछ ज्यादा ही बताने वाले अमिताभ कांत को किसानों के आंदोलन से तकलीफ हो रही है। अमिताभ कांत सहित सरकार पर कारपोरेट के लिए काम करने के आरोप लग रहे हैं। किसानों ने इन तीनों कृषि कानूनों के साथ ही कारपोरेट को भी निशाने पर ले लिया है। किसान आवाम की आवाज है क्योंकि वह हमारा अन्नदाता है। किसानों के आंदोलन को लगातार देशभर से समर्थन मिल रहा है। यह समर्थन जाति-धर्म और राजनीति से परे, हक की बात के लिए है। सरकार सफाई देती है कि इन सुधारों का प्रस्ताव कांग्रेस ने अपने राज में तैयार किया था और अब विरोध कर रही है। इस पर किसानों का कहना है कि कांग्रेस के इसी प्रस्ताव से नाराज होकर तो उन्होंने भाजपा को वोट दिया था। अब मोदी सरकार कांग्रेस से भी आगे निकलकर कारपोरेट के लिए काम करने में जुटी है। हम पर सुधार के नाम पर तानाशाहीपूर्ण कानून लागू कर रही है। यह तो लोकतंत्र की आवाज के खिलाफ है। जो हम मांग रहे, वह दे नहीं रहे और जिसका हम विरोध करते आ रहे, वही हम पर लाद रही है।

आंदोलन के पहले सरकार ने एक बार भी किसानों से बात नहीं की मगर जब दिल्ली घिर गई, तो उनको सात बार बात के लिए बुलाया। किसानों की एक नहीं सुनी सिर्फ अपनी थोपने की बात की। यह वैसे ही हुआ, जैसे अंग्रेजी हुकूमत गांधीजी को बात के लिए बुलाती और अपनी ही मनवाने का दबाव बनाती थी। सरकार न विपक्ष की सुन रही है और न किसानों की। उसे पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से सीखना चाहिए। देश के पहले चुनाव 1952 में जब 497 लोकसभा सीटें थीं, उसमें वह 364 पर जीते थे, 1957 में जब वह 490 सीटों पर लड़े, तो 371 सीटें पाईं और जब 1962 में वह 488 सीटों पर लड़े तो भी 361 सीटें जीती थीं, मगर तब भी नेहरू ने न आवाम की आवाज को अनसुना किया और न विपक्ष के सम्मान सो ठेस पहुंचाई। वह हर किसी की सुनते और जवाब देते थे। 1963 में अपनी पार्टी के सदस्यों के विरोध के बावजूद भी उन्होंने अपनी ही सरकार के खिलाफ विपक्ष की ओर से लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा कराना मंज़ूर किया। अटल ने लिखा है कि तब उन्होंने पंडित नेहरू से कहा था कि उनके अंदर चर्चिल भी है और चैंबरलिन भी, लेकिन नेहरू ने बुरा नहीं माना। उसी शाम दोनों की कैंटीन में मुलाकात हुई तो नेहरू ने अटल की तारीफ की, कहा कि तुम्हारा आज का भाषण बड़ा जबरदस्त रहा।

लोकतंत्र में ऐसा पहली बार हो रहा है कि न जनता की सुनी जा रही है और न ही चुने गये विपक्षी नेताओं की। दोनों का ही उपहास उड़ाया जा रहा है। सरकारी नौकर लोकतंत्र को ही बोझ साबित कर रहे हैं। किसान-कामगार मर रहा है, व्यापार-व्यवसाय चौपट हैं। अर्थव्यवस्था विश्व के किसी भी देश की तुलना में बदतर हाल में है। कुछ कारपोरेट और सत्तारूढ़ दल के लोग ही लाभ कमा रहे हैं, बाकी बदहाली में हैं। बैंकें दीवालिया हो रही हैं। सार्वजनिक उपक्रम बेचे जा रहे हैं और शान ओ शौकत के लिए हमारा धन बरबाद किया जा रहा है। जांच एजेंसियां हों या संवैधानिक संस्थायें, सभी को घरेलू नौकर बना दिया गया है। कोई भी सच सुनने समझने को तैयार नहीं है। ऐसे वक्त में किसानों ने लोकतंत्र की आवाज बुलंद की है। हमें सत्य को जमीनी हाल पर देखना चाहिए कि देशभर का किसान पंजाब के किसान की तरह बने, या पंजाब का किसान भी बिहार के किसान की तरह बदहाल हो जाये? फैसला आपको करना है।

जय हिंद!

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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक मल्टीमीडिया हैं)

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