हमारे डिफेंसिव कोच नहीं दिला सकते ओलिम्पिक हॉकी का गोल्ड

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अशोक ध्यानचंद
यह हमारे देश का दुर्भाग्य रहा कि 1980 के मॉस्को ओलिम्पिक में गोल्ड जीतने के बाद से भारतीय हॉकी में डिफेंसिव कोच रखने की परम्परा शुरू हो गई। इससे हमारी हॉकी ऊपर नहीं उठ पाई। इसका नतीजा यह हुआ कि हमारी फॉरवर्ड लाइन कमज़ोर होती चली गई। मैं मानता हूं कि रक्षण काफी मायने रखता है लेकिन यह सोच ठीक नहीं है।

भारतीय हॉकी के इसी रुख की वजह से अगर आप अपने फॉरवर्ड पर नज़र दौड़ायें तो आप पाएंगे कि जितनी हाइप उनके बारे में की गई, वे सब कसौटी पर खरे नहीं उतर पाये। मनदीप के बारे में यहां तक कहा गया कि इस खिलाड़ी को रोकना बहुत मुश्किल है। मैने तो उन्हें सेमीफाइनल में ही गोल करते देखा है। यदि उन्हें रोक पाना वास्तव में मुश्किल होता तो उनकी स्टिक से कई गोल देखने को मिलने चाहिए थे। ललित उपाध्याय ने भी पूरी तरह से निराश किया। बाकी के फॉरवर्ड खिलाड़ियों का भी वह खेल नहीं था कि हम उनसे गोल्ड मेडल की उम्मीद करते। फिर भी टीम ने जैसा प्रदर्शन किया है, वह अपने आप में काबिलेतारीफ है।

इस वक्त भारतीय हॉकी को अपने 25 गज के अंदर और विपक्षी के 25 गज में काम करने की ज़रूरत है। फॉरवर्ड लाइन विपक्षी के 25 गज में प्रवेश करने पर ज़्यादा से ज़्यादा पेनाल्टी कॉर्नर अर्जित करें क्योंकि आज की हॉकी काफी हद तक पेनाल्टी कॉर्नर और दोनों ओर 25 गज के खेल तक सीमित हो गई है। वहीं डिफेंस कौ कोशिश हो कि अपने 25 गज में विपक्षी फॉरवर्ड को सफल न होने दें। बेल्जियम की अंतरराष्ट्रीय हॉकी में क़ामयाबी का राज पेनाल्टी कॉर्नर पर गोल करना है। एलेक्ज़ेंडर हैंडरिक्स ने बेल्जियम को वर्ल्ड कप में सात गोल करके अपनी टीम को चैम्पियन बनाने में बड़ा योगदान दिया। उन्होंने भारत के खिलाफ भी तीन गोल किये और वह अब तक इस टूर्नामेंट में 14 गोल कर चुके हैं। हरमनप्रीत ने भी पेनाल्टी कॉर्नर पर पांच गोल किये हैं। एक ऑस्ट्रेलियाई टीम इसकी अपवाद है जो फील्ड गोल करने में भी माहिर है।

बेल्जियम के खिलाफ चौथे क्वॉर्टर में एक तरह से भारतीय टीम ने आत्मसमर्पण कर दिया। बेल्जियम का गेंद पर अधिक से अधिक कब्जा और उनकी आक्रामकता ने एक तरह से तहस नहस कर दिया। उनकी यही सोच निर्णायक साबित हुई। हालांकि हमारी इसी टीम ने अर्जेंटीना के खिलाफ शानदार खेल का प्रदर्शन किया था। मैं आज भी अपनी बात पर अडिग हूं कि हमें फॉरवर्ड लाइन में अनुभवी खिलाड़ियों पर भरोसा करना चाहिए था। रमणदीप, एसवी सुनील और आकाशदीप के पास अनुभव था। मैं यह भी मानता हूं कि एक उम्र के बाद खिलाड़ी दिमाग से हॉकी खेलने लगता है जो टीम के लिए बहुत उपयोगी साबित होती है। हमारे डिफेंसिव कोच को ज़्यादा से ज़्यादा गोल करने की ट्रेनिंग देनी चाहिए थी। उनके डिफेंसिव रुख का नतीजा है कि ब्रिटेन के खिलाफ आखिरी क्वॉर्टर में हम बेहद डिफेंसिव हो गये। ये हमारी खुशकिस्मती थी कि हम जीत गये और हमारी ये कमज़ोरी छिप गई।
(लेखक पूर्व ओलिम्पियन हैं और चार वर्ल्ड कप खेल चुके हैं)

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