When the frenzied crowd surrounded Mahatma Gandhi: जब उन्मादी भीड़ ने महात्मा गांधी को घेर लिया था

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देश में आजकल मॉब लिंचिंग की खूब चर्चा हो रही है। कभी झारखंड, तो कभी बंगाल। कभी राजस्थान, तो कभी यूपी। मॉब लिंचिंग शब्द लोगों को डराने लगा है। आपको पता है कि मोहनदास करमचंद गांधी यानी महात्मा गांधी भी मॉब लिंचिंग का शिकार होते-होते बच गए थे। झारखंड के देवघर में उन्मादी भीड़ ने कभी महात्मा गांधी पर भी हमला किया था। हालांकि, उस हमले में महात्मा गांधी की जान बच गई थी। तब यह इलाका बिहार का हिस्सा हुआ करता था। हिंदुस्तान गुलाम था। अंग्रेजी हुकूमत थी और लोग आजादी की लड़ाई का नेतृत्व कर रहे महात्मा गांधी के दीवाने हुआ करते थे। उससे पहले दक्षिण अफ्रिका में मोहनदास करमचंद गांधी का नाम प्रतिष्ठित बैरिस्टर के तौर पर ख्यात हो चुका था। भारत वापसी के बाद लोग उन्हें विद्रोही सत्याग्रही के रुप मे जानने लगे थे। साल 1917 का विश्व प्रसिद्ध चंपारण सत्याग्रह काफी सफल रहा था और गांधी जी के चाहने वालों की संख्या लाखों में हो गई थी। उन्हीं दिनों बिहार में अस्पृश्यता (छूआछूत) के खिलाफ सामाजिक आंदोलन की शुरूआत हो चुकी थी। बिहार के कई शहरों-गांवों में इसकी चर्चा थी। वह साल 1934 के शुरूआती महींने थे। गांधी जी की आजादी की लड़ाई में उनका समर्थन करने वाले कुछ लोग भी जाति के सवाल पर मुखर होकर उनके विरोध पर उतर आए थे। तभी महात्मा गांधी देवघर आए और यहां जो हुआ, वह हमारे इतिहास की मोटी किताब में कुछ पन्नों के बतौर कहीं फंसा हुआ है। इस आलेख में उसकी ही चर्चा करते हैं।
25 अप्रैल, 1934 की आधी रात का वक्त। तत्कालीन बिहार (अब झारखंड) के जसीडीह स्टेशन पर लोगों की भीड़ जमा होने लगी। कुछ दर्जन लोग आए। फिर कुछ सौ और। देखते ही देखते करीब तीन हजार लोगों की भारी भीड़। इनके हाथों में फूल-मालाएं थीं। गांधी जी के सम्मान में लिखी कुछ तख्तियां भी। लेकिन, इस भीड़ में करीब 300 वैसे लोग भी थे, जिन्हें गांधी जी की इस यात्रा से खुशी नहीं थी। वे उनका विरोध करने पहुंचे थे। हाथों में लाठियां, पत्थर और काले झंडे लेकर। जसीडीह स्टेशन पर लगीं घड़ी की घंटी ने 12 बजने की मुनादी की, तो अंग्रेजी तारीख बदल गई। नयी तारीख थी – 26 अप्रैल। रात के दो बजे वह ट्रेन जसीडीह पहुंची, जिससे महात्मा गांधी यात्रा कर रहे थे। उनके उतरते ही जिंदाबाद के नारे लगे। भारत माता की जय की गूंज के बीच गांधीजी को जसीडीह स्टेशन के पोर्टिको तक लाया गया। वहां काले रंग की आस्टिन कार (रजिस्ट्रेशन नंबर- बीओ 484) उनका इंतजार कर रही थी। बभमनगामा इस्टेट, सारठ के राय बहादुर जगदीश प्रसाद सिंह की उस कार पर सवार होकर महात्मा गांधी जैसे ही स्टेशन परिसर से बाहर निकले, सैकड़ों लोगों की भीड़ ने उनकी कार पर हमला कर दिया। इस भीड़ में ज्यादातर देवघर के पंडे थे। राधेश्याम मठपति और कमला दत्त के नेतृत्व में पहुंचे पंडों के हाथों में लाठियां थीं। काले झंडे भी। कार पर पथराव हुआ। काले झंडे दिखाए गए। लाठियां बरसायी गईं और महात्मा गांधी वापस जाओ के नारे भी लगे। गांधी जी की कार का शीशा टूट गया लेकिन ड्राइवर की सूझ-बूझ और गांधी जी की सुरक्षा के लिए बनी कमेटी के सदस्यों की तत्परता से उनकी जान बचायी जा सकी। कार किसी तरह देवघर पहुंची और बंपास टाउन मोहल्ले की बिजली कोठी के अहाते में रुकी। सेठ सूरजमल जालान की उस कोठी में गांधी जी के रहने का इंतजाम कराया गया था। तब सुबह होने वाली थी। लोगों की काफी भीड़ थी और वे इस हमले से हैरान थे। सबकी चिंता यह थी कि गांधी जी को कोई चोट तो नहीं लगी। गाड़ी पर पथराव भी किया गया था। गांधी जी ने कहा कि वे ईश्वर की कृपा से बच गए। इसके अगले दिन उन्होंने सार्वजनिक मीटिंग में कहा कि वे काले और लाल झंडा दिखाने वाले लोगों से डरने वाले नहीं हैं। इसके बाद उन्होंने अपने सारे कार्यक्रम पूर्व निर्धारित तरीके से ही संपन्न किए। उन्होंने देवघर के प्रसिद्ध बाबा विश्वनाथ के मंदिर में हरिजनों को प्रवेश कराया। उन्हें पूजा का अधिकार दिलाकर समाज में बराबरी का संदेश दिया। तब देश-विदेश के अखबारों में इसकी खूब चर्चा हुई। बाद के दिनों में दूसरी जगहों पर भी इस घटना के उदाहरण दिए गए। वह एक क्रांतिकारी कोशिश थी, जिसने तत्कालीन बिहार में बड़े सामाजिक आंदोलन को हवा दी।
महात्मा गांधी के देवघर प्रवास के विरोध की वजह थी उनका आंदोलन। तब वे जातिगत छुआछूत के खिलाफ बिहार में आंदोलन चला रहे थे। देवघर में हुए हमले से पहले बक्सर और आरा में भी उनका विरोध हो चुका था। बक्सर के रामरेखा घाट पर पंडों ने धर्मद्रोही गांधी का बहिष्कार करो लिखे पर्चे बंटवाए थे और ऐसे पोस्टर भी लगाए गए थे। उन दिनों देवघर के बाबा बैद्यनाथ मंदिर में हरिजनों (दलितों) के प्रवेश पर रोक थी। वे मंदिर में जाकर भगवान शंकर की पूजा नहीं कर सकते थे। यह व्यवस्था बाद में लागू की गई थी, क्योंकि गांधी जी ने ही साल 1925 के देवघर दौरे के दौरान मंदिर में हरिजनों को दूसरी जाति की तरह प्रवेश दिए जाने की व्यवस्था की बड़ाई की थी। तब उन्होंने हरिजनों और आदिवसियों के बीच तीन दिन गुजारे थे और उन्हें साफ रहने, रोज नहाने, नाखून काटने, साफ कपड़े पहनने जैसी नसीहतें दी थीं। लेकिन, बाद के दिनों में देवघर के बाबा मंदिर में हरिजनों के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई थी। गांधी जी को इसकी खबर मिली, तो उन्होंने देवघर दोबारा जाने का निर्णय लिया। जैसे ही उनके देवघर आगमन के उद्देश्य सार्वजनिक हुए, उनके समर्थन और विरोध मे लोगों की गोलबंदी होने लगी।
गांधीजी के 1934 वाले दौरे से पहले ही देवघर में उनके विरोध की पटकथा लिखी जा चुकी थी। छुआछूत के खिलाफ गांधी जी के आंदोलन से नाराज लोग देवघर में हरिजन दफ्तर के बाहर कई बार प्रदर्शन कर चुके थे। वहां काले झंडे भी लहराए गए थे। लिहाजा, गांधी को जो देवघर आने का निमंत्रण देने वाले पंडित विनोदानंद झा (जो बाद में बिहार के मुख्यमंत्री बने) और दूसरे लोगों को गांधी जी पर हमले की आशंका थी। सारठ निवासी और संप्रति दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक अमरनाथ झा पंकज ने इसकी चर्चा करते हुए बताया था कि तब गांधी जी की सुरक्षा के लिए भी चार दल बनाए गए थे। ऐसे ही एक दल का नेतृत्व अमरनाथ झा पंकज के पिताजी ज्योतिंद्र झा पंकज ने किया था। तब वे युवा थे। इस ममाले का दिलचस्प पहलू यह भी है कि जहां एक ओर कुछ पंडे महात्मा गांधी के छूआछूत निवारण आंदोलन के कट्टर विरोधी थे और उन पर लाठियां बरसायीं, वहीं पंडा समाज के ही विनोदानंद झा और ऊंची जाति के कुछ दूसरे लोग उनके इस आंदोलन को समर्थन दे रहे थे। गांधी जी का देवघर दौरा अगर सफल हुआ, तो इसमें इनलोगों की महती भूमिका थी। मतलब, छूआछूत के खिलाफ चल रहा आंदोलन जातिगत न होकर वैचारिक बन चुका था। इसके समर्थक और विरोधी सभी जातियों में थे।
हांलांकि, तब गांधीजी के विरोधी पंडों को गिद्धौर के महाराजा का समर्थन हासिल था। पंडों ने इसको लेकर कई बैठकें भी की थीं। इनमें गांधी जी के विरोध का पूरा खांका तैयार किया गया था। गिद्धौर महाराजा के समर्थन से उन्हें बल मिल गया था। इस बाबत आयोजित एक बैठक में वे स्वयं नहीं पहुंचे थे, लेकिन उनकी चिट्ठी पढ़कर सुनायी गई। इसमें उन्होंने गांधी जी के विरोध में चल रहे पंडों के आंदोलन को पूरी तरह समर्थन देने का वादा किया था। उनके समर्थन के कारण पंडों की आर्थिक दिक्कतें भी खत्म हो चुकी थीं क्योंकि उन्होंने आंदोलन के लिए पैसे भी उपलब्ध कराए थे। लेकिन, मारवाड़ियों का समूह गांधी जी के आंदोलन के साथ था। देवघर के वरिष्ठ पत्रकार संजीत मंडल बताते हैं कि नथमल सिंघानिया और सूरजमल जालान जैसे मारवाड़ियों ने गांधी जी की देवघर यात्रा का न केवल समर्थन किया, बल्कि उसकी सफलता के लिए आर्थिक मदद भी की। रहने के लिए आवास का प्रबंध किया। मारवाड़ियों का बहुमत महात्मा गांधी के साथ था और उनका मानना था कि मंदिर में हरिजनों को प्रवेश से नहीं रोका जाना चाहिए। इस कारण वे गांधीजी की देवघर यात्रा के समर्थन में खड़े थे। उनकी मदद की बदौलत गांधी जी ने भी अपने समर्थकों के साथ हरिजनों को बाबा बैद्यनाथ मंदिर में प्रवेश कराने में सफलता पायी और यहां के परमेश्वर ठाकुर से अपनी हजामत भी बनवायी। परमेश्वर ठाकुर नाई थे और आज भी उनका परिवार इस गौरव से गौरवान्वित है कि उनके पूर्वज को गांधी जी की सेवा करने का अवसर मिला था।
देवघर में गांधी जी की ऐसी कई यादें हें। पंडित विनोदानंद झा के पुत्र कृष्णानंद झा भी बिहार सरकार मे मंत्री रहे हैं और इन दिनों देवघर में रहते हैं। उनके पिताजी ने उस कार को देवघर मंगवाने की पहल की थी, जिसपर सवारी के दौरान गांधीजी पर हमला किया गया था। उसकी मरम्मत कराकर उसे रखे जाने की योजना थी, ताकि आने वाली पीढ़ियां उसे देख सकें। तब वह कार पटना संग्रहालय की संपत्ति हुआ करती थी। हालिया प्रकाशित किताब झारखंड में महात्मा गांधी के लेखक व वरिष्ठ पत्रकार अनुज कुमार सिन्हा बताते हैं कि महात्मा गांधी ने दलितों और आदिवासियों को समाज में बराबरी का हक और प्रतिष्ठा दिलाने के लिए झारखंड की कई यात्राएं की। वे देवघर भी दो बार गए। 1934 में हुए हमले से पहले वे 1925 में भी देवघर और मधुपुर आए थे और इस जाति के उत्थान के लिए लोगों को जागरुक किया था। गांधी जी की वह स्मृतियां आज भी लोगों के जेहन में हैं।

-रवि प्रकाश

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