Ab ghar ghar ghusker marenge nakabposh: अब घर-घर घुसकर मारेंगे नकाबपोश

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देश-दुनिया के ख्यातिलब्ध जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में विद्यार्थियों-शिक्षकों पर हुए हमले के बाद पूरा देश स्तब्ध है। आरोप-प्रत्यारोप लग रहे हैं किन्तु गुनहगार आजाद हैं। यह समय देश के लिए चिंता ही नहीं, चुनौती भरा ही है। देश के अस्पतालों में बच्चे मर रहे हैं, बेरोजगार बढ़ रहे हैं, सड़कों पर बेटियां सुरक्षित नहीं हैं और हम हिन्दुओं-मुसलमानों की लड़ाई लड़ रहे हैं। जिस तरह देश में असुरक्षा का माहौल बना है, उससे कोई अपने आपको सुरक्षित नहीं कह सकता। विश्वविद्यालय तक नकाबपोश पहुंच चुके हैं और यदि तुरंत देश नहीं जागा, तो वह दिन दूर नहीं जब ऐसे ही नकाबपोश घर-घर घुसकर मारेंगे। हमेशा की तरह हम तब जागने का ढोंग करेंगे, किन्तु तब तक देर हो चुकी होगी।
इक्कीसवीं शताब्दी वैचारिक उन्नयन के स्थान पर सोशल मीडिया के उन्नयन की शताब्दी बन गयी है। हम जेएनयू जैसे घटनाक्रमों के बाद भी ट्विटर पर फोकस केंद्रित कर देते हैं। पिटे छात्रों के बीच उनकी विचारधारा, जाति, धर्म पर जोर देते हैं। यह स्थिति बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। जेएनयू में विद्यार्थियों-शिक्षकों पर हुए नियोजित हमले के बाद इसके लिए कसूरवार ठहराने की होड़ लगी है। दरअसल यहां पूरी बदलती शैक्षिक संस्कृति व कथित वैचारिक क्रांति की चर्चा करनी होगी। कट्टरता किसी भी पक्ष की हो, वह समाज के लिए हानिकारक होती है। इस समय देश ऐसी ही कट्टरता के आगोश में डूबा है। इस कारण देश में आम आदमी के मुद्दे हवा से हो गये हैं। राजस्थान में जिस तरह जिले-जिले में बच्चों की मौत हो रही है, उस पर इलाज के पुख्ता बंदोबस्त करने के स्थान पर राजनीति की जा रही है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि आजादी के 70 से अधिक वर्ष बीत जाने के बाद भी हम बच्चों को पूरी तरह उपचार उपलब्ध कराने में विफल हैं। बिगड़ी अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोजगारी व सामाजिक सुरक्षा के संकट की चिंता के स्थान पर हम धर्म को लेकर परेशान हैं। इसके लिए अनूठे तर्क भी गढ़े जा रहे हैं। दरअसल देश भक्ति का आधार भी अब बदलने सा लगा है और उसमें भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे भी पीछे छूट गए हैं।
देश के सामने चल रहे संकटपूर्ण घमासान के बीच वैचारिक विरोधाभास भी बड़ी समस्या बन गया है। दक्षिण व वाम पंथ के नाम पर जेएनयू ही नहीं, देश के तमाम शिक्षण संस्थानों को प्रयोगशाला का रूप दिया जा रहा है। जेएनयू में हुए हमले के बाद उठे चिंता के ज्वार के बीच हमें पिछले कुछ दिनों से देश में शिक्षण संस्थानों के वैचारिक दुरुपयोग की चिंता भी करनी होगी। बीएचयू से लेकर एएमयू व जामिया मिलिया से लेकर जेएनयू तक ही नहीं, अब तो आईआईटी तक इस वैचारिक संग्राम की चपेट में आ चुके हैं। पिछले दिनों जिस तरह आईआईटी कानपुर में फैज अहमद फैज की नज्म को लेकर विवाद हुआ और क्रांति की पंक्तियों को धर्म से जोड़कर हंगामा मचाया गया, वह भी शिक्षण संस्थानों की शुचिता के अनुरूप नहीं कहा जाएगा। इन संस्थानों में विद्यार्थियों के बीच धार्मिक आधार पर हो रहे इस विभाजन से देश के भविष्य को लेकर भी चिंताएं उत्पन्न हो रही हैं। यह विभाजन सर्वधर्म सद्भाव व वसुधैव कुटुंबकम् की भावना के साथ पुष्पित-पल्लवित हो रहे देश के लिए किसी भी स्तर पर उपयुक्त नहीं माना जा सकता। इससे देश के बौद्धिक विकास का पथ भी प्रशस्त नहीं होगा, यह चिंता भी सभी को करनी पड़ेगी। ऐसा न हुआ तो हम उन तमाम देशों की तरह पिछड़ते जाएंगे, जिनके लिए देश से पहले अन्य विषय होते हैं।
जेएनयू में हुए हमले के बाद देश का विभाजनकारी मौन स्तब्ध कर देने वाला है। हम इस घटना को लेकर जितना चिंतित हैं, उससे अधिक यह जानने को लेकर परेशान हैं कि हमला करने वाले किस पक्ष के हैं। ये वामपंथी हों या दक्षिणपंथी, अंतत: वे हमलावर ही हैं। उन्हें सिर्फ अपराधियों की तरह ही स्वीकार किया जाना चाहिए। घायल भी किस वैचारिक अधिष्ठान से आते हैं, उसके स्थान पर वे विद्यार्थी व शिक्षक हैं, यह सोचा जाना चाहिए। देश के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती यही है। यदि हमने इस समय इसे पंथ के भाव से देखना नहीं बंद किया तो वह दिन दूर नहीं जब जेएनयू से निकलकर ऐसे अपराधी घर-घर तक पहुंच जाएंगे। ये नकाबपोश घरों में घुसकर हमला करेंगे और तब वे न विचारधारा देखेंगे, न धर्म व जाति की चिंता करेंगे। इस समय सबको मिलकर सामने आना होगा, एकजुट पहल करनी होगी और जाति-धर्म के साथ पंथ के विभेद भी खत्म करने होंगे। ऐसा न किया तो बहुत देर हो जाएगी, सच में बहुत देर…।

-डॉ.संजीव मिश्र

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