Tum kya gaye ki…: तुम क्या गए कि…

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ये इक्का-दुक्का घटना नहीं है। पंजाब में भी एक धर्मगुरु के चतुर अंधभक्त उनके मृत शरीर का दाह-संस्कार नहीं होने दे रहे। कहते हैं कि वे ध्यान में लीन हैं। जल्दी ही उठ खड़े होंगे। उच्च न्यायालय के कहने पर भी कुछ नहीं हो रहा। भय है कि अगर कोशिश की गई तो बड़ा बवाल खड़ा हो जाएगा। संविधान की धारा 370 और 35ए भी कुछ इसी तरह की सड़ी-गड़ी लाश थी। सडांध और बदबू से जान निकली जा रही थी। कीड़े पड़ रहे थे। लेकिन हुक्मरान इसे सत्तर साल छाती से चिपकाए रहे। कभी स्वार्थ वश तो कभी भय वश। लेकिन हर चीज की एक हद होती है। रोज-रोज के झगड़े से आजिज सरकार ने आखिर एक दिन मन बना ही लिया। जैसा कि यथास्थिति के पैरवीकार डरा रहा थे कि ऐसे एक भी कदम से जलजला आ जाएगा, ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक की तो छोड़िये, सारे घर की बदल डाली। फिर भी स्थिति सामान्य है। टुकड़े-टुकड़े गैंग के गलाफाड़ सदस्य और दशकों से सत्ता पर काबिज राजनीतिक परिवार डूबते गीदड़ की तरह निकले। डूब खुद रहे हैं और चिल्ला रहे है कि सारी दुनिया डूब रही है।
ये धर्म और संरक्षण आधारित भेदभाव की मध्यकालीन व्यवस्था थी। इक्कीसवीं शताब्दी में इसे चलाए रखना असम्भव था। आखिर बाकि हिंदुस्तान को कैसे समझाया जाय कि कश्मीर का नखरा पूरा देश क्यों उठाए और उठाता ही रहे? ये अपना ख्याल खुद क्यों नहीं कर सकता? इसके चक्कर में लद्दाख और जम्मू की ऐसी-तैसी क्यों की जाय? एक और कारण से ये कदम स्वागत योग्य है। अलगाववाद और आतंकवाद एक असाध्य रोग है। नीमहकीम इसका इलाज नहीं कर सकते। ना ही झाड़-फूंक काम आएगा। ये तो सजर्री से ही ठीक हो सकता है। जब सारी दवाइयां फेल हो गई थी और राज्य वेंटिलेटर पर आ ही गया था तो कोई भी बीमार का हित चाहने वाला डाक्टर यही फैसला लेता। तीमारदारों की बेअक्ली की सजा रोगी को तो नहीं मिलनी चाहिए। 1989 के बाद की ही हिंसा में कश्मीर में बयालीस हजार से ज्यादा लोगों की जानें ऐवें जा चुकी है। लाखों घायल हुए हैं। प्रदेश की अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है। अगर केंद्र पैसा नहीं भरे तो इसका खड़ा होना मुश्किल हो जाए। यहां के लोगों के सामने एक ऐतिहासिक अवसर है। विकास की बात करती सरकार से काम लें। अपने प्रदेश में एक रोजगार-परक आधुनिक अर्थ-व्यवस्था के निर्माण में भागीदार बनें। सरकार के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। समृद्धि मुफ्त में नहीं मिलती। खून-पसीना एक करना पड़ता है। सरकार के सामने लोगों से सकारात्मक संवाद और गठजोड़ स्थापित करने की चुनौती है। दोनों मिलकर ही एक नए कश्मीर का निर्माण कर सकते हैं जो एक पर्यटन स्थल की हैसियत से स्विट्जरलैंड का मुकाबला करता हो।
इस सप्ताह पूर्व विदेश मंत्री की अनायास मृत्यु भी सबको स्तब्ध कर गई। किडनी प्रत्यारोपण हुआ था। हृदयघात जानलेवा साबित हुआ। प्रतिबद्ध, हाजिर-जवाब और दिलेर महिला थी। अनुभव काम में सालों लगाने से हासिल होता है। कई और साल राष्टÑनिर्माण में योगदान दे सकती थी। लेकिन जीवन-मृत्यु तो कहते हैं विधि-हाथ है। उनको विनम्र श्रधांजलि। अंतिम समय तक सजग थी। मृत्यु के घंटे भर पहले कश्मीर पर सरकार द्वारा लिए गए साहसिक और सामयिक फैसले पर अपने ट्विटर हैंडल पर ये संदेश लिखा था ‘प्रधानमंत्री जी’ आपका हार्दिक अभिनन्दन, मैं अपने जीवन में इस दिन को देखने की प्रतीक्षा कर रही थी। और स्वस्थ होती तो इस कदम की और जोरदार पैरवी हो रही होती। विदेश मंत्री के रूप में ट्विटर के प्रभावी इस्तेमाल के लिए उन्होंने ‘ट्विटर मिनिस्टर’ की उपमा पाई। उनका हैंडल अपने में एक मिसाल है। खुद किसी को फॉलो नहीं करती थीं लेकिन उन्हें एक करोड़ इक्कतीस लाख फॉलो करते थे। दुनियां में कहीं कोई भी भारतीय किसी संकट में हो, बस एक ट्वीट की जरूरत होती थी। ये उनके प्रबंधन क्षमता और प्रगतिशील विचारों का कइयों में एक प्रमाण है। जीवनशैली-जनित बीमारियां जैसे कि हार्ट-अटैक, डाइबीटीज, रक्तचाप कब चुपके पांव हमें धर लेती है, पता ही नहीं चलता। जरूरी है कि सतर्क रहें। समय पर इलाज और जीवनशैली में बदलाव से क्षति को रोका जा सकता है। वैसे, मृत्यु के प्रति हमारा नजरिया हमेशा एक-सा नहीं होता। सूफियों में तो इसका जश्न मनाया जाता है।
भला हुआ मेरी मटकी फूटी,
मैं तो पनियां भरण से छूटी।
ये तो जन्म से साथ ही आती है। हमेशा साथ-साथ चलती रहती है। हम ही जान-बूझकर अनजान बने रहते हैं। फिर किसी दिन अनकहे चुपके से धपाक बोल देती है। पीछे रह गए लोगों को अभाव खलता है। खुद अपने नश्वर होने का बोध होता है। फिर महीने-दो-महीने में जिंदगी पटरी पर लौट आती है। मृत्यु की पीड़ा अंतरंगता के स्तर से सीधी जुड़ी होती है। जिन्हें हम जानते नहीं या जिनसे हमें कोई लगाव नहीं, उनका जाना हमारे लिए एक खबर मात्र होता है। कम्प्यूटर के लहजे में मृत्यु एक डाटाबेस के हैक होने जैसा है, जिससे हम फिर कभी एक्सेस नहीं कर सकते। समय के साथ हम अपने डाटाबेस को नयी स्थिति के हिसाब से सेट कर लेते हैं। जिंदगी चलती रहती है। और ऐसे ही चलेगी।
(लेखक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं।)

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