History of Ayodhya trial, and judgment: अयोध्या मुकदमे का इतिहास, और फैसला

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अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का बहुप्रतीक्षित निर्णय आ गया है। इस पर मीन मेख जारी है। विधि विशेषज्ञों से लेकर आम जन भी जिनकी रुचि इस मामले में है वे इसकी चर्चा कर रहे हैं। 1885 से शुरू हुआ कानूनी विवाद का समापन 9 नवम्बर 2019 को हो गया। फैसला तो अभूतपूर्व है ही, उस फैसले पर देश मे अभूतपूर्व शांति भी रही। तमाम आशंकाओं, खुफिया सूचनाओं और विवाद की संभावनाओं के बावजूद देश मे न केवल शांति रही बल्कि यह शांति दिखी भी। इसका एक कारण यह भी था, कि अयोध्या के विवाद ने देश के सामाजिक सद्भाव को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाया है और इससे दुनियाभर में भारतीय परंपरा, दर्शन, सोच और वसुधैव कुटुम्बकम के प्रभावशाली विचार को एक आघात भी लगा है। आज का विमर्श इसी विषय पर है।
कहा जाता है कि 1528 में  बाबर ने यहां एक मस्जिद का निर्माण कराया था, जिसे बाबरी मस्जिद कहते हैं। लेकिन इस कथन का कोई भी उल्लेख न तो बाबरनामा में मिलता है और न ही अन्य किसी समकालीन संदर्भ में। यह भी कहा जाता है कि यहां एक मंदिर था जिसे तोड़ कर मीर बाकी ने एक मस्जिद का निर्माण कराया। उसी को बाबर के समकालीन होने के कारण बाबरी मस्जिद कहा गया। यह सब कही सुनी बातें हैं। ऐतिहासिक साक्ष्य इसकी पुष्टि न तब करते थे और न अब कर रहे हैं। अदालत में भी इस विंदु पर कोई प्रमाण न तो पुरातत्व विभाग की खोजों से मिल सका और न ही तत्कालीन दस्तावेजों से। सुप्रीम कोर्ट ने पुरातत्व विभाग की रपटों और निष्कर्ष पर अपने निर्णय को केंद्रित किया है। पुरातत्व के सुबूत यह तो कहते हैं कि गिराए गये विवादित ढांचे के नीचे एक गैर इस्लामी इमारत के अवशेष हैं। मूर्तियां, यक्षिणी और खम्भों पर उकेरी गयी मूर्तियों से यह तो प्रमाणित होता है कि ढांचे के नीचे किसी मंदिर के अवशेष हैं। पर अदालत ने हिन्दू पक्ष का यह तर्क नहीं माना कि यह ढांचा किसी मंदिर को तोड़ कर उसके अवशेषों पर बनाये जाने का प्रमाण है। बाबर द्वारा तोड़े जाने का कोई प्रमाण नहीं मिला है।
इसके बाद अकबर के समय राम जन्मभूमि की बात उठी तो उसने दोनों पक्षों में समझौता कराया और मस्जिद के बाहर एक चबूतरे तक हिंदुओं को आने और पूजा पाठ करने की अनुमति दी, जिसे राम चबूतरा कहा गया।  उस समय तक किसी उल्लेखनीय घटना का उल्लेख नहीं मिलता है। 1853 में इस मुद्दे पर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच पहली बार हिंसक झड़प हुयी। तब अवध में नवाबों का राज था। अवध में हिन्दू मुस्लिम में सामाजिक सद्भाव पहले से ही था। अवध की नवाबी पहले फैजाबाद थी जो बाद में लखनऊ गयी। 1853 के पहले ही अंग्रेजों की कुदृष्टि अवध पर पड़ चुकी थी। उत्तर भारत के इस बेहद महत्वपूर्ण राज्य जो कलकत्ता और दिल्ली के बीच स्थित था को डॉक्टरीन आॅफ लैप्स के सिद्धांत के अनुसार लार्ड डलहौजी हड़पना चाहता था और उसने अवध में दुर्व्यवस्था को अपना आधार बनाया। 1853 में जो झगड़ा अयोध्या में हुआ उसे नवाब और स्थानीय ताल्लुकदारों की मदद से सुलझा दिया गया। फिर तो 1856 में अवध का अधिग्रहण हुआ और 1857 में विप्लव के बाद 1858 में भारत सीधे क्राउन के अधीन आ गया।
1859 के समय यह मुद्दा फिर उठा और तब ब्रिटिश सरकार ने इस स्थान को तारों की एक बाड़ खड़ी करके विवादित भूमि के आंतरिक और बाहरी परिसर में मुस्लिमों और हिदुओं को अलग-अलग नमाज और पूजा की इजाजत दे दी। हिंदुओं को जो इजाजत दी गयी थी वह अकबर के समय के चबूतरे तक आने और पूजा की अनुमति के अनुरूप ही थी। 1885 में महंत रघुवर दास ने पहली बार अदालत में मस्जिद के पास ही उसी चबूतरे के पास राम मंदिर के निर्माण की इजाजत के लिए एक बाद दायर किया था। वह बाद लंबित रहा और यथास्थिति बनी रही।
1947 में भारत आजाद हो गया। लेकिन बंटवारे, देशव्यापी हिन्दू मुस्लिम दंगों के कारण नवस्वतंत्र देश के समक्ष चुनौतियां बहुत थी। इसी बीच, 22 / 23 दिसंबर 1949 की रात में अभिराम दास, महंत रामचंद्र दास तथा अन्य साधुओं ने मस्जिद के अंदर घुस कर रामलला की एक मूर्ति रख दी और यह बात सुबह तक प्रचारित कर दी कि राम यहां प्रगट हुए हैं। उस मस्जिद में नमाज 1936 से नहीं पढ़ी जाती थी पर कुछ का कहना है कि केवल जुमा की नमाज पढ़ी जाती थी। अदालत ने अपने फैसले में इस घटना का उल्लेख किया है और इसे गलत भी बताया है। यह मस्जिद में कब्जा करने का एक प्रयास था, जिससे इस मामले में असल विवाद उत्पन्न हुआ, और वर्तमान विवाद का यही आधार बना। इस घटना की व्यापक प्रतिक्रिया हुयी और यह मामला भारत सरकार तक गया। तब सरकार ने मूर्ति हटाने का आदेश तत्कालीन जिला मैजिस्ट्रेट केके नायर को दिया और सिटी मैजिस्ट्रेट को उक्त मूर्ति को हटवाने के लिये भेजा गया। पर कानून व्यवस्था को देखते हुए मूर्ति हटवाया जाना आसान नहीं था। अत: यथास्थिति बनाये रखते हुए मंदिर के अंदर लोगों के जाने पर रोक लगा दी गयी । वहां आर्म्ड पुलिस गार्ड लगा दी गयी।
5 दिसंबर 1950 को महंत परमहंस रामचंद्र ने, 22 दिसंबर की रात को रखी गयी प्रतिमा की  पूजा अर्चना, जारी रखने के लिए एक दरख्वास्त दी। अदालत ने इस दरख्वास्त पर महंत रामचंद्र दास को पूजा पाठ के लिये एक पुजारी को अंदर जाने और पूजा करने की अनुमति दे दी और राम चबूतरे तक भजन कीर्तन करने की, जो अनुमति पहले से ही थी, दी उसे जारी रखा। सुरक्षा हेतु आर्म्ड गार्ड थी ही। लेकिन लोगों को दर्शन की अनुमति बाहर से ही दी गयी थी।
16 जनवरी 1950 को  गोपाल सिंह विशारद ने एक अपील दायर कर के फैजाबाद अदालत में रामलला की विशेष अष्टयाम पूजा अर्चना, वैष्णव पद्धति से करने की इजाजत देने की मांग की। उनका तर्क था कि यह देवता के विधिवत पूजा अर्चना के अधिकार का उल्लंघन है। अत: अष्टयाम यानी मंगला आरती से शयन आरती तक की पूजा की अनुमति दी जाय। इस पर कोई आदेश जारी नहीं हुआ। मामला लंबित रहा।
अब एक नया मुकदमा 17 दिसंबर 1959 को अदालत में निमोर्ही अखाड़ा ने विवादित स्थल खुद को हस्तांतरित करने के लिए दायर किया। उसका कहना था कि यह भूमि उसकी है। भूमि का यह पहला मुकदमा था। अब तक जो मुकदमे दर्ज हुये थे वे वहां पूजा अर्चना करने की मांग को लेकर हुये थे। भूमि का यह पहला दावा था। निमोर्ही अखाड़े के भूमि संबंधी मुकदमे के दायर करने के बाद, 18 दिसंबर 1961 उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक के लिए मुकदमा दायर कर दिया। सुन्नी वक़्फ बोर्ड का कहना है कि मस्जिदें वक़्फ की जमीन पर होती हैं अत: सुन्नी वक़्फ बोर्ड को यह जमीन दी जाय। अब भूमि के मालिकाना हक के दो दावेदार हो गए, एक निमोर्ही अखाड़ा दूसरा सुन्नी वक़्फ बोर्ड।
विश्व हिंदू परिषद अब, इस विवाद में खुलकर सक्रिय हो गया।1984 में विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) ने बाबरी मस्जिद के ताले खोलने और राम जन्म स्थान को मुक्त कराने व एक विशाल मंदिर के निर्माण के लिए अभियान का प्रारंभ किया और इस कार्य हेतु एक समिति का गठन किया।1 फरवरी 1986 फैजाबाद जिला न्यायाधीश ने विवादित स्थल पर हिदुओं को पूजा की इजाजत दी । और ताले खोल दिए गए। इन ताले का भी एक रोचक इतिहास है। जब अदालत ने एसएसपी फैजाबाद से यह पूछा कि वहां ताला किसके आदेश से लगाया गया था ? तो इसकी खोज शुरू हुई। यह घटना 1950 की थी। और तभी विवाद होने पर वहां आर्म्ड पुलिस लगा दी गयी थी। थी। उसका उल्लेख तो मिला पर ताला लगाने का कोई उल्लेख नहीं मिला। ( लेखक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं)

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