गीता संहार नहीं सिखाती, विश्व परिवार बनाती है

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shiwani
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ब्रम्हकुमारीज शिवानी,
स्वर के विकृत होने पर गीत से भी रोने की भासना आती है। गीता के सर्वोच्च ज्ञान को जीवन में उतार न पाने से मानवता भी पतित-भिखारी बन गयी है। संगीतमय जीवन बनाना ही गीता ज्ञान की विशेषता है। ऐसे जीवन के बल पर ही भारतमाता देवभूमि कहलाती थी। सर्वशास्त्र शिरोमणि गीता को हिंसा की प्रेरक मान लेने से चहुं ओर भ्रष्टाचार फैलता जा रहा है। ऐसे विघटन-विनाश के वातावरण में शिव भगवान पुन: अवतरित हो सच्चे गीता ज्ञान के द्वारा गीता-संगीतमय जीवन बना रहे हैं, दिलों के सम्राट सभी को सभ्य बनाने के लिये संस्कृत जैसी कठिन भाषा का प्रयोग क्यों करेंगे  निराकार भगवान अनुभवी ब्रह्मा तन में प्रवेश कर ऐसे ज्ञानमय गीत सुनाते जिसे संसार के हरेक नर-नारी आत्मसात कर सकते है। स्वर्ग बनाने चाले उनके श्री वचनों को आज दुनियाँ में गीता नाम से एकत्र किया गया है।
ये ज्ञान गीत श्लोक, कविताओं की तरह गाने के ही लिये नहीं पर जीवन में धारण कर बहुमूल्य बनने के लिये हैं। गीता संगीतमय दिनचर्या की कथा है। ज्ञान की पराकाष्ठा के कारण ही गीता को सर्वशास्त्र शिरोमणि कहा गया है। गीता शब्द ग+ई+त+आ से बना है। इसका ग जीवन को गायन पूजन योग्य बनाना सिखाता है। ऐसे सुयश को पाने के लिये ई ईश्वरीय स्मृति में टिकाता है। त अक्षर  गृहस्थ में भी त्याग-तपोमय जीवन बना कर कमल समान उपरामता लाता है। साधनों से आसक्ति हटाकर साधनामय तृप्ति देता है। जबकि गीता का आ आनन्द परमानन्दमय जीवन के लिये दिव्यता से अलंकृत करता है। गीता ज्ञान सें जब हम कार्य-व्यवहार व सम्बन्ध-समाज में रहते हुये ईश्वरीय लगन में मगन रहने लगते तो सर्वगुण सम्पन्न, सम्पूर्ण निर्विकारी, अहिंसा परमोधर्म वाले देवी-देवता समान 16 कला अवतार बन सकते हैं।
जैसे बैटरी से कोई भी कार्य लिया जाता तो डिसचार्ज होती है पर पॉवर हाउस से जोड़ते ही चार्ज होने लगती है। वैसे ही तमोप्रधानता के कारण आज सभी आत्मायें गुण व शक्तिहीन हो मै मूरख-खल कामी कहती रहती हैं। सर्वशक्तिवान निराकार शिव भगवान से गीता ज्ञान के अनुसार सर्वसम्बन्ध जोड़ते रहने पर वे ही मालामाल-खुशहाल बन नर से श्री नारायण व नारी से श्रीलक्ष्मी समान बनने की अधिकारी बन जाती है। गीता ज्ञान आसुरी संस्कारों को मार भगाता, ना कि हिंसक हथियार उठवाता है। सत्ज्ञान से देवी-देवताओं की तरह अंग-अंग कमल समान शीतल-सुखदायी बन जाते, न कि धनुष-बाण की तरह बार करने के लिये धात-प्रतिधात को उद्यत रहते हैं। सभी कर्म इन्द्रियाँ गीता ज्ञान से कर्मचारी की तरह चलती हैं। आत्मा राजा को राजसिंहासन पर बैठने लायक राजयोगी बना कर विश्व परिवार वाली वृत्तियों से भर देती हैं क्योकि हम निराकार आत्मायें एक ही परमधाम की रहने वाली हैं एक परमपिता की ही सन्तानें भी हैं।
गीता में हिंसक हथियारों वाले योद्धाओं को दर्शा कर टीकाकारों ने उसके परमानन्दमय (आध्यात्मिक) सृजन को ही रोक दिया है। गीता के पहले अध्याय का पहला ही श्लोक गृहस्थ रूपी कर्मक्षेत्र पर धर्ममय कर्म करने के लिये प्रेरित करता है। परन्तु कुरुक्षेत्र के लड़ाई वाले मैदान में पारिवारिक बंटवारों के लिये धर्मयुद्ध खड़ा कर द्रोणाचार्य-कृपाचार्य जैसे संतों के हाथों में भी हथियार पकड़ा दिया गया है। इससे परम प्रकाशमय सर्वआत्माओं के परमपिता परमात्मा से परमसुख मिलने की बजाय सारे संसार में ही भय-क्रोध, आतंक-असुरक्षा, अधर्म एवं अज्ञानता का अंधकार और ही गहराता जा रहा है।
अट्ठारह अध्याय-नष्टोमोहा-स्मृति स्वरूप बन कर परम पद पाने के लिये लिखे गये हैं। पर सुख-शान्तिमय वातावरण की बजाय लोग लाठी-तलवार, बंदूक, त्रिशूल ले बम-बम भोले कहने में ही गीता का अनुसरण समझते हैं। गीता ज्ञान तो संसार में स्वर्ग उतारने व भाईचारा बढ़ाने के लिये परम प्रेरणास्रोत हैं। ऐसा पुनीत ग्रन्थ अराजकता क्यों फैलायेगा 

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