Phasad ka kutteir udyog : फसाद का कुटीर उद्योग

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हिंसाग्रस्त इलाकों पर नजर रखने वालों के लिए कश्मीर एकता कपूर के सास-बहु वाली टीवी सीरीयल की तरह सालों-साल चला। गिने-चुने कैरेक्टर थे। घिसे-पिटे डायलॉग बोलते थे। स्क्रिप्ट सुनी-सुनाई थी। सारे मान चुके थे कि ये ऐसे ही चलेगा। बस देखते जाओ। इस बवाल का इतिहास सत्तर साल से ऊपर का है। 1947 में जम्मू-कश्मीर एक राज्य था। राजा तो हिंदू था लेकिन आबादी मिली-जुली थी। हिंदू, मुस्लिम और बौद्ध रहते थे। जब अंग्रेज जाने लगे तो धर्म के आधार पर भारत का दो-फाड़ कर गए। रजवाड़ों को छूट दे दी कि किधर भी जाओ तुम्हारी मर्जी। कश्मीर का राजा इस खुशफहमी में था कि अकेले रह लेगा सो तब के गवर्नर-जनरल के मान-मनोव्वल पर भी भारत में विलय को तैयार न हुआ। जब पाकिस्तानी फौजों और कबाइलियों ने हल्ला बोल दिया तब कहीं जाकर अक्ल ठिकाने आई। विलय के बदले में अपने राज्य के लिए विशेष दर्जे की मांग की जो अस्थाई तौर पर मान ली गई।
समय बीता। चुनी हुई सरकारों ने मोर्चा संभाला। मुस्लिमों का वोट ज्यादा था सो मुस्लिम ही मुख्य मंत्री लगते रहे। वे अपना राजनीतिक वजूद बनाए रखने के लिए कट्टरपंथियों के तुष्टिकरण के रास्ते चल पड़े, केंद्र सरकार से टकराव रखने लगे। यहां तक कि पाकिस्तान का मोहरा चलने लगे। भारत की खाते और इसी पर गुर्राते। ये बीमारी फैलते-फैलते आम लोगों तक पहुंच गई। बिगड़ैल लड़के पाकिस्तनियों के हत्थे चढ़ गए। कभी आजादी तो कभी पाकिस्तान में शामिल होने के नाम पर दंगे-फसाद करने लगे। 1980 के उत्तरार्ध में हिंदुओं को घाटी से मार भगाया। अघोषित युद्ध की स्थिति हो गई। फौजें लाइन आॅफ कंट्रोल संभाल रही थी। पारामिलिटेरी और जम्मू-कश्मीर पुलिस वाले आतंकियों और उनके स्थानीय चेले-चपाटों को निबटाने में लग गए। अंतरराष्ट्रीय फोरमों पर भी जुबानी-जंग तल्ख होती गई। कश्मीर के बारे में लोग मान बैठे कि जैसे अन्य राज्यों में बाढ़, भूकंप, नक्सलवाद है, वैसे ही इधर इस्लामिक आतंकवाद है। जब-तब मरने-मारने की खबर आती रहेगी। कुछ समय के लिए शोर-शराबा होगा। पश्चिमी देश हमले की स्थिति में संयम बरतने के लिए कहेंगे। पाकिस्तान इसे कश्मीर की आजादी की लड़ाई बताएगा। जवाबी कार्रवाई को  मानवाधिकार का हनन करार दिया जाएगा। पाकिस्तान कभी यूएन में रोएगा, कभी चीन की तरफ दौड़ेगा। अमेरिका बातचीत से मामला सुलटाने के लिए कहेगा। भारत आतंकवाद का समर्थन ना करने के शर्त पर  शिमला-समझौते के तहत द्विपक्षीय वार्ता की बात करेगा। फिर स्थिति अगली बड़ी आतंकी या आतंक-रोधी कार्रवाई तक सामान्य हो जाएगी।
लेकिन पिछले अगस्त महीने में जब गरमा-गरमी शुरू हुई तो किसी को अंदाजा नहीं था घाटी का रंग इस तरह से बदलेगा। पलक झपकते राज्य का अस्थाई विशेषाधिकार समाप्त कर दिया गया। जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को दो अलग केंद्र-शासित प्रदेश बना दिया गया। अलगाववाद और वंशवाद की रोटियां सेक रहे नेताओं को अस्थाई तौर पर जेल घोषित होटलों में टिका दिया गया। फोन और इंटरनेट का दुरुपयोग दंगा-फसाद के लिए ना हो, इस खातिर उनकी सेवाएं बंद कर दी गई। सास-बहु के टीवी सीरीयल का ये एक तरह से अनायास एंटी-क्लाइमैक्स था। पाकिस्तान दुनिया भर में रोया फिरा। मलेशिया और टर्की जैसे इक्के-दुक्के मुस्लिम देश को छोड़कर बाकी ने इसे भारत का आंतरिक मामला बताकर पल्ला झाड़ लिया। यहां तक कि सरपरस्त चीन ने भी चुप रहने में ही भलाई समझी। बोल भी क्या सकता था? खुद ही हांगकांग में उलझा हुआ है।
कश्मीर में माहौल अब एक ऐक्शन-फिल्म जैसा है। नए लोग कठोर और निर्णायक फैसाले लेने में नहीं झिझकते। तिकड़मी लोग सदमे में हैं। स्थिति को सामान्य करने के लिए सिलसिलेवार कोशिश हो रही है। छिटपुट आतंकी घटना हुई है जिसमें अन्य राज्य के गरीब कामगरों की हत्या हुई है। ऐसा आगे भी होगा। लेकिन ये एक ऐसी लड़ाई है जिससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। ये दुर्भाग्य ही है कि एक अलग देश बनने के बाद पाकिस्तान ने अपने को एक राष्ट्र के रूप में स्थापित करने के बजाय भारत-विरोध को अपने अस्तित्व का आधार बनाया। जो था उसे सहेजने और बढ़ाने  के बजाय कश्मीर का बेसुरा राग अलापने लगा। जो पैसा गरीबी-उन्मूलन, स्वास्थ्य, शिक्षा, विकास में लगाना चाहिए था, उससे तोप गोला-बारूद खरीदने लगा। अब तो ये कंगाली के कगार पर है। गले तक कर्ज में डूबा हुआ है। एक देश के नाम पर मजाक बन कर रह गया है।
भारत की विडंबना ये है कि इसे एक खंडहर पड़ोस मिला है। ये एक भौगोलिक स्थिति है जिसे बदला नहीं जा सकता। सिरफिरे लड़के आतंकवाद को रोजगार की तरह देखते हैं। कश्मीर धरती पर जन्नत के नाम से मशहूर है। ये सोचते हैं कि दोनों हाथ में लड्डू है – जन्नत में रहकर जन्नत के लिए जिहाद कर रहे हैं। पाकिस्तानी फौजें इसका इस्तेमाल अपने लोगों का ध्यान बदहाली से भटकाने के लिए कर रही है। अफगानी लड़ाकों को कश्मीर भेज रही है। ऐसे में सख्त कदम जरूरी है। उन्हें लगना चाहिए कि वे इधर पिकनिक पर नहीं आ रहे।
कश्मीर में देर-सवेर इंटरनेट और फोन पूरी तरह बहाल हो जाएगा। जब ये नहीं था तब भी लोग जी ही रहे थे। चुनौती इस बात की है कि हिंसापरस्त युवाओं को कैसे रोका जाए जो फसाद को कुटीर उद्योग समझते हैं और इसमें अपनी पहचान ढूंढ़ते हैं, तरक्की देखते हैं। बेहतर जीवन के लिए मेहनत का जज्बा रखने वालों को कैसे नई कश्मीर का चेहरा बनाया जाए। अभी की राजनीतिक पौध तो धार्मिक भावनाएं उभारने की आदी है। टकराव और अलगाववाद को सत्ता की चाभी समझती है। कुल मिलाकर कोई शॉर्टकट नहीं है। ये तो एक लम्बा संघर्ष है जिसमें संकल्प, धैर्य और कल्पनाशीलता की बहुत जरूरत पड़ने वाली है।

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