Answer Annadata’s questions, not sticks! अन्नदाता के सवालों का जवाब दीजिए, लाठी नहीं! 

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NEW DELHI, OCT 2 (UNI):- Police using water canon to disperse agitating farmers blocking Delhi-Uttar Pradesh border in support of their various demands on Tuesday. UNI PHOTO-AK30U

जो सेहत देता दूजों को, खतरे में उसकी जान है क्यों। सबकी पूरी करे जरूरत, अधूरे उसके अरमान हैं क्यों। पूरा मूल्य मिले मेहनत का, बस इतनी ही तो उसकी चाहत है। उस किसान के खातिर तो ये धरा ही उसकी मां है। किसान सिर्फ अन्नदाता नहीं बल्कि हमारा इतिहास और भविष्य दोनों ही है। शायद यही वजह थी कि महात्मा गांधी ने अपनी हत्या के एक दिन पहले 29 जनवरी, 1948 को प्रार्थना सभा में कहा था कि ‘मेरी चले तो हमारा गवर्नर-जनरल किसान होगा, हमारा बड़ा वजीर किसान होगा, सब कुछ किसान होगा, क्योंकि यहां का राजा किसान है। उन्होंने बताया कि उन्हें बचपन में एक कविता सुनाई गई थी “हे किसान, तू बादशाह है।” किसान ज़मीन से पैदा न करे तो हम क्या खाएंगे? असल में वही तो हिंदुस्तान का राजा है, लेकिन आज हम उसे ग़ुलाम बनाकर बैठे हैं। किसान क्या करे? एमए-बीए बनें? ऐसा किया तो किसान मिट जाएगा। वह कुदाली नहीं चलाएगा। किसान सत्ता प्रधान बने, तो हिंदुस्तान की शक्ल बदल जाएगी।’ तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस बात को गांठ बांध लिया। चुनाव बाद अपने पहले मंत्रिमंडल में उन्होंने किसानों को तरजीह दी। अपनी पहली परियोजना भाखड़ा-नंगल ब्यास किसानों के लिए समर्पित की। नेशनल फर्टलाइजर सहित हरित और दुग्ध क्रांति करके, उनकी दशा सुधारने पर काम किया। उन्हें स्थानीय प्रशासन का प्रधान बनाने की व्यवस्था की। मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी किसान हित की बात कहते हुए, उनसे जुड़े तीन कानूनों में संशोधन कर किसानों को समृद्ध करने की बात कही। मगर किसान उनकी बात पर यकीन नहीं कर पा रहे। उनके चंद सवाल हैं, जिनका सरकार विधिक तरीके से जवाब नहीं दे रही। यही वजह है कि देश का किसान पिछले दो महीने से शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहा है। जब सरकार ने उसकी सुध नहीं ली, तो वह जय जवान, जय किसान करते हुए दिल्ली कूच कर गये मगर वहां जवानों को उनके खिलाफ बंदूकें लेकर खड़ा कर दिया गया।

किसानों की मांग को जायज बताते हुए कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी की अगुआई में तमाम राज्यों ने केंद्र सरकार के कृषि सुधार वाले तीनों कानूनों को अपने प्रदेशों में लागू न करने का फैसला किया। कांग्रेस शासित राज्यों ने कहा कि किसानों की मर्जी के खिलाफ बने कानून उनके राज्यों में नहीं चलेंगे। वित्तीय संकट के अभाव में वो इन्हें कितना निभा पाएंगे, यह सवालों में है। जीएसटी लागू होने के बाद से राज्य वित्तीय मामलों में केंद्र सरकार के आगे मजबूर हैं। देश की 60 फीसदी आबादी को भोजन कराने का जिम्मा उठाने वाले पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी के किसानों ने अपने हक को लेकर दिल्ली में डेरा डालने का फैसला किया। वजह, केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा नेता उनकी बात सुनने को तैयार नहीं हैं। वो तीनों कृषि कानूनों में हुए बदलाव को किसान हित का बताकर वापस लेने या किसानों की संतुष्टि के लिए उसमें मौखिक रूप से किये जा रहे वादे को लिखित रूप में तब्दील करने को तैयार नहीं हैं। इस दोहरी नीति के विरोध में किसान जब दिल्ली को चले तो हरियाणा, उत्तराखंड और यूपी सरकार ने उन्हें दिल्ली जाने से रोकने के लिए पूरी ताकत लगा दी। जवानों को बैरीकेड, आंशु गैस के गोलों, राइफलों, डंडों और वाटरकैनन के साथ उनका मुकाबला करने के लिए तैनात कर दिया गया। संविधान में प्रदत्त शांतिपूर्ण प्रदर्शन और आवागमन के अधिकार से भी उन्हें वंचित किया गया। राष्ट्रीय राजमार्गों में भी गहरे गड्ढे कर दिये गये। किसान बिना डरे, सर्दी के मौसम में भी पानी से भीगते, लाठी खाते आगे बढ़ता रहा। अंबाला पुलिस ने जबरन किसानों के खिलाफ गंभीर धाराओं में मुकदमा दर्ज कर दिया। इस पर किसान नेताओं का कहना है कि सरकारी काले कानून से मरें, उससे अच्छा है, हम बहादुरों की तरह आंदोलन करते मरेंगे।

किसानों का जज्बा और आंदोलन देखकर हमें देश की आजादी की लड़ाई की याद आ गई। महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया था, जहां सरकारी कानूनों को शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों के जरिए तोड़ा जा रहा था। इस हक की लड़ाई का हम अवलोकन करें तो देखते हैं कि किसानों के चंद सवाल हैं। नये कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का जिक्र न होने से उसके खत्म होने की आशंका। मंडियों से बाहर कृषि उत्पादों के बगैर टैक्स कारोबार करने को मंजूरी को मंडियां खत्म करने की साजिश के तौर पर देखा जाना। ‘वन कंट्री टू मार्केट’ बनाने की साजिश। जिससे कारपोरेट का कारोबार पर कब्जा होना और किसान को बाजार के हवाले छोड़ देना। जिसमें एमएसपी की गारंटी न होना। कांट्रैक्ट फार्मिंग के जरिए कारपोरेट का कृषि पर कब्जा कराना और इस कानून में किसानों के अदालत जाने के हक को भी छीनना। डीएम और एसडीएम के भरोसे उनको सौंप देना। कृषि उत्पाद के भंडारण की सीमा खत्म करके किसी को भी जमाखोरी करने का अधिकार देना। किसान इन सवालों पर सरकार से कानून में ही जवाब चाहता है। सत्तारूढ़ दल यह प्रचारित कर रहा है कि इस कानून का विरोध सिर्फ पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी के कुछ किसान कर रहे हैं। यूपी सरकार के मंत्री अनिल शर्मा प्रदर्शनकारी किसानों को गुंडा घोषित कर देते हैं। मगर सच यह है कि देश के तमाम राज्यों में किसान विभिन्न तरीके से आंदोलन कर रहे हैं। उत्तर भारत के किसानों के लिए दिल्ली पहुंचना आसान है, जिससे वह इस आंदोलन की अगुआई कर रहे हैं। वास्तव में देश में सबसे अधिक गेहूं और धान का उत्पादन इन्हीं राज्यों में होता है। इन राज्यों में मंडियां भी किसानों के लिए मुफीद हैं। जिससे यहां का किसान देश में सबसे अधिक समृद्ध है जबकि बिहार जैसे राज्यों में मंडियां ही नहीं हैं। परिणामतः, सबसे अधिक किसानों की दुर्दशा उन राज्यों में है, जहां मंडियां नहीं हैं। किसान बाजार के बिचौलियों के भरोसे है। सरकार एमएसपी दिला नहीं पाती है।

हमारे देश में सबसे अधिक किसान उन्हीं राज्यों में आत्महत्या करता है, जहां मंडी व्यवस्था ठीक नहीं है। ऐसे में किसान सरकारी संरक्षण में अपने उत्पाद को बेचना चाहता है। आजादी के बाद पंजाब-हरियाणा को देश का पेट पालने का जिम्मा सौंपा गया था, जिसे उन्होंने बेहतर तरीके से निभाया है। जय जवान, जय किसान का नारा भी इन्हीं राज्यों ने बुलंद किया था। वह सीमा पर लड़े भी और लोगों का पेट भी भरा। पंजाब के किसानों ने यूपी सहित तमाम राज्यों में जाकर कृषि को उन्नत बनाया है। कुछ साल पहले तक किसानों को सस्ती बिजली से लेकर तमाम सरकारी संबल दिया जाता था मगर धीरे-धीरे उन्हें भी खत्म कर दिया गया है। इन सभी सवालों पर बात करने के लिए पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह राष्ट्रपति से मिलने दिल्ली गये मगर इतिहास में पहली बार राष्ट्रपति ने किसी मुख्यमंत्री को मिलने को वक्त ही नहीं दिया। यह हाल तब है जबकि देश में हर घंटे दो किसान आत्महत्या कर रहे हैं। मजबूर किसानों ने सरकार को जगाने के लिए दिल्ली कूच कर दिया। मगर देश का हाल वही है कि रोम जल रहा था और नीरो बंसी बजा रहा था। शायद तभी कारपोरेट कृषि व्यवसाय में कूद पड़ा है क्योंकि इन तीनों कानूनों के आने से भविष्य में कृषि उनके लिए सबसे अधिक मुनाफे वाला धंधा बनने वाला है। यही कारण है कि किसान आज कांति मोहन ‘सोज’ की कविता को दोहराते हुए आगे बढ़ रहे हैं। चलो साथियों चलो कि अपनी मंज़िल बहुत कड़ी है, उधर विजय ताज़ा फूलों की माला लिए खड़ी हैचलो साथियों तुम्हें जगाना पूरा हिन्दुस्तानखोने को हथकड़ियाँपाने को है दुनिया सारीचलो साथियो बढ़ो कि होगी अन्तिम विजय हमारीसर पर कफ़न हथेली पर रख लें अब अपनी जानरात गई रे साथी!  जय किसान।

हर नागरिक के सुखी और स्वस्थ जीवन को सुनिश्चित करना सरकार की महती जिम्मेदारी है मगर हमारी सरकार की नीतियां देश की संपत्ति बेचने वाली अधिक नजर आती हैं। उसे समझना चाहिए कि पेट सभी को भरना है। ऐसी स्थिति में किसान को संरक्षण और समर्थन दोनों चाहिए। यह सवाल देश के 30 करोड़ किसान-कृषि मजदूरों के परिवारों का ही नहीं बल्कि हर व्यक्ति के जीवन का है। सरकार को किसानों को बंटने और उन्हें लाठियों से पीटने से समस्या खत्म नहीं होगी बल्कि बढ़ेगी। इस आंदोलन को सकारात्मक रूप से लेकर सरकार किसानों से संवाद करे और उनके हर सवाल का विधिक जवाब दे।

जय हिंद!

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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक मल्टीमीडिया हैं)

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