Dr. Kafeel: From hero to zero, now the story ahead of zero: डॉ. कफील : हीरो से जीरो बने अब जीरो से आगे की कहानी

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डॉ. कफील खान याद हैं आपको? अगर नहीं याद आ रहा है तो बता दूं, वही डॉ. कफील जिसे गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में बच्चों की दर्दनाक मौत के बाद मीडिया ने हीरो बना दिया था। पर चंद दिनों बाद ही वही डॉ. खान हीरो से जीरो बना दिये गये। यूपी के मुखिया योगी आदित्यनाथ ने हीरो बन चुके इस डॉक्टर को पल भर में आसमान की ऊंचाई से उठाकर नीचे पटक दिया। इन्हें न केवल सस्पेंड कर दिया गया, इनके ऊपर जांच भी बैठा दी गई। मीडिया ने अपनी ‘खोजपरक’ पत्रकारिता की बदौलत डॉ. कफील को बच्चों की जान का सौदागर बताकर सरकार के समानांतर जांच की। उन्हें 64 बच्चोंं की मौत का जिम्मेदार बना दिया। पर आज वही डॉ. कफील तमाम आरोपों से मुक्त हो चुके हैं। इन आरोप प्रत्यारोपों और मीडिया ट्रायल के बीच कुछ अनसुलझे प्रश्न आज भी देश के तमाम सरकारी अस्पताल की स्थिति को लेकर मौजूद हैं। इन सवालों पर मंथन किया जाना जरूरी है ताकि उनका उत्तर मिल सके।
साल 2017 के अगस्त महीने में गोरखपुर के सरकारी अस्पताल में कई बच्चों की मौत हो गई थी। जिस वार्ड में बच्चे भर्ती थे उसमें अधिकतर बच्चे जापानी इन्सेफेलाइटिस से पीड़ित थे। इस बीमारी ने लंबे समय से उत्तरप्रदेश और बिहार के बच्चों पर कहर बरपाया है। इस गंभीर बीमारी से पीड़ित बच्चों के वार्ड में आॅक्सीजन की सप्लाई भी रुक गई थी, जिसके कारण स्थिति और भी भयावह हो गई। इसी विभाग के प्रमुख थे डॉ. कफील खान। नवजात बच्चों की मौत की तात्कालीक वजह आॅक्सीजन की सप्लाई ठप होना था। बताया गया कि आॅक्सीजन सप्लाई करने वाली कंपनी को सात महीने से ज्यादा वक्त से पेमेंट नहीं मिली थी। तमाम रिमाइंडर के बाद भी यूपी सरकार ने जब पेमेंट नहीं की तो कंपनी ने आखिरकार आॅक्सीजन की सप्लाई रोक दी। जरा सोचिए आॅक्सीजन के बिना नवजात बच्चों ने कैसे तड़प-तड़प कर दम तोड़ा होगा। क्या इस तरह की लापरवाही किसी एक व्यक्ति के कारण हो सकती है? क्या इसके लिए नीचे से लेकर ऊपर तक पूरा सिस्टम कसूरवार नहीं है? जिस रात बच्चे आॅक्सीजन की कमी के कारण तड़प रहे थे और प्राण गंवा रहे थे, उसी रात हीरो की तरह डॉ. कफील की एंट्री होती है। बताया गया कि उन्होंने अपने पॉकेट से पैसे लगाए और हॉस्पिटल में आॅक्सीजन सिलेंडर की व्यवस्था की। इस व्यवस्था के कारण कई मासूमों की जान बचाई जा सकी।
अब आप इसके दूसरे पहलू को देखिए। एक तो सरकारी हॉस्पिटल। दूसरा यूपी में घोर ‘हिंदूवादी’ सरकार। तीसरा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गृहक्षेत्र की घटना। चौथा एक मुस्लिम डॉक्टर। मीडिया खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास इतना अधिक मसाला था कि डॉ. कफील रातों रात हीरो बन गए। मीडिया को बाइट देते-देते उन्होंने यह जरा भी नहीं सोचा होगा कि यही मीडिया दो दिन बाद उन्हें जीरो बनाने वाली है। आनन फानन में मुख्यमंत्री योगी गोरखपुर पहुंचते हैं। सबसे पहली गाज गिरती है डॉ. कफील पर। उनके ऊपर आरोप लगते हैं कि वही उस वॉर्ड के लिए जिम्मेदार थे जिनमें बच्चों की मौत हुई। बात सामने आती है कि जो डॉ. खान हीरो बन गए थे, दरअसल वो अपनी प्राइवेट प्रैक्टिस भी करते हैं। उनका एक हॉस्पिटल भी है। बकायदा वो पोस्टर चिपकाकर, मीडिया में विज्ञापन देकर अपना प्रचार प्रसार भी करते हैं। उस रात उन्होंने अपने ही हॉस्पिटल से सिलेंडर भेजकर भयावह स्थिति पर काबू पाने की कोशिश की थी। ये प्राथमिक तथ्य थे जिसने डॉ. खान को अर्श से फर्श पर ला पटका। पूरी दुनिया डॉ कफील को कातिल समझने लगी।
यह थी अतीत की बातें। अब जरा वर्तमान परिस्थितियों पर नजर दौड़ाते हैं। आप सभी को जानकर आश्चर्य होगा कि डॉ. कफील सभी आरोपों से मुक्त हो चुके हैं। जिस सरकार ने उन्हें अघोषित कातिल बना दिया था उसी सरकार की विभागीय जांच में उन्हें बच्चों की मौत का जिम्मेदार नहीं माना गया है। रिपोर्ट में साफ तौर पर इस बात का जिक्र किया गया है कि डॉ. कफील ने घटना की रात बच्चों को बचाने की पूरी कोशिश की थी। हालांकि उनपर एक आरोप सही पाए गए कि वे सरकारी डॉक्टर होने के बावजूद प्राइवेट प्रैक्टिस भी करते हैं। मामले की जांच यूपी सरकार में प्रमुख सचिव हिमांशु कुमार ने की। रिपोर्ट के अनुसार डॉ. कफील ने लापरवाही नहीं की थी और उस रात (10-11 अगस्त 2017) स्थिति पर काबू पाने के लिए सभी तरह के प्रयास किए थे। डॉ. कफील अपने सीनियर अधिकारियों को आॅक्सीजन की कमी के बार में पहले ही इत्तला कर चुके थे। रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र है कि उस वक्त डॉ. कफील बीआरडी में इंसेफेलाइटिस वार्ड के नोएल मेडिकल आॅफिसर इन-चार्ज नहीं थे।
अब जरा मंथन करिए। इतना सब ड्रामा होने के बावजूद हासिल क्या हुआ? उस हादसे को दो साल से अधिक हो चुके हैं। आज भी उन बच्चों के परिजनों के आंसू नहीं रुक रहे होंगे। पर कुछ सवाल ऐसे हैं जो अभी तक अनुत्तरित हैं। जब डॉ. कफील उस हादसे के दोषी नहीं हैं तो सरकार किसे दोषी मानेगी। क्या वह आॅक्सीजन सप्लाई करने वाली कंपनी दोषी है, जो अपने कांट्रेक्ट के अनुसार ही काम कर रही थी? या फिर दोषी कोई और है। क्यों नहीं हम सरकारी व्यवस्था को दोषी मानने को तैयार होते हैं। जिस जापानी बुखार से हुई मौत को लेकर इतना हंगामा हुआ, वह उस इलाके में हर साल भयावह रूप लेती जा रही है। जिस वक्त योगी आदित्यनाथ गोरखपुर के सांसद हुआ करते थे उस वक्त भी उन्होंने इसके लिए संघर्ष किया। लोकसभा में भी बात उठाई। हड़ताल किया। पैदल मार्च किया। सिर्फ इसलिए कि केंद्र से लेकर राज्य सरकार उनके संसदीय क्षेत्र में विशेष व्यवस्था करे।
पर जरा मंथन करिए। हुआ क्या। आज भी वह क्षेत्र इस भयानक बीमारी को लेकर डरा रहता है। खुद मुख्यमंत्री योगी ने कहा था कि मैं 1996-97 से इस बीमारी के खिलाफ लड़ाई को लड़ रहा हूं। सड़क से संसद तक लड़ा, पर हल नहीं निकाल सका। 22 जुलाई 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब गोरखपुर में एम्स की आधारशिला रखने पहुंचे थे, तब उन्होंने भी घोषणा की थी कि एक भी बच्चे को इन्सेफलाइटिस से मरने नहीं दिया जाएगा। पर एक साल बाद ही अगस्त 2017 में बच्चों की दर्दनाक मौत ने सरकारी दावों की पोल खोल दी थी।
यह सिर्फ गोरखपुर या इस एक अस्पताल की बात नहीं है। याद करिए अभी कुछ महीने पहले ही बिहार के मुजफ्फरपुर में क्या हुआ था। हर दिन हो रही बच्चों की दर्दनाक मौत पर जब मीडिया ने रिपोर्टिंग शुरू की तब जाकर पता चला कि हमारी सरकारी व्यवस्था में स्वास्थ का क्या हाल है। मुजफ्फरपुर में जब बच्चों की मौत सामने आई थी उसी वक्त किसी अखबार के छोटे से कोने में मैंने डॉ. कफील की बात सुनी थी। यही डॉ. कफील सरकारी सिस्टम से लड़ते हुए वहां के गांव में राहत कैंप चला रहे थे। बिना किसी शोर शराबे के वो गरीब परिवारों को राहत पहुंचा रहे थे। मीडिया का तामझाम उनके पास नहीं पहुंचे इसका वो खास ख्याल शायद इसलिए रख रहे थे क्योंकि कभी वो हीरो से विलेन बन चुके थे। आज वो तमाम आरोपों से बरी होकर फिर सरकारी सिस्टम से सवाल पूछ रहे हैं। सवाल वही है। कब हमारे बच्चे अकाल मौत से बचेंगे। कब वो दिन आएगा जब हमारा सरकारी सिस्टम अपने दायित्वों से बचने के लिए किसी दूसरे की बलि चढ़ाने से बचेगा।

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